Kab Roza Na Rakhne Ki Ijazat Hai

Kab Roza Na Rakhne Ki Ijazat Hai

Kab Roza Na Rakhne Ki Ijazat Hai – कब रोजा न रखने की इजाज़त है

बयान उन वजहों का जिनसे रोजा न रखने की इजाज़त है

हदीस न. 1 : सहीहैन में उम्मुल मोमिनीन सिद्दीका रदियल्लाहु तआला अन्हा से मरवी कहती हैं हमज़ा इब्ने अम्र असलमी बहुत रोजे रखा करते थे, उन्होंने नबीये करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से दरयाफ्त किया कि सफ़र में रोज़ा रखू। इरशाद फ़रमाया चाहे रखो चाहे न रखो।

हदीस न. 2 : सही मुस्लिम में अबू सईद ख़ुदरी रदियल्लाहु तआला अन्हु से मरवी कहते हैं सोलहवें रमज़ान को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के साथ हम जिहाद में गये हम में बाज़ ने रोज़ा रखा और बाज़ ने न रखा तो न रोज़ादारों ने गैर रोज़दारों पर ऐब लगाया और न इन्होंने उन पर।



 

हदीस न. 3 : अबू दाऊद व तिर्मिज़ी व नसई व इब्ने माजा अनस इब्ने मालिक कअबी रदियल्लाहु तआला अन्हु से रावी कि हुजूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने मुसाफ़िर से आधी नमाज़ माफ़ फ़रमा दी (यानी चार रकआत वाली दो पढ़े) और मुसाफ़िर और दूध पिलाने वाली और हामिला से रोज़ा माफ़ फ़रमा दिया (कि इनको इजाज़त है कि उस वक़्त न रखें बाद में वह मिक़दार पूरी कर लें।)

मसअला : सफ़र व हमल और बच्चे को दूध पिलाना और मरज़ और बुढ़ापा और ख़ौफ़े हलाक व इकराह व नुकसाने अक्ल और जिहाद सब रोजा न रखने के लिए उज्र हैं इन वजहों से अगर कोई रोजा न रखे तो गुनाहगार नहीं।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : सफ़र से मुराद सफ़रे शरई है यानी इतनी दूर जाने के इरादे से निकले कि यहाँ से वहाँ तक तीन दिन की मसाफ़त (दूरी) हो अगर्चे वह सफ़र किसी नाजाइज़ काम के लिए हो।

(दुर्रे मुख़्तार)

🎁 मुसाफ़िर की नमाज़ | Mushafir ki namaz

मसअला : दिन में सफर किया तो उस दिन का रोजा इफ्तार करने (तोड़ने) के लिए आज का सफ़र उज़ नहीं अलबत्ता अगर तोड़ेगा तो कफ्फ़ारा लाज़िम न आयेगा मगर गुनाहगार होगा और अगर सफर करने से पहले तोड़ दिया फिर सफ़र किया तो कफ्फ़ारा भी लाज़िम और अगर दिन में सफर किया और मकान पर कोई चीज़ भूल गया था उसे लेने वापस आया और मकान पर आकर रोज़ा तोड़ डाला तो कफ्फ़ारा वाजिब है।

(आलमगीरी)



 

मसअला : मुसाफ़िर ने ज़हवए कुबरा से पहले इकामत की और अभी कुछ खाया नहीं तो रोजे की नियत कर लेना वाजिब है।

(जौहरा)

मसअला : हमल वाली और दूध पिलाने वाली को अगर अपनी जान या अपने बच्चे का सही अन्देशा है यानी बच्चे को खिलाने-पिलाने के लिए कोई चीज़ है नहीं और यही दूध पिलाती है तो अगर दूध न पिलायेगी तो बच्चे की जान का ख़तरा है तो इजाज़त है कि उस वक़्त रोजा न रखे ख्वाह दूध पिलाने वाली बच्चे की माँ हो या दाई अगर्चे रमज़ान में दूध पिलाने की नौकरी की हो।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : मरीज़ को मरज़ बढ़ जाने या देर में अच्छा होने या तन्दरुस्त को बीमार हो जाने का गुमान ग़ालिब हो या ख़ादिम व ख़दिमा को ना-काबिले बर्दाश्त कमज़ोरी का ग़ालिब गुमान हो तो उन सब को इजाज़त है कि उस दिन रोज़ा न रखें।

(जौहरा, दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : इन सूरतों में ग़ालिब गुमान की कैद है महज़ वहम ना-काफ़ी है। ग़ालिब गुमान की तीन सूरतें हैं उसकी जाहिर निशानियाँ पाई जाती हैं उस शख़्स का जाती तजर्बा है या किसी मुसलमान तबीबे हाज़िक मस्तूर यानी गैरे फ़ासिक ने उसकी ख़बर दी हो और अगर न कोई अलामत हो न तजर्बा न उस किस्म के तबीब ने उसे बताया बल्कि किसी काफ़िर या फ़ासिक तबीब के कहने से इफ्तार कर लिया तो कफ्फ़ारा लाज़िम हो जायेगा।

(रद्दुल मुहतार)

आजकल के अक्सर डाक्टर या हकीम अगर काफ़िर नहीं तो फ़ासिक ज़रूर हैं और न सही तो इस जमाने में हाजिक तबीब नायाब से हो रहे हैं उन लोगों का कहना कुछ काबिले एतिबार नहीं। न उनके कहने पर रोजा इफ्तार किया जाए। उन तबीबों को देखा जाता है कि जरा-जरा सी बीमारी में रोजा मना कर देते हैं इतनी भी तमीज नहीं रखते कि किस मरज़ में रोज़ा मुज़िर (नुकसान देने वाला) है और किस में नहीं।



 

मसअला : बांदी को अपने मालिक की इताअत में फ़ाराइज़ का मौका न मिले तो कोई उज़ नहीं, फ़राइज़ अदा करे और इतनी देर के लिए उस पर इताअत नहीं

मसलन नमाज़ का वक़्त तंग हो जायेगा तो काम छोड़ दे और फ़र्ज़ अदा करे और अगर इताअत की और रोज़ा तोड़ दिया कफ़्फ़ारा दे।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

🎁 Namaz Ka Tarika

मसअला : औरत को जब हैज व निफ़ास आ गया तो रोज़ा जाता रहा। हैज़ से पूरे दस दिन दस रात में पाक हुई तो बहरहाल आने वाले कल का रोज़ा रखे और कम में पाक हुई तो अगर सुबहे सादिक होने को इतना अरसा है कि नहा कर ख़फ़ीफ़ (थोड़ा) सा वक्त बचे तो भी रोज़ा रखे और अगर नहा कर फारिग होने के वक्त सुबहे सादिक़ चमकी तो रोज़ा नहीं।

(आलमगीरी)

🎁 Ghusl Ka Tarika

मसअला : हैज़ व निफ़ास वाली के लिए इख़्तियार है कि छुप कर खाये या ज़ाहिर में, रोज़ा की तरह रहना उस पर ज़रूरी नहीं (जौहरा) मगर छुप कर खाना औला (ज्यादा अच्छा) है खुसूसन हैज़ वाली के लिए।

मसअला : भूक और प्यास ऐसी हो कि हलाक का सही ख़ौफ़ या अक्ल जाती रहने का अन्देशा हो तो रोज़ा न रखे।

(आलमगीरी)



 

मसअला : रोज़ा तोड़ने पर मजबूर किया गया तो उसे इख़्तियार है और सब्र किया तो उसे अज्र मिलेगा।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : साँप ने काटा और जान का अन्देशा हो तो इस सूरत में रोज़ा तोड़ दे।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : जिन लोगों ने इन उज्रों के सबब रोजा तोड़ा उन पर फ़र्ज है कि उन रोज़ों की क़ज़ा रखें और इन क़ज़ा रोज़ों में तरतीब फ़र्ज़ नहीं। लिहाजा अगर इन रोजों के पहले नफ्ल रोजे रखे तो यह नफ्ल रोज़े हो गये मगर हुक्म यह है कि उज्र जाने के बाद दूसरे रमजान के आने से पहले कज़ा रख ले। हदीस में फ़रमाया जिस पर अगले रमज़ान के कज़ा बाकी है और वह न रखे उसके इस रमजान के रोजे कबूल न होंगे और अगर रोजे न रखे और दूसरा रमज़ान आ गया तो अब पहले इस रमज़ान के रोजे रख ले कज़ा न रखे बल्कि अगर गैरे मरीज़ व मुसाफ़िर ने क़ज़ा की नीयत की जब भी कज़ा नहीं बल्कि इसी रमज़ान के रोज़े हैं।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : खुद उस मुसाफ़िर को और उसके साथ वाले को रोजा रखने में नुकसान न पहुँचे तो रोज़ा रखना सफ़र में बेहतर है वरना न रखना बेहतर।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : अगर ये लोग अपने उसी उज़ में मर गये इतना मौका न मिला कि कज़ा रखते तो इन पर यह वाजिब नहीं कि फ़िदये की वसीयत कर जायें फिर भी वसीयत की तो तिहाई माल में जारी होगी और अगर इतना मौका मिला कि क़ज़ा रोजे रख लेते मगर न रखे तो वसीयत कर जाना वाजिब है और जानबूझ कर न रखे हों तो वसीयत करना और सख़्त वाजिब है और वसीयत न की बल्कि वली ने अपनी तरफ से दे दिया तो भी जाइज़ है मगर वली पर देना वाजिब न था।

(दुर्रे मुख़्तार, आलमगीरी)

मसअला : हर रोजे का फ़िदया एक शख्स के सदक़ए फ़ित्र के बराबर है यानी 2 किलो 45 ग्राम गेहूँ या 4 किलो 90 ग्राम जौ या इनकी कीमत और तिहाई माल में वसीयत उस वक़्त जारी होगी जब उस मय्यत के वारिस भी हों और अगर वारिस न हों और सारे माल से फ़िदया अदा होता हो तो सब फ़िदये में सर्फ (खर्च) कर देना लाज़िम है। यूँही अगर वारिस सिर्फ शौहर या जौजा (बीवी) है तो तिहाई निकालने के बाद उन का हक़ दिया जाये उसके बाद जो कुछ बचे अगर फ़िदये में सर्फ़ हो सकता है तो सर्फ कर दिया जायेगा।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : वसीयत करना सिर्फ उतने ही रोजों के हक में वाजिब है जिन रोजों के रखने पर कादिर हुआ था मसलन दस क़ज़ा हुये थे और उन जाने के बाद पाँच पर कादिर हुआ था कि इन्तिकाल हो गया तो पाँच ही की वसीयत है।

(दुर्रे मुख़्तार)



 

मसअला : एक शख़्स की तरफ से दूसरा शख़्स रोज़ा नहीं रख सकता।

(आम्मए कुतुब)

🎁 Roze Ka Bayan – रोजे का बयान

मसअला : एतिकाफ़े वाजिब और सदकए फ़ित्र का बदला अगर वरसा अदा कर दें तो जाइज़ है और उनकी मिकदार वही ब-कद्रे सदक़ए फ़ित्र है और ज़कात देना चाहें तो जितनी वाजिब थी उस कद्र निकालें।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : शैखे फ़ानी यानी वह बूढ़ा जिसकी उम्र ऐसी हो गयी कि अब रोज़-ब-रोज़ कमज़ोर होता जायेगा जब वह रोज़ा रखने से आजिज़ हो यानी न अब रख सकता है न आइन्दा उसमें इतनी ताक़त आने की उम्मीद है कि रोजा रख सकेगा उसे रोजा न रखने की इजाज़त है और हर रोजे के बदले में फिदया यानी दोनों वक्त एक मिस्कीन को भर पेट खाना खिलाना उस पर वाजिब है या हर रोजे के बदले में सदक़ए फित्र की मिकदार मिस्कीन को दे।

(दुर्रे मुख़्तार वगैरा)

मसअला : अगर ऐसा बूढ़ा गर्मियों में गर्मी की वजह से रोज़े नहीं रख सकता मगर जाड़ों में रख सकेगा तो अब इफ्तार कर ले और इनके बदले में जाड़ों में रखना फर्ज है।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : अगर फ़िदया देने के बाद इतनी ताक़त आ गई कि रोज़ा रख सके तो फ़िदया सदक़ए नफ्ल होकर रहेगा उन रोज़ों की क़ज़ा रखे।

(आलमगीरी)

मसअला : यह इख़्तियार है कि रमज़ान ही में पूरे रमज़ान का एक दम फ़िदया दे दे या आखिर में दे और इसमें तमलीक शर्त नहीं (यानी मिस्कीन को मालिक बनाना शर्त नहीं) बल्कि इबाहत भी काफ़ी है मसलन खाना मिस्कीन को अपने घर बुला कर खिला दिया और यह भी जरूर नहीं कि जितने फ़िदये हों उतने ही मिस्कीनों को दे बल्कि एक मिस्कीन को कई दिन के फ़िदये दे सकते हैं।

(दुर्रे मुख्तार वगैरा)

मसअला : कसम या क़त्ल के कफ्फारे का इस पर रोज़ा है और बुढ़ापे की वजह से रोज़ा नहीं रख सकता तो उस रोजे का फ़िदया नहीं और रोज़ा तोड़ने या ज़ेहार का कफ्फारा इस पर है तो अगर रोज़ा न रख सके साठ मिसकीनों को खाना खिला दे।

(आलमगीरी)

नोट : ज़ेहार का बयान बहारे शरीअत के आठवें हिस्से में देखें या किसी सुन्नी सहीहुल अक़ीदा आलिम से समझ लें तब यह मसअला समझ में आएगा मसअला : किसी ने हमेशा रोज़ा रखने की मन्नत मानी और बराबर रोजे रखे तो कोई काम नहीं कर सकता जिससे गुजर-बसर हो तो उसे ब-क़द्रे ज़रूरत इफ़्तार की इजाज़त है और हर रोज़े के बदले में फ़िदया और इसकी भी कुव्वत न हो तो इस्तिग़फ़ार करे।

(रद्दुल मुहतार)

🎁 Astagfirullah Ki Fazilat Aur Dua

मसअला : नफ़्ल रोज़ा क़सदन शुरू करने से लाज़िम हो जाता है कि तोड़ेगा तो कज़ा वाजिब होगी और यह गुमान कर के कि उसके जिम्मे कोई रोज़ा है शुरू किया बाद को मालूम हुआ कि नहीं है अब अगर फौरन तोड़ दिया तो कुछ नहीं और यह मालूम करने के बाद न तोड़ा तो अब. नहीं तोड़ सकता तोड़ेगा तो कज़ा वाजिब होगी।

(दुर्रे मुख़्तार)



 

मसअला : नफ़्ल रोज़ा क़सदन नहीं तोड़ा बल्कि बिला इख़्तियार टूट गया मसलन रोजे के दरमियान में हैज़ आ गया जब भी क़ज़ा वाजिब है।

(दुरै मुख़्तार)

मसअला : ईदैन या अय्यामे तशरीक (बकरईद और उसके बाद के तीन दिन को अय्यामे तशरीक कहते हैं) में रोज़ा नफ्ल रखा तो उस रोजे का पूरा करना वाजिब नहीं न उसके तोड़ने से क़ज़ा वाजिब बल्कि इस रोजे का तोड़ देना वाजिब है और अगर इन दिनों में रोजा रखने की मन्नत मानी तो मन्नत पूरी करनी वाजिब है मगर इन दिनों में नहीं बल्कि और दिनों में।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : किसी ने यह कसम खाई कि अगर तू रोज़ा न तोड़े तो मेरी औरत को तलाक है तो इसे चाहिए कि उसकी क़सम सच्ची कर दे यानी रोजा तोड़ दे अगर्चे रोज़ा क़ज़ा का हो अगर्चे जवाल के बाद हो।

(दुर्रे मुजार)

मसअला : उसके किसी भाई ने दावत की तो ज़हवए कुबरा से पहले नफ़्ल रोज़ा तोड़ देने की इजाजत है।

(दुर्रे मुख्तार)

मसअला : औरत बगैर शौहर की इजाज़त के नफ़्ल और मन्नत व कसम के रोज़े न रखे और रख ले तो शौहर तुड़वा सकता है मगर तोड़ेगी तो कजा वाजिब होगी मगर उसकी क़ज़ा में भी शौहर की इजाज़त दरकार है या शौहर और उसके दरमियान जुदाई हो जाये यानी तलाके बाइन दे दे या मर जाये। हाँ अगर रोज़ा रखने में शौहर का कुछ हरज न हो मसलन वह सफ़र में है या बीमार है या एहराम में है तो इन हालतों में बगैर इजाज़त के भी क़ज़ा रख सकती है बल्कि अगर वह मना करे जब भी और इन दिनों में भी बे उसकी इजाज़त के नफ़्ल नहीं रख सकती। रमज़ान और कज़ाए रमज़ान के लिए शौहर की इजाज़त की कुछ ज़रूरत नहीं बल्कि उसकी मनाही पर भी रखे।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : बांदी, गुलाम भी अलावा फ़राइज़ के मालिक की इजाज़त के बगैर नहीं रख सकते उनका मालिक चाहे तो तुड़वा सकता है फिर उसकी क़ज़ा मालिक की इजाज़त पर या आजाद होने के बाद रखे अलबत्ता गुलाम ने अगर अपनी औरत से ज़ेहार किया तो कफ्फारे के रोजे बगैर मौला की इजाज़त के रख सकता है।

(दुर्रे मुज़ार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : मज़दूर या नौकर अगर नफ़्ल रोज़ा रखे तो काम पूरा नहीं कर सकेगा तो मुसताजिर (यानी जिसका नौकर है या जिसने मजदूरी पर उसे रखा है) की इजाज़त की ज़रूरत है और काम पूरा कर सके तो कुछ ज़रूरत नहीं।

(रद्दुल मुहतार)



 

 

मसअला : लड़की को बाप और माँ को बेटे और बहन को भाई से इजाजत लेने की कुछ जरूरत नहीं और माँ-बाप अगर बेटे को नफ्ल रोज़े से मना कर दें इस वजह से कि मरज़ का अन्देशा है तो माँ-बाप की इताअत करे।

(रद्दुल मुहतार)

( 📚 बहारे शरीअत – पाँचवा हिस्सा 139/144 )

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