Bakriyon Ki Zakat

Bakriyon Ki Zakat

बकरियों की ज़कात » Bakriyon Ki Zakat

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चालीस से कम बकरियाँ हों

हदीस : सही बुख़ारी शरीफ़ में अनस रदियल्लाहु तआला अन्हु से मरवी कि सिद्दीके अकबर रदियल्लाहु तआला अन्हु ने जब उन्हें बहरीन भेजा तो फ़राइज़े सदक़ा जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने मुकर्रर फ़रमाए थे लिख कर दिये, उनमें बकरि की निसाब का भी बयान है और यह कि ज़कात में न बूढ़ी बकरि दी जाये न ऐब वाली, न बकरा, हाँ अगर मुसद्दिक़ (सदक़ा वुसूल करने वाला) चाहे तो ले सकता है और ज़कात के ख़ौफ़ से न मुतफ़र्रिक (अलग अलग) को जमा करें न मुजतमा (इकट्ठे) को मुतफ़रिक करें। मसअला : चालीस से कम बकरियाँ हों तो ज़कात वाजिब नहीं और चालीस हों तो एक बकरि और यही हुक्म एक सौ बीस तक है यानी इनमें भी वही एक बकरि है और एक सौ इक्कीस में दो और दो सौ एक में तीन और चार सौ में चार फिर हर सौ पर एक और जो दो निसाबों के दरमियान में है माफ़ है।

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(आम्मए कुतुब)



 

Bakriyon Ki Zakat

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ज़कात में इख्तियार है

मसअला : ज़कात में इख्तियार है कि बकरि दे या बकरा जो कुछ हो यह ज़रूर है कि साल भर से कम का न हो अगर कम का हो तो कीमत के हिसाब से दिया जा सकता है।

(दुर्रे मुख़्तार)

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मसअला : भेड़, दुम्बा बकरि में दाख़िल हैं कि एक से निसाब पूरी न होती हो तो दूसरी को मिलाकर पूरी करें और ज़कात में भी इन को दे सकते हैं मगर साल से कम के न हों।

(दुरै मुख़्तार)



 

मसअला : जानवरों में नसब माँ से होता है तो अगर हिरन और बकरि से बच्चा पैदा हुआ तो बकरियों में शुमार होगा और निसाब में अगर एक की कमी है तो इसे मिला कर पूरी करेंगे। बकरे और हिरनी से है तो नहीं। यूँही नील गाय और बैल से है तो गाय नहीं और नील गाय नर और गाय से है तो गाय है।

(आलमगीरी वगैरा)

जिन जानवरों की ज़कात वाजिब है

मसअला : जिन जानवरों की ज़कात वाजिब है वह कम से कम साल भर के हों अगर सब एक साल से कम के बच्चे हों तो ज़कात वाजिब नहीं और अगर एक भी उनमें साल भर का हो तो सब उसी के ताबे हैं ज़कात वाजिब हो जायेगी यानी मसलन बकरि के चालीस बच्चे साल साल भर से कम के ख़रीदे तो खरीदारी के वक़्त से एक साल पर ज़कात वाजिब नहीं कि उस वक़्त काबिले निसाब न थे बल्कि उस वक़्त से साल लिया जायेगा कि इन में का कोई साल भर का हो गया। यूँही अगर इसके पास ब-कने निसाब बकरियाँ थीं और छह महीने गुजरने के बाद उन के चालीस बच्चे हुए फिर बकरियाँ जाती रहीं बच्चे बाकी रह गयें तो अब साल ख़त्म पर यह बच्चे काबिले निसाब नहीं लिहाज़ा ज़कात वाजिब नहीं।

(जौहरा)



 

मसअला : अगर इसके पास ऊँट, गाय, बकरियाँ सब हैं मगर निसाब से सब कम हैं या बाज़ यानी किसी एक में तो निसाब पूरी करने के लिये मिलायेंगे नहीं और ज़कात वाजिब न होगी।

(दुर्रे मुख़्तार वगैरा)

मसअला : ज़कात में मुतवस्सित दर्जा का जानवर लिया जायेगा चुन कर उम्दा न लें, हाँ उस के पास सब अच्छे ही हों तो वही लें और गाभन और वह जानवर न लें जिसे खाने के लिए फ़रबा किया हो न वह मादा लें जो अपने बच्चे को दूध पिलाती है न वह बकरा लिया जाये जिसके जरीए बच्चा हासिल किया जाता है।

(आलमगीरी, रद्दुल मुहतार)

मसअला : जिस उम्र का जानवर देना वाजिब आया वह उसके पास नहीं और उस से बढ़ कर मौजूद है तो वह दे दे और जो ज़्यादती हो वापस ले मगर सदक़ा वुसूल करने वाले पर ले लेना वाजिब नहीं अगर न ले और उस जानवर को तलब करे जो वाजिब आया या उसकी कीमत तो उसे इसका इख़्तियार है जिस उम्र का जानवर वाजिब हुआ वह नहीं है और उस से कम उम्र का है तो वही दे दे और जो कमी पड़े उसकी कीमत दे दे या वाजिब की कीमत दे दे दोनों तरह कर सकता है।

(आलमगीरी)

मसअला : घोड़े, गधे, खच्चर अगर्चे चराई पर हों इनकी जकात नहीं हाँ अगर तिजारत के लिये हों तो इनकी कीमत लगाकर उसका चालीसवाँ हिस्सा जकात में दें।

(दुर्रे मुख्तार वगैरा)

मसअला : दो निसाबों के दरमियान जो माफ़ है उसकी ज़कात नहीं होती यानी साल खत्म होने के बाद अगर वह अफ्व (माफ़ किया हुआ) हलाक हो जाए तो जकात में कोई कमी न होगी और वाजिब होने के बाद निसाब हलाक हो गई तो उसकी जकात भी साकित हो गई और हलाक पहले अफ़्व की तरफ़ फेरेंगे उससे बचे तो उस के मुत्तसिल (मिले हुए) जो निसाब है उसकी तरफ़, फिर भी बचे तो उसके बाद इसी तरह आगे कयास कर लें (समझ लें) मसलन अस्सी बकरियाँ थीं चालीस मर गयीं तो अब भी एक बकरि वाजिब रही कि चालीस के बाद दूसरा चालीस अफ़्व है और चालीस ऊँट में पन्द्रह मर गये तो बिन्ते मख़ाज़ वाजिब है कि चालीस में चार अफ्व हैं वह निकाले उसके बाद छत्तीस की निसाब है वह भी काफी नहीं लिहाज़ा ग्यारह और निकाले पच्चीस रहे इनमें बिन्ते मख़ाज़ का हुक्म है बस यही देंगे।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार वगैरहुमा)

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मसअला : दो बकरियाँ ज़कात में वाजिब हुईं और एक फ़रबा बकरि दी जो कीमत में दो की बराबर है जकात अदा हो गयी।

(जौहरा)



 

मसअला : साल ख़त्म के बाद मालिके निसाब ने निसाब ख़ुद हलाक कर दी तो ज़कात साकित न होगी मसलन जानवर को चारा पानी न दिया गया कि वह मर गया ज़कात देनी होगी, यूँहीं अगर इसका किसी पर कर्ज था और वह मकरूज (कर्जदार) मालदार है साल ख़त्म के बाद इसने माफ़ कर दिया तो यह हलाक करना है। लिहाज़ा ज़कात. दे और अगर वह नादार था और इसने माफ़ कर दिया तो साकित हो गयी।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : मालिके निसाब ने साले तमाम के बाद यानी साल ख़त्म होने के बाट कर्ज दे दिया या माल उधार दिया या माले तिजारत को माले तिजारत के बदले बेचा और जिसको दिया था उसने इन्कार कर दिया और इसके पास सुबूत नहीं या वह मर गया और तर्का न छोड़ा तो यह हलाक करना नहीं लिहाज़ा ज़कात साकित हो गई, और अगर साले तमाम के बाद माले तिजारत को गैरे माले तिजारत के एवज़ (बदले) बेच डाला यानी उसके बदले में जो चीज़ ली उससे तिजारत मकसूद नहीं मसलन ख़िदमत के लिये गुलाम या पहनने के लिये कपड़े खरीदे या साइमा को साइमा के बदले बेचा और जिस के हाथ बेचा उसने इन्कार कर दिया और इसके पास गवाह नहीं या वह मर गया और तर्का न छोड़ा तो यह हलाक नहीं बल्कि हलाक करना है लिहाज़ा जकात वाजिब है। साले तमाम के बाद माले तिजारत को औरत के महर में दे दिया या औरत ने अपनी निसाब के बदले शौहर से खुला (माल या पैसे के बदले तलाक को खुला कहते हैं) किया तो ज़कात देनी होगी।

(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)

मसअला : उसके पास रुपए अशर्फी थीं जिन पर साल गुज़रा मगर अभी ज़कात नहीं दी उनके बदले तिजारत के लिये कोई चीज़ ख़रीदी और चीज़ हलाक हो गयी तो ज़कात साकित हो गयी मगर जबकि इतनी गिरौं ख़रीदी कि उतने नुकसान के साथ लोग न ख़रीदते हों तो मसअला उसकी असली कीमत पर जो कुछ ज़्यादा दिया है उसकी ज़कात साकित न होगी कि वह हलाक करना है और अगर तिजारत के लिए न हो मसलन ख़िदमत के लिये गुलाम ख़रीदा वह मर गया तो उस रुपये की जकात साकित न होगी।

(रद्दुल मुहतार)

मसअला : बादशाहे इस्लाम ने अगर्चे ज़ालिम या बागी हो साइमा की ज़कात ले ली या उश्र वुसूल कर लिया और उन्हें महल (जाइज़ मसरफ़) पर सर्फ किया तो इआदा (लौटाने) की हाजत नहीं यानी फिर से ज़कात देने की ज़रूरत नहीं और महल पर सर्फ न किया तो अदा किया जाए और खिराज ले लिया तो मुतलकन इआदा की हाजत नहीं।

(दुर्रे मुख़्तार)



 

मसअला : मुसद्दिक (ज़कात वुसूल करने वाले) के सामने साइमा बेच डाला तो मुसद्दिक को इख्तियार है चाहे ब-कटे जकात उसमें से कीमत ले ले और इस सूरत में बय (सौदा) तमाम हो गई और चाहे जो जानवर वाजिब हुआ वह ले ले और इस वक़्त जो लिया उसके हक़ में बय बातिल हो गयी और अगर मुसद्दिक़ वहाँ मौजूद न था बल्कि उस वक़्त आया कि मजलिसे अक्द (जहाँ सौदा हो रहा था उस महफ़िल) से वह दोनों जुदा हो गये तो अब जानवर नहीं ले सकता जो जानवर वाजिब हो उसकी कीमत ले ले।

(आलमगीरी)

मसअला : जिस ग़ल्ले पर उश्र वाजिब हुआ उसे बेच डाला तो मुसद्दिक को इख़्तियार है चाहे बेचने वाले से उसकी कीमत ले या ख़रीदार से उतना गल्ला वापस ले बय उसके सामने हुई हो या दोनों के जुदा होने के बाद मुसद्दिक़ आया।

(आलमगीरी)

बकरियों की ज़कात

मसअला : अस्सी बकरियाँ हैं तो एक बकरि ज़कात की है यह नहीं किया जा सकता कि चालीस-चालीस के दो गिरोह कर के दो ज़कात में लें और अगर दो शख्सों की चालीस बकरियाँ हैं तो यह नहीं कर सकते कि उन्हें जमा कर के एक गिरोह कर दें कि एक ही बकरि ज़कात में देनी पड़े बल्कि हर एक से एक-एक ली जायेगी। यूँही अगर एक की उन्तालीस हैं और एक की चालीस तो उन्तालीस वाले से कुछ न लेंगे। ग़रज़ न मुजतमा को मुतफ़र्रिक करेंगे न मुतफ़र्रिक को मुजतमा यानी न मिलायेंगे न अलग करेंगे।

(आलमगीरी वगैरा)

मसअला : मवेशी (जानवर) में शिरकत से ज़कात पर कुछ असर नहीं पड़ता ख़्वाह वह किसी किस्म की हो अगर हर एक का हिस्सा ब-कने निसाब है तो दोनों पर पूरी-पूरी ज़कात वाजिब और एक का हिस्सा ब-कट्टे निसाब है दूसरे का नहीं तो उस पर वाजिब है इस पर नहीं मसलन एक की चालीस बकरियाँ हैं दूसरे की तीस तो चालीस वाले पर एक बकरि, तीस वाले पर कुछ नहीं और अगर किसी की ब-कद्रे निसाब न हों मगर मजमूआ ब-डे निसाब है तो किसी पर कुछ नहीं।

(आलमगीरी वगैरा)

मसअला : अस्सी बकरियों में इक्यासी शरीक हैं यूँ कि एक शख्स हर बकरि में निस्फ़ का मालिक है और हर बकरि के दूसरे निस्फ़ का उनमें से एक-एक शख़्स मालिक है तो उसके सब हिस्सों का मजमूआ चालीस के बराबर हुआ और यह सब सिर्फ आधी-आधी बकरि के हिस्सेदार हुए मगर ज़कात किसी पर नहीं।

(दुर्रे मुख़्तार)

मसअला : शिरकत की मवेशी में ज़कात दी गई तो हर एक पर उसके हिस्से की कद्र है जो कुछ हिस्से से जायद गया वह शरीक से वापस ले मसलन एक की इक्तालीस बकरियाँ हैं दूसरे की बयासी कुल एक सौ तैंतीस हुई और दो ज़कात में ली गयीं यानी हर एक से एक मगर चूँकि एक शख्स एक तिहाई का शरीक है और दूसरा दो का, लिहाज़ा बकरि में दो तिहाई वाले की दो तिहाईयाँ गई जिन का मजमूआ एक तिहाई और एक बकरि है और एक तिहाई वाले की हर बकरि में एक ही तिहाई गई कि मजमूआ दो तिहाईयाँ हुई और इस पर वाजिब एक बकरि है लिहाज़ा दो तिहाईयों वाला एक तिहाई वाले से तिहाई लेने का मुस्तहक़ (हक़दार) है और अगर कुल अस्सी बकरियाँ हैं एक दो तिहाई का शरीक है दूसरा एक तिहाई का और ज़कात में एक बकरि ली गयी तो तिहाई का हिस्सेदार अपने शरीक से तिहाई बकरि की कीमत ले कि इस पर ज़कात वाजिब नहीं।

(रद्दुल मुहतार)

( 📚 बहारे शरीअत – पाँचवा हिस्सा 34/38 )

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