Roze Ke Jaruri Masail

Roze Ke Jaruri Masail

Roze Ke Jaruri Masail – रोज़े के जरूरी मसाइल

मसअला : रोज़ा शरीअत की बोलचाल में मुसलमान का इबादत की नियत से सुबहे सादिक़ से गुरूबे आफ़ताब तक अपने को क़सदन जानबूझ कर) खाने पीने जिमा (हमबिस्तरी) से बाज़ रखना। औरत का हैज़ व निफ़ास से ख़ाली होना शर्त है।

मसअला : रोज़े के तीन दर्जे हैं एक आम लोगों का रोज़ा कि यही पेट और शर्मगाह को खाने पीने, जिमा (हमबिस्तरी) से रोकना, दूसरा ख़वास का रोज़ा कि उनके अलावा कान, आँख, ज़बान, हाथ, पाँव और तमाम आज़ा को गुनाह से बाज़ रखना, तीसरा ख़ासुलख़ास का रोज़ा कि अल्लाह तआला के अलावा तमाम चीज़ों से अपने को पूरी तरह जुदा करके सिर्फ उसी की तरफ़ मुतवज्जेह रहना।

(जौहरा नय्यिरा)



 

मसअला : रोजे की पाँच किस्में हैं 1. फ़र्ज़, 2. वाजिब, 3. नफ्ल, 4. मकरूहे तनज़ीही 5. मकरूहे तहरीमी। फ़र्ज व वाजिब की दो किस्में हैं मुअय्यन व गैरे मुअय्यन। फर्जे मुअय्यन जैसे अदाये रमज़ान यानी रमज़ान का रोज़ा रखना, फ़र्जे गैरे मुअय्यन जैसे कज़ाए रमज़ान यानी रमज़ान का रोज़ा जो छूट गया और रोज़ए कफ्फ़ारा जो कफ्फ़ारा लाज़िम होने पर रखा जाये वाजिबे मुअय्यन जैसे नज़रे मुअय्यन। वाजिबे गैरे मुअय्यन जैसे नज़रे मुतलक। नफ्ल दो हैं नफ्ले मसनून नफ्ले मुसतहब जैसे आशूरा यानी दसवीं मुहर्रम का रोजा और उसके साथ नवीं का भी और हर महीने में तेरहवीं, चौदहवीं, पन्द्रहवीं और अरफ़े का रोज़ा, पीर और जुमेरात का रोज़ा। शशईद के रोजे यानी ईद के छह रोज़े, दाऊद अलैहिस्सलाम के रोजे यानी एक दिन रोजा एक दिन इफ़्तार मकरूहे तनजीही जैसे सिर्फ हफ्ते के दिन रोज़ा रखना, नैरोज़ मेहरगान के दिन का रोजा, सौमे दहर यानी हमेशा रोजा रखना, सौमे सुकूत यानी जिसमें कुछ बात न करे, सौमे विसाल कि रोज़ा रखकर इफ़्तार न करे और दूसरे दिन फिर रोज़ा रखे यह सब मकरूहे तनजीही हैं। मकरूहे तहरीमी जैसे ईद और अय्यामे तशरीक (बकरीद और उसके बाद के तीन दिन) के रोजे।

(आलमगीरी, दुर्रे मुख्तार, रद्दुलमुहतार)

🎁 Roze Ka Bayan – रोजे का बयान

मसअला : रोज़े के मुख़्तलिफ़ असबाब (वजहें) हैं रोज़ए रमज़ान का सबब माहे रमजान का आना। रोज़ए नज़र का सबब मन्नत मानना। रोज़ए कफ्फ़ारा का सबब कसम तोड़ना या कत्ल या जेहार वगैरा।

(आलमगीरी)

मसअला : माहे रमज़ान का रोज़ा फ़र्ज़ जब होगा कि वह वक़्त जिसमें रोजे की इब्तिदा (शुरूआत) कर सके यानी सुबहे सादिक़ से जहवए कुबरा तक कि इसके बाद रोज़े की नियत नहीं हो सकती लिहाज़ा रोज़ा नहीं हो सकता और रात में नियत हो सकती है मगर रोजे की महल नहीं (यानी रात रोजे का वक़्त नहीं मगर नियत हो जाएगी) लिहाज़ा अगर मजनून को रमज़ान की किसी रात में होश आया और सुबह जुनून की हालत में हुई या ज़हवए कुबरा के बाद किसी दिन होश आया तो उस पर रमज़ान के रोजे की क़ज़ा नहीं जबकि पूरा रमज़ान इसी जुनून में गुज़र जाये और एक दिन भी ऐसा वक़्त मिल गया जिसमें नियत कर सकता है तो सारे रमज़ान की क़ज़ा लाज़िम है।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुलमुहतार)



 

मसअला : रात में रोजे की नियत की और सुबह गशी की हालत में हुई और यह गशी कई दिन तक रही तो सिर्फ पहले दिन का रोज़ा हुआ बाकी दिनों का क़ज़ा रखे अगर्ने पूरे रमज़ान भर ग़शी रही अगर्चे नियत का वक़्त न मिला।

(जौहरा, दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : रमज़ान के रोजे की अदा और नज़रे मुअय्यन और नफ्ल के रोजों के लिए नियत का वक्त गुरूबे आफ़ताब से ज़हवए कुबरा तक है इस वक़्त में जब नियत कर ले ये रोजे हो जायेंगे। लिहाज़ा आफ़ताब डूबने से पहले नियत की कल रोज़ा रखूगा फिर बेहोश हो गया और ज़हवा कुबरा के बाद होश आया तो यह रोज़ा न हुआ और आफ़ताब डूबने के बाद नियत की थी तो हो गया।(दुरे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार) मसअला : ज़हवए कुबरा नियते वक़्त नहीं बल्कि इससे पेशतर (पहले) नियत हो जाना ज़रूरी है और अगर ख़ास वक़्त यानी जिस वक़्त आफ़ताब ख़त्ते निस्फुन्नहारे शरई पर पहुँच गया नियत की तो रोज़ा न हुआ।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : नियत के बारे में नफ़्ल आम है सुन्नत व मुसतहब व मकरूह सब को शामिल है कि इन सब के लिए नियत का वही वक़्त है।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : जिस तरह और जगह बताया गया कि नियत दिल के. इरादे का नाम है ज़बान से कहना शर्त नहीं यहाँ भी वही मुराद है मगर ज़बान से कह लेना मुसतहब है अगर रात में नियत करे तो यूँ कहे :-

Roze Ke Jaruri Masail

तर्जमा : मैंने नियत की कि अल्लाह तआला के लिए इस रमज़ान का फर्ज़ रोज़ा कल रखूगा।

और दिन में नियत करे तो यह कहे :-

Roze Ke Jaruri Masail

तर्जमा : मैंने नियत की कि अल्लाह के लिए आज रमज़ान का फ़र्ज़ रोज़ा रखूगा।

और अगर तबर्रुक व तलबे तौफीक के लिए नियत के अल्फ़ाज में इन्शाअल्लाह तआला भी मिला लिया तो हरज नहीं और अगर पक्का इरादा न हो मुज़बज़ब हो यानी कभी हाँ कभी न हो तो नियत ही कहाँ हुई।

(जौहरा)



 

मसअला : दिन में नियत करे तो यह ज़रूर है कि यह नियत करे कि मैं सुबहे सादिक़ से रोज़ादार हूँ और अगर नियत है कि अब से रोज़ादार हूँ सुबह से नहीं तो रोज़ा न हुआ। (जौहरा, रडुल मुहतार) मसअला : अगर्चे उन तीन किस्म के रोजे की नियत दिन में भी हो सकती है मगर रात में नियत कर लेना मुसतहब है।

(जौहरा)

मसअला : यूँ नियत की कि कल कहीं दावत हुई तो रोज़ा नहीं और न हुई तो रोज़ा है यह नियत सही नहीं बहरहाल वह रोज़ादार नहीं।

(आलमगीरी)

गया और ज़हवा कुबरा के बाद होश आया तो यह रोज़ा न हुआ और आफ़ताब डूबने के बाद नियत की थी तो हो गया।(दुरे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार) मसअला : ज़हवए कुबरा नियते वक़्त नहीं बल्कि इससे पेशतर (पहले) नियत हो जाना ज़रूरी है और अगर ख़ास वक़्त यानी जिस वक़्त आफ़ताब ख़त्ते निस्फुन्नहारे शरई पर पहुँच गया नियत की तो रोज़ा न हुआ।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : नियत के बारे में नफ़्ल आम है सुन्नत व मुसतहब व मकरूह सब को शामिल है कि इन सब के लिए नियत का वही वक़्त है।

(रद्दुल मुहतार)

 



 

मसअला : जिस तरह और जगह बताया गया कि नियत दिल के. इरादे का नाम है ज़बान से कहना शर्त नहीं यहाँ भी वही मुराद है मगर ज़बान से कह लेना मुसतहब है अगर रात में नियत करे तो यूँ कहे :-

तर्जमा : मैंने नियत की कि अल्लाह तआला के लिए इस रमज़ान का फर्ज़ रोज़ा कल रखूगा।

और दिन में नियत करे तो यह कहे :-

तर्जमा : मैंने नियत की कि अल्लाह के लिए आज रमज़ान का फ़र्ज़ रोज़ा रखूगा।

और अगर तबर्रुक व तलबे तौफीक के लिए नियत के अल्फ़ाज में इन्शाअल्लाह तआला भी मिला लिया तो हरज नहीं और अगर पक्का इरादा न हो मुज़बज़ब हो यानी कभी हाँ कभी न हो तो नियत ही कहाँ हुई।

(जौहरा)

मसअला : दिन में नियत करे तो यह ज़रूर है कि यह नियत करे कि मैं सुबहे सादिक़ से रोज़ादार हूँ और अगर नियत है कि अब से रोज़ादार हूँ सुबह से नहीं तो रोज़ा न हुआ। (जौहरा, रडुल मुहतार) मसअला : अगर्चे उन तीन किस्म के रोजे की नियत दिन में भी हो सकती है मगर रात में नियत कर लेना मुसतहब है।

(जौहरा)

मसअला : यूँ नियत की कि कल कहीं दावत हुई तो रोज़ा नहीं और न हुई तो रोज़ा है यह नियत सही नहीं बहरहाल वह रोज़ादार नहीं।

(आलमगीरी)

मसअला : रमज़ान के दिन में न रोजे की नियत है न यह कि रोज़ा नहीं अगर्चे मालूम है कि यह महीना रमज़ान का है तो रोज़ा न हुआ।

(आलमगीरी)

मसअला : रात में नियत की और फिर उसके बाद रात ही में खाया पिया तो नियत जाती न रही वही पहली काफी है फिर से नियत करना जरूरी नहीं।

(जौहरा)

मसअला : हैज़ व निफास वाली थी उसने रात में कल रोजा रखने की नियत की और सुबहे सादिक से पहले हैज व निफ़ास से पाक हो गई तो रोज़ा सही हो गया।

(जौहरा)

मसअला : दिन में वह नियत काम की है कि सुबहे सादिक़ से नियत करते वक़्त तक रोज़े के ख़िलाफ़ कोई अम्र (काम) न पाया गया हो। लिहाज़ा अगर सुबहे सादिक़ के बाद भूलकर भी खा पी लिया हो या जिमा (हमबिस्तरी) कर लिया तो अब नियत नहीं हो सकती। (जौहरा) मगर मोतमद यह है कि भूलने की हालत में अब भी नियत सही है।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : जिस तरह नमाज़ में कलाम की नियत की मगर बात न की तो नमाज़ फ़ासिद न होगी यूंही रोज़ा में तोड़ने की नियत से रोजा नहीं टूटेगा जब तक तोड़ने वाली चीज़ न करे।

(जौहरा)



 

मसअला : अगर रात में रोजे की नियत की फिर पक्का इरादा कर लिया कि नहीं रखेगा तो वह नियत जाती रही अगर नई नियत न की और दिन भर भूका प्यासा रहा और जिमा (हमबिस्तरी) से बचा तो रोज़ा न हुआ।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : सहरी खाना भी नियत है ख़्वाह रमज़ान के रोज़े के लिए हो या किसी और रोजे के लिए मगर जब सहरी खाते वक़्त यह इरादा है कि सुबह को रोज़ा न होगा तो सहरी खाना नियत नहीं।

(जौहरा, रद्दुल मुहतार)

मसअला : रमज़ान के हर रोजे के लिए नई नियत की ज़रूरत है पहली या किसी तारीख में पूरे रमज़ान के रोजे की नियत कर ली तो यह नियत सिर्फ उसी एक दिन के हक में है बाकी दिनों के लिए नहीं। (जौहरा) मसअला : यह तीनों यानी रमज़ान के अदा और नफ़्ल व नज़रे मुअय्यन मुतलकन रोजे की नियत से हो जाते हैं ख़ास इन्हीं की नियत जरूरी नहीं। यूँही नफ्ल की नियत से भी अदा हो जाते हैं बल्कि गैरे मरीज़ व गैरे मुसाफ़िर ने रमजान में किसी और वाजिब की नियत की जब भी उसी रमज़ान का होगा।

(दुर्रे मुख़्तार वगैरा)

🎁 मुसाफ़िर की नमाज़ | Mushafir ki namaz

मसअला : मुसाफिर और मरीज़ अगर रमजान शरीफ में नफ्ल या किसी दूसरे वाजिब की नियत करे तो जिसकी नियत करेंगे वही होगा रमज़ान का नहीं (तनवीरुल अबसार) और मुतलक रोजे की नियत करे तो रमज़ान का होगा।

(आलमगीरी)

मसअला : नज़रे मुअय्यन यानी फला दिन रोजा रखूगा इसमें अगर उस दिन किसी और वाजिब की नियत से रोज़ा रखा तो जिस की नियत से रोज़ा रखा वह हुआ, मन्नत की क़ज़ा दे।

(आलमगीरी)

मसअला : रमजान के महीने में कोई रोज़ा रखा और उसे यह मालूम न था कि यह माहे रमज़ान है जब भी रमज़ान ही का रोज़ा हुआ।

(दुर्रे मुख्तार)

मसअला : कोई मुसलमान दारुलहरब में कैद था और हर साल यह सोचकर कि रमज़ान का महीना आ गया रमज़ान के रोज़े रखे बाद को मालूम हुआ कि किसी साल भी रमज़ान में न हुए बल्कि हर साल रमज़ान से पेशतर (पहले) हुए तो पहले साल का तो हुआ ही नहीं कि रमज़ान से पेशतर रमज़ान का रोज़ा हो नहीं सकता और दूसरे तीसरे साल की निसबत यह है कि अगर मुतलक रमज़ान की नियत की थी तो हर साल के रोजे गुज़रे हुए नाल के रोज़ों की क़ज़ा हैं और अगर हर साल के रमज़ान की नियत से रखे तो किसी साल के न हुए।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : अगर सूरते मजकूरा में (यानी ऊपर जो सूरत ज़िक्र हुई उसमें) तहरी की यानी सोचा और दिल में यह बात जमी कि यह रमज़ान का महीना है और रोज़ा रखा मगर हकीकत में रोजे शव्वाल के महीने में हुए तो अगर रात से नियत की तो हो गये क्यूंकि क़ज़ा में कज़ा की नियत शर्त नहीं बल्कि अदा की नियत से भी क़ज़ा हो जाती है फिर अगर रमज़ान व शव्वाल दोनों तीस-तीस दिन या उन्तीस-उन्तीस दिन के हैं तो एक रोजा और रखे कि ईद का रोज़ा मना है और अगर रमज़ान तीस का था और शव्वाल उन्तीस का तो दो और रखे और रमज़ान उन्तीस का था और यह तीस का तो पूरे हो गये और अगर वह महीना ज़िलहिज्जा का था तो अगर दोनों तीस तीस या उन्तीस के हैं तो चार रोजे और रखे और रमज़ान तीस का था यह उन्तीस का तो पाँच और बिलअक्स (यानी इसका उल्टा हुआ) तो तीन रखे ग़रज़ मना किये हुए रोजे निकालकर तादाद पूरी करनी होगी जितने रमज़ान के दिन थे।

(आलमगीरी)



 

मसअला : अदाए रमज़ान और नज़रे मुअय्यन और नफ़्ल के अलावा बाकी रोजे मसलन कज़ाए रमज़ान, नज़रे गैरे मुअय्यन और नफ़्ल की कज़ा (यानी नफ़्ली रोज़ा रखकर तोड़ दिया था उसकी कजा) नज़रे मुअय्यन की कज़ा और कफ्फारे का रोजा और हरम में शिकार करने की वजह से जो रोज़ा वाजिब हुआ वह और हज में वक्त से पहले सर मुन्डाने का रोज़ा और तमत्तो का रोजा इन सब में बिल्कुल सुबहे सादिक चमकते वक़्त या रात में नियत करना ज़रूरी है और यह भी जरूरी है कि जो रोज़ा रखना है ख़ास उस मुअय्यन की नियत करे और इन रोजों की नियत अगर दिन में की तो नफ़्ल हुए फिर भी उनका पूरा करना ज़रूरी है तोड़ेगा तो कजा वाजिब होगी अगर्चे यह उसके इल्म में हो कि जो रोज़ा रखना चाहता है वह नहीं होगा बल्कि नफ़्ल होगा।

(दुर्रे मुख्तार वगैरा)

मसअला : यह गुमान करके कि उसके जिम्मे रोजे की कज़ा है रोज़ा रखा अब मालूम हुआ कि गुमान ग़लत था तो अगर फौरन तोड़ दे तो तोड़ सकता है अगर्चे बेहतर यह है कि पूरा कर ले और अगर फ़ौरन न तोड़ा तो अब नहीं तोड़ सकता, तोड़ेगा तो क़ज़ा वाजिब है। (रद्दुल मुहतार) मसअला : रात में कज़ा रोजे की नियत की सुबह को उसे नफ़्ल करना चाहता तो नहीं कर सकता।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : नमाज़ पढ़ते में रोजे की नियत की तो यह नियत सही है

(दुर्रे मुख़्तार)

🎁 Namaz Ka Tarika

मसअला : कई रोजे कज़ा हो गए तो नियत में यह होना चाहिए कि इस रमजान के पहले रोजे की कज़ा दूसरे की क़ज़ा और अगर कुछ इस साल के क़ज़ा हो गए कुछ पिछले साल के बाकी हैं तो यह नियत होनी चाहिए कि इस रमज़ान की और उस रमज़ान की क़ज़ा और अगर दिन और साल को मुअय्यन न किया जब भी हो जायेंगे।

(आलमगीरी)

मसअला : रमज़ान का रोज़ा जानबूझ कर तोड़ा था तो उस पर उस रोजे की कज़ा है और साठ रोज़े कफ्फ़ारे के अब उसने इक्सठ रोजे रख लिए कजा का दिन मुअय्यन न किया तो हो गया। (आलमगीरी) मसअला : यौमे शक (शक के दिन) यानी शाबान की तीसवीं तारीख को नफ्ले खालिस की नियत से रोज़ा रख सकते हैं और नफ्ल के सिवा कोई और रोजा रखा तो मकरूह है ख़्वाह मुतलक रोज़े की नियत हो या फर्ज की या वाजिब की ख़्वाह नियत मुअय्यन की की हो या तरद्दुद (यानी शक वाली हालत) के साथ यह सब सूरतें मकरूह हैं फिर अगर ‘रमज़ान की नियत है तो मकरूहे तहरीमी है वरना मुकीम के लिए तन्जीही और मुसाफ़िर ने अगर किसी वाजिब की नियत की तो कराहत नहीं फिर अगर उस दिन का रमजान होना साबित हो जाए तो मुकीम के लिए बहरहाल रमज़ान का रोज़ा है और अगर यह जाहिर हुआ कि वह शाबान का दिन था और नियत किसी वाजिब की की थी तो जिस वाजिब की नियत थी वह हुआ और अगर कुछ हाल न खुला तो वाजिब की नियत बेकार गई और मुसाफ़िर ने जिसकी नियत की बहरहाल वही हुआ।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : अगर तीसवीं तारीख ऐसे दिन हई कि उस दिन रोजा रखने का आदी था तो उसे रोज़ा रखना अफ़ज़ल है मसलन कोई शख्स पीर या जुमरात का रोज़ा रखा करता है और तीसवीं उसी दिन पडी तो रखना अफ़ज़ल है। यूँही अगर चन्द रोज़ पहले से रख रहा था तो अब शक वाले दिन में कराहत नहीं, कराहत उसी सूरत में है कि रमजान से एक या दो दिन पहले रोज़ा रखा जाए यानी सिर्फ तीस शाबान को या उन्तीस और तीस को।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : अगर न तो उस दिन रोज़ा रखने का आदी था न कई रोज़ पहले से रोजे रखे तो अब ख़ास लोग रोज़ा रखें और अवाम न रखें बल्कि अवाम के लिए यह हुक्म है कि जहवए कुबरा तक रोजे की तरह रहें अगर उस वक़्त तक चाँद का सुबूत हो जाए तो रमज़ान के रोजे की नियत कर लें वरना खा पी लें। ख़वास से मुराद यहाँ उलमा ही नहीं बल्कि जो शख्स यह जानता हो कि शक वाले दिन में इस तरह रोजा रखा जाता है वह ख़वास में है वरना अवाम में।

(दुर्रे मुख़्तार)

 



 

मसअला : शक वाले दिन के रोजे में यह पक्का इरादा कर ले कि यह रोज़ा नफ्ल है तरङ्कुद (यानी शक वाली हालत) न रहे, यूँ न हो कि अगर रमज़ान है तो यह रोज़ा रमज़ान का वरना नफ़्ल का या यूँ कि अगर आज रमज़ान का दिन है तो यह रोज़ा रमज़ान का है वरना किसी और वाजिब का कि यह दोनों सूरतें मकरूह हैं फिर अगर उस दिन का रमज़ान होना साबित हो जाए तो फर्जे रमज़ान अदा होगा वरना दोनो सूरतों में नफ़्ल है और गुनाहगार बहरहाल हुआ और यूँ भी नियत न करे कि यह दिन रमज़ान का है तो रोज़ा है वरना रोज़ा नहीं कि इस सूरत में तो न नियत ही हुई न रोज़ा हुआ और अगर नफ़्ल का पूरा इरादा है मगर कभी दिल में यह ख्याल गुज़र जाता है कि शायद आज रमज़ान का दिन हो तो इसमें हरज नहीं।

(आलमगीरी)

मसअला : अवाम को जो यह हुक्म दिया गया कि जहवए कुबरा तक इन्तिज़ार करें जिसने इस पर अमल किया मगर भूल कर खा लिया फिर उस दिन का रमज़ान होना ज़ाहिर हुआ तो रोजे की नियत कर ले हो जाएगा कि इन्तिज़ार करने वाला रोज़ादार के हुक्म में है और भूल कर खाने से रोज़ा नहीं टूटता।

(दुर्रे मुख़्तार)

( 📚 बहारे शरीअत – पाँचवा हिस्सा 104/110 )

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