32 Surah Al Sajda

32 Surah Al Sajda

32 सूरए सज्दा – 32 Surah Al Sajda

 सूरए सज्दा मक्के में उतरी सिवाय तीन आयतों के जो “अफ़मन काना मूमिनन” से शुरू होती हैं. इस सूरत में तीस आयतें, तीन रूकू, तीन सौ अस्सी कलिमे और एक हज़ार पाँच सौ अठ्ठारह अक्षर हैं.

34 सूरए सबा – पहला रूकू

32  सूरए सज्दा – पहला रूकू

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
الم تَنزِيلُ الْكِتَابِ لَا رَيْبَ فِيهِ مِن رَّبِّ الْعَالَمِينَ
أَمْ يَقُولُونَ افْتَرَاهُ ۚ بَلْ هُوَ الْحَقُّ مِن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوْمًا مَّا أَتَاهُم مِّن نَّذِيرٍ مِّن قَبْلِكَ لَعَلَّهُمْ يَهْتَدُونَ
اللَّهُ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوَىٰ عَلَى الْعَرْشِ ۖ مَا لَكُم مِّن دُونِهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا شَفِيعٍ ۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ
يُدَبِّرُ الْأَمْرَ مِنَ السَّمَاءِ إِلَى الْأَرْضِ ثُمَّ يَعْرُجُ إِلَيْهِ فِي يَوْمٍ كَانَ مِقْدَارُهُ أَلْفَ سَنَةٍ مِّمَّا تَعُدُّونَ
ذَٰلِكَ عَالِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ الْعَزِيزُ الرَّحِيمُ
الَّذِي أَحْسَنَ كُلَّ شَيْءٍ خَلَقَهُ ۖ وَبَدَأَ خَلْقَ الْإِنسَانِ مِن طِينٍ
ثُمَّ جَعَلَ نَسْلَهُ مِن سُلَالَةٍ مِّن مَّاءٍ مَّهِينٍ
ثُمَّ سَوَّاهُ وَنَفَخَ فِيهِ مِن رُّوحِهِ ۖ وَجَعَلَ لَكُمُ السَّمْعَ وَالْأَبْصَارَ وَالْأَفْئِدَةَ ۚ قَلِيلًا مَّا تَشْكُرُونَ
وَقَالُوا أَإِذَا ضَلَلْنَا فِي الْأَرْضِ أَإِنَّا لَفِي خَلْقٍ جَدِيدٍ ۚ بَلْ هُم بِلِقَاءِ رَبِّهِمْ كَافِرُونَ
۞ قُلْ يَتَوَفَّاكُم مَّلَكُ الْمَوْتِ الَّذِي وُكِّلَ بِكُمْ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُمْ تُرْجَعُونَ

सूरए सज्दा मक्का में उतरी, इसमें तीस आयतें, तीन रूकू हैं,
– पहला रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए सज्दा मक्के में उतरी सिवाय तीन आयतों के जो “अफ़मन काना मूमिनन” से शुरू होती हैं. इस सूरत में तीस आयतें, तीन रूकू, तीन सौ अस्सी कलिमे और एक हज़ार पाँच सौ अठ्ठारह अक्षर हैं.

अलिफ़ लाम मीम {1} किताब का उतारना(2)
(2) यानी क़ुरआने करीम का चमत्कार करके, इस तरह कि इस जैसी एक सूरत या छोटी सी इबारत बनाने से तमाम ज़बान वाले और सारे विद्धान आजिज़ हो गए.

बेशक परवर्दिगारे आलम की तरफ़ से है {2} क्या कहते हैं (3)
(3) मुश्रिक लोग कि यह पवित्र ग्रन्थ.

उनकी बनाई हुई है (4)
(4) यानी नबियों के सरदार मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म की.

बल्कि वही हक़ (सच) है तुम्हारे रब की तरफ़ से कि तुम डराओ ऐसे लोगो को जिन के पास तुमसे पहले कोई डर सुनाने वाला न आया (5)
(5) ऐसे लोगों से मुराद उस ज़माने के लोग हैं जो ज़माना हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बाद से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के तशरीफ़ लाने तक था कि इस ज़माने में अल्लाह तआला की तरफ़ से कोई रसूल नहीं आया.

इस उम्मीद पर कि वो राह पाएं {3} अल्लाह है जिसने आसमान और ज़मीन और जो कुछ उनके बीच में है छ दिन में बनाए फिर अर्श पर इस्तिवा फ़रमाया(6)
(6) जैसा इस्तिवा कि उसकी शान के लायक़ है.

उससे छूट कर तुम्हारा कोई हिमायती और न सिफ़ारशी (7)
(7) यानी ऐ काफ़िरों के समूह, जब तुम अल्लाह तआला की रज़ा की राह इख़्तियार न करो और ईमान न लाओ तो न तुम्हें कोई मददगार मिलेगा जो तुम्हारी मदद कर सके, न कोई सिफ़ारशी जो तुम्हारी सिफ़ारिश करे.

तो क्या तुम ध्यान नहीं करते {4} काम की तदबीर (युक्ति) फ़रमाता है आसमान से ज़मीन तक(8)
(8) यानी दुनिया के क़यामत तक होने वाले कामों की, अपने हुक्म और मर्ज़ी और अपने इरादे और हिसाब से.

फिर उसी की तरफ़ रूजू करेगा(9)
(9) अम्र और तदबीर दुनिया की फ़ना के बाद.

उस दिन की जिसकी मिक़दार हज़ार बरस है तुम्हारी गिनती में(10){5}
(10) यानी दुनिया के दिनों के हिसाब से और वह दिन क़यामत का दिन है. क़यामत के दिन की लम्बाई कुछ काफ़िरों के लिये हज़ार बरस के बराबर होगी और कुछ के लिये पचास हज़ार बरस के बराबर, जैसे कि सूरए मआरिज में है “तअरूजुल मलाइकतु वर्रूहो इलैहे फ़ी यौमिन काना मिक़दारूहू ख़मसीना अल्फ़ा सनतिन” (फ़रिश्ते और जिब्रील उसकी बारगाह की तरफ़ उरूज करते हैं वह अज़ाब उस दिन होगा जिसकी मिक़दार पचास हज़ार बरस है – सूरए मअरिज, आयत 4). और मूमिन के लिये यह दिन एक फ़र्ज़ नमाज़ के वक़्त से भी हलका होगा जो दुनिया में पढ़ता था जैसे कि हदीस शरीफ़ में आया.

यह (11)
(11) तदबीर करने वाला ख़ालिक़ जल्ल-जलालुहू.

है हर छुपी और ज़ाहिर बात का जानने वाला, इज़्ज़त व रहमत वाला {6} वह जिसने जो चीज़ बनाई ख़ूब बनाई(12)
(12) अपनी हिकमत के तक़ाज़े के हिसाब से बनाई.. हर जानदार को वह सूरत दी जो उसके लिये बेहतर है और उसको ऐसे अंग अता फ़रमाए जो उसकी रोज़ी के लिये मुनासिब हों.

और इन्सान की पैदाइश की शुरूआत मिट्टी से फ़रमाई (13){7}
(13) हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को उससे बनाकर.

फिर उसकी नस्ल रखी एक बे क़द्र पानी के ख़ुलासे से (14) {8}
(14) यानी नुत्फ़े से.

फिर उसे ठीक किया और उसमें अपनी तरफ़ की रूह फूंकी (15)
(15)और उसको बेहिस बेजान होने के बाद हिस वाला और जानदार किया.

और तुम्हें कान और आँखे और दिल अता फ़रमाए(16)
(16) ताकि तुम सुनो और देखो और समझो.

क्या ही थोड़ा हक़ मानते हो {9} और बोले (17)
(17) दोबारा उठाए जाने का इन्कार करने वाले.

क्या जब हम मिट्टी में मिल जाएंगे  (18)
(18) और मिट्टी हो जाएंगे और हमारे अंग मिट्टी से छिके न रहेंगे.

क्या फिर नए बनेंगे? बल्कि वो अपने रब के समक्ष हाज़िरी से इन्कारी हैं(19) {10}
(19) यानी मौत के बाद उठने और ज़िन्दा किये जाने का इन्कार करके वो इस इन्तिहा तक पहुंचे हैं कि आक़िबत के तमाम उमूर के इन्कारी हैं यहाँ तक कि अल्लाह के समक्ष हाज़िर होने के भी.

तुम फ़रमाओ तुम्हें वफ़ात (मौत) देता है मौत का फ़रिश्ता जो तुम पर मुक़र्रर है(20)
(20) उस फ़रिश्ते का नाम इज्राईल है, अलैहिस्सलाम. और वह अल्लाह की तरफ़ से रूहें निकालने पर मुक़र्रर हैं. अपने काम में कुछ ग़फ़लत नहीं करते, जिस का वक़्त आ जाता है, उसकी रूह निकाल लेते हैं. रिवायत है कि मौत के फ़रिश्ते के लिये दुनिया हथैली की तरह कर दी गई है. तो वह पूर्व और पश्चिम की मख़लूक की रूहें बिना मशक़्क़त उठा लेते हैं और रहमत व अज़ाब के बहुत से फ़रिश्ते उनके मातहत हैं.

फिर अपने रब की तरफ़ वापस जाओगे(21){11}
(21) और हिसाब व जज़ा के लिये ज़िन्दा करके उठाए जाओगे.

32  सूरए सज्दा – दूसरा रूकू

32  सूरए सज्दा – दूसरा रूकू

وَلَوْ تَرَىٰ إِذِ الْمُجْرِمُونَ نَاكِسُو رُءُوسِهِمْ عِندَ رَبِّهِمْ رَبَّنَا أَبْصَرْنَا وَسَمِعْنَا فَارْجِعْنَا نَعْمَلْ صَالِحًا إِنَّا مُوقِنُونَ
وَلَوْ شِئْنَا لَآتَيْنَا كُلَّ نَفْسٍ هُدَاهَا وَلَٰكِنْ حَقَّ الْقَوْلُ مِنِّي لَأَمْلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ
فَذُوقُوا بِمَا نَسِيتُمْ لِقَاءَ يَوْمِكُمْ هَٰذَا إِنَّا نَسِينَاكُمْ ۖ وَذُوقُوا عَذَابَ الْخُلْدِ بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ
إِنَّمَا يُؤْمِنُ بِآيَاتِنَا الَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُوا بِهَا خَرُّوا سُجَّدًا وَسَبَّحُوا بِحَمْدِ رَبِّهِمْ وَهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُونَ ۩
تَتَجَافَىٰ جُنُوبُهُمْ عَنِ الْمَضَاجِعِ يَدْعُونَ رَبَّهُمْ خَوْفًا وَطَمَعًا وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ
فَلَا تَعْلَمُ نَفْسٌ مَّا أُخْفِيَ لَهُم مِّن قُرَّةِ أَعْيُنٍ جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ
أَفَمَن كَانَ مُؤْمِنًا كَمَن كَانَ فَاسِقًا ۚ لَّا يَسْتَوُونَ
أَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فَلَهُمْ جَنَّاتُ الْمَأْوَىٰ نُزُلًا بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ
وَأَمَّا الَّذِينَ فَسَقُوا فَمَأْوَاهُمُ النَّارُ ۖ كُلَّمَا أَرَادُوا أَن يَخْرُجُوا مِنْهَا أُعِيدُوا فِيهَا وَقِيلَ لَهُمْ ذُوقُوا عَذَابَ النَّارِ الَّذِي كُنتُم بِهِ تُكَذِّبُونَ
وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنَ الْعَذَابِ الْأَدْنَىٰ دُونَ الْعَذَابِ الْأَكْبَرِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ
وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِآيَاتِ رَبِّهِ ثُمَّ أَعْرَضَ عَنْهَا ۚ إِنَّا مِنَ الْمُجْرِمِينَ مُنتَقِمُونَ

और कहीं तुम देखो जब मुजरिम(1)
(1) यानी काफ़िर और मुश्रिक लोग.

अपने रब के पास सर नीचे डाले होंगे(2)
(2) अपने कर्मों और व्यवहार से शर्मिन्दा और लज्जित होकर, और अर्ज़ करते होंगे.

ऐ हमारे रब अब हमने देखा(3)
(3) मरने के बाद उठने को, और तेरे वादे की सच्चाई को, जिनके हम दुनिया में इन्कारी थे.

और सुना (4)
(4) तुझ से तेरे रसूलों की सच्चाई को, तो अब दुनिया में.

हमें फिर भेज कि नेक काम करें हमको यक़ीन आ गया (5){12}
(5) और अब हम ईमान ले आए, लेकिन उस वक़्त का ईमान लाना उन्हें कुछ काम न देगा.

और अगर हम चाहते हर जान को उसकी हिदायत फ़रमाते(6)
(6) और उस पर ऐसी मेहरबानी करते कि अगर वह उसके इख़्तियार करता तो राह पा जाता. लेकिन हमने ऐसा न किया क्योंकि हम काफ़िरों को जानते थे कि वो कुफ़्र ही इख़्तियार करेंगे.

मगर मेरी बात क़रार पा चुकी कि ज़रूर जहन्नम को भरदूंगा उन जिन्नों और आदमियों सब से(7){13}
(7) जिन्होंने कुफ़्र इख़्तियार किया, और जब वो जहन्नम में दाख़िल होंगे तो जहन्नम के ख़ाज़िन उनसे कहेंगे.

अब चखो बदला उसका कि तुम अपने इस दिन की हाज़िरी भूले थे(8)
(8) और दुनिया में ईमान लाए थे.

हमने तुम्हें छोड़ दिया (9)
(9) अज़ाब में, अब तुम्हारी तरफ़ इल्तिफ़ात न होगा.

अब हमेशा का अज़ाब चखो अपने किये का बदला {14} हमारी आयतों पर वही ईमान लाते हैं कि जब वो उन्हें याद दिलाई जाती हैं सज्दे में गिर जाते हैं(10)
(10)  विनम्रता और आजिज़ी से और इस्लाम की नेअमत पर शुक्रगुज़ारी के लिये.

और अपने रब की तारीफ़ करते हुए उसकी पाकी बोलते हैं और घमण्ड नहीं करते {15} उनकी करवटें जुदा होती हैं ख़्वाबगाहों से(11)
(11) यानी मीठी नींदों के बिस्तरों से उठते हैं और अपनी राहत और आराम छोड़ते हैं.

और अपने रब को पुकारते हैं डरते और उम्मीद करते(12)
(12) यानी उसके अज़ाब से डरते हैं और उसकी रहमत की उम्मीद करते हैं. यह तहज्जुद अदा करने वालों की हालत का बयान है. हज़रत अनस रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि यह आयत हम अन्सारियों के हक़ में उतरी कि हम मग़रिब पढ़कर अपने घरों को वापस न आते थे जब तक कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ इशा न पढ़ लेते.

और हमारे दिये हुए में से कुछ ख़ैरात करते हैं {16} तो किसी जी को नहीं मालूम जो आँख की ठण्डक उनके लिये छुपा रखी है (13)
(13) जिससे वो राहतें पाएंगे और उनकी आँखे ठण्डी होंगी.

सिला उनके कामों का (14) {17}
(14) यानी उन ताअतों का, जो उन्होंने दुनिया में अदा कीं.

तो क्या जो ईमान वाला है वो उस जैसा हो जाएगा जो बेहुक्म है(15)
(15)यानी काफ़िर है. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो से वलीद बिन अक़बह बिन अबी मुईत किसी बात में झगड़ रहा था. बात चीत के दौरान कहने लगा, ख़ामोश हो जाओ, तुम लड़के हो मैं बूढ़ा हूँ. मैं बहुत लम्बी ज़बान वाला हूँ. मेरे भाले की नौक तुमसे तेज़ है. मैं तुम से ज़्यादा बहादुर हूँ .मैं बड़ा जत्थेदार हूँ. हज़रत अली ने फ़रमाया चुप, तू फ़ासिक़ है. मुराद यह थी कि जिन बातों पर तू गर्व करता है, इन्सान के लिये उनमें से कोई भी प्रशंसनीय नहीं. इन्सान की महानता और इज़्ज़त ईमान और तक़वा में है. जिसे यह दौलत नसीब नहीं वह हद दर्जे का नीच है. काफ़िर मूमिन के बराबर नहीं हो सकता. अल्लाह तआला ने हज़रत अली की तस्दीक़ में यह आयत उतारी.

ये बराबर नहीं {18} जो ईमान लाए और अच्छे काम किये उनके लिये बसने के बाग़ हैं, उनके कामों के सिले में मेहमानदारी (16) {19}
(16) यानी ईमान वाले नेक बन्दों की जन्नते-मावा में अत्यन्त सम्मान व सत्कार के साथ मेहमानदारी की जाएगी.

रहे वो जो बेहुक्म हैं(17)
(17) नाफ़रमान काफ़िर हैं.

उनका ठिकाना आग है, जब कभी उसमें से निकलना चाहेंगे फिर उसी में फेर दिये जाएंगे और उनसे फ़रमाया जाएगा चखो उस आग का अज़ाब जिसे तुम झुटलाते थे {20} और ज़रूर हम उन्हें चखाएंगे कुछ नज़दीक का अज़ाब (18)
(18) दुनिया ही मैं क़त्ल और गिरफ़्तारी और दुष्काल और बीमारियों वग़ैरह में जकड़ के. चुनान्चे ऐसा ही पेश आया कि हुज़ूर की हिजरत से पहले क़ुरैश बीमारियों और मुसीबतों में गिरफ़्तार हुए और हिजरत के बाद बद्र में मारे गए. गिरफ़्तार हुए और सात साल दुष्काल की ऐसी सख़्त मुसीबत में जकड़े रहे कि हड्डियाँ और मु्र्दार कुत्ते तक खा गए.

उस बड़े अज़ाब से पहले (19)
(19) यानी आख़िरत के अज़ाब से.

जिसे देखने वाला उम्मीद करे कि अभी बाज़ आएंगे {21} और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन जिसे उसके रब की आयतों से नसीहत की गई फिर उसने उनसे मुंह फेर लिया (20)
(20) और आयतों में ग़ौर न किया और उनकी व्याख्याओं और इरशाद से फ़ायदा न उठाया और ईमान से लाभान्वित न हुआ.
बेशक हम मुजरिमों से बदला लेने वाले हैं {22}

32  सूरए सज्दा – तीसरा रूकू

32  सूरए सज्दा – तीसरा रूकू

وَلَقَدْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ فَلَا تَكُن فِي مِرْيَةٍ مِّن لِّقَائِهِ ۖ وَجَعَلْنَاهُ هُدًى لِّبَنِي إِسْرَائِيلَ
وَجَعَلْنَا مِنْهُمْ أَئِمَّةً يَهْدُونَ بِأَمْرِنَا لَمَّا صَبَرُوا ۖ وَكَانُوا بِآيَاتِنَا يُوقِنُونَ
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَفْصِلُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فِيمَا كَانُوا فِيهِ يَخْتَلِفُونَ
أَوَلَمْ يَهْدِ لَهُمْ كَمْ أَهْلَكْنَا مِن قَبْلِهِم مِّنَ الْقُرُونِ يَمْشُونَ فِي مَسَاكِنِهِمْ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ ۖ أَفَلَا يَسْمَعُونَ
أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّا نَسُوقُ الْمَاءَ إِلَى الْأَرْضِ الْجُرُزِ فَنُخْرِجُ بِهِ زَرْعًا تَأْكُلُ مِنْهُ أَنْعَامُهُمْ وَأَنفُسُهُمْ ۖ أَفَلَا يُبْصِرُونَ
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا الْفَتْحُ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ
قُلْ يَوْمَ الْفَتْحِ لَا يَنفَعُ الَّذِينَ كَفَرُوا إِيمَانُهُمْ وَلَا هُمْ يُنظَرُونَ
فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ وَانتَظِرْ إِنَّهُم مُّنتَظِرُونَ

और बेशक हमने मूसा को किताब (1)
(1) यानी तौरात.

अता फ़रमाई तो तुम उसके मिलने में शक न करो(2)
(2) यानी हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को किताब के मिलने में या ये मानी हैं कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के मिलने और उनसे मुलाक़ात होने में शक न करो. चुनान्चे मेअराज की रात हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात हुई जैसा कि हदीसों में आया है.

और हमने उसे (3)
(3) यानी हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को, या तौरात को.

बनी इस्राईल के लिये हिदायत किया {23} और हमने उनमें से (4)
(4)  यानी बनी इस्राईल में से.

कुछ इमाम बनाए कि हमारे हुक्म से बताते (5)
(5) लोगों को ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी और उसकी ताअत और अल्लाह तआला के दीन और उसकी शरीअत का अनुकरण, तौरात के आदेशों की पूर्ति. ये इमाम बनी इस्राईल के नबी थे, या नबियों के अनुयायी.

जब कि उन्हों ने सब्र किया(6)
(6) अपने दीन पर और दुश्मनों की तरफ़ से पहुंचने वाली मुसीबतों पर. इससे मालूम हुआ कि सब्र का फल इमामत और पेशवाई है.

और वो हमारी आयतों पर यक़ीन लाते थे {24} बेशक तुम्हारा रब उनमें फ़ैसला कर देगा(7)
(7) यानी नबियों में और उनकी उम्मतों में या मूमिनीन व मुश्रिकीन में.

क़यामत के दिन जिस बात में इख़्तिलाफ़ करते थे(8){25}
(8) दीनी बातों में से, और हक़ व बातिल वालों को अलग अलग कर देगा.

और क्या उन्हें (9)
(9) यानी मक्का वालों को.

इस पर हिदायत न हुई कि हमने उनसे पहले कितनी संगतें (क़ौमें)(10)
(10) कितनी उम्मतें आद व समूद व क़ौम लूत की तरह.

हलाक कर दीं कि आज ये उनके घरों में चल फिर रहे हैं(11)
(11) यानी जब मक्का वाले व्यापार के लिये शाम के सफ़र करते हैं तो उन लोगों की मन्ज़िलों और शहरों में गुज़रते हैं और उनकी हलाकत के निशान देखते हैं.

बेशक इसमें ज़रूर निशानियाँ हैं, तो क्या सुनते नहीं (12) {26}
(12)  जो इब्रत हासिल करें और नसीहत मानें.

और क्या नहीं देखते कि हम पानी भेजते हैं ख़ुश्क ज़मीन की तरफ़(13)
(13)जिसमें सब्ज़े का नामो निशान नहीं.

फिर उससे खेती निकालते हैं कि उसमें से उनके चौपाए और वो ख़ुद खाते हैं(14)
(14) चौपाए भूसा और वो ख़ुद ग़ल्ला.

तो क्या उन्हे सूझता नहीं(15) {27}
(15)कि वो ये देखकर अल्लाह तआला की भरपूर क़ुदरत पर इस्तिदलाल करें और समझें कि जो क़ादिर बरहक़ ख़ुश्क ज़मीन से खेती निकालने पर क़ादिर है, मु्र्दों का ज़िन्दा करना उसकी क़ुदरत से क्या मुश्किल.

और कहते हैं यह फ़ैसला कब होगा अगर तुम सच्चे हो(16) {28}
(16) मुसलमान कहा करते थे कि अल्लाह तआला हमारे और मुश्रिकों के बीच फ़ैसला फ़रमाएगा और फ़रमाँबरदार और नाफ़रमान को उनके कर्मो के अनुसार बदला देगा. इससे उनकी मुराद यह थी कि हम पर रहमत और करम करेगा और काफ़िरों व मुश्रिकों को अज़ाब में जकड़ेगा. इसपर काफ़िर हंसी के तौर पर कहते थे कि यह फ़ैसला कब होगा, इसका वक़्त कब आएगा. अल्लाह तआला अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से इरशाद फ़रमाता है.

तुम फ़रमाओ फै़सले के दिन(17)
(17) जब अल्लाह का अज़ाब उतरेगा.

काफ़िरों को उनका ईमान लाना नफ़ा न देगा और न उन्हें मोहलत मिले (18) {29}
(18) तौबह और माफ़ी की. फ़ैसले के दिन से या क़यामत का दिन मुराद है या मक्के की विजय का दिन या बद्र का दिन. अगर क़यामत का दिन मुराद हो तो ईमान का नफ़ा न देना ज़ाहिर है क्योंकि ईमान वही मक़बूल है जो दुनिया में हो और दुनिया से निकलने के बाद न ईमान मक़बूल होगा न ईमान लाने के लिये दुनिया में वापस आना मिलेगा. और अगर फ़ैसले के दिन से बद्र का दिन या मक्के की विजय का दिन मुराद हो तो मानी ये होंगे कि जब अज़ाब आ जाए और वो लोग क़त्ल होने लगें तो क़त्ल की हालत में उनका ईमान लाना क़ुबूल न किया जाएगा और न अज़ाब में विलम्ब करके उन्हें मोहलत दी जायगी. चुनांन्चे जब मक्कए मुकर्रमा फ़त्ह हुआ तो क़ौमें बनी कनानह भागी. हज़रत ख़ालिद बिन वलीद ने जब उन्हें घेरा और उन्होंने देखा कि अब क़त्ल सर पर आ गया, कोई उम्मीद जान बचने की नहीं है तो उन्होंने इस्लाम का इज़हार किया. हज़रत ख़ालिद ने क़ुबूल न फ़रमाया और उन्हें क़त्ल कर दिया. (जुमल)

तो उनसे मुंह फेर लो और इन्तिज़ार करो (19)
(19) उनपर अज़ाब उतरने का.

बेशक उन्हें भी इन्तिज़ार करना है(20){30}
(20) बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस शरीफ़ में है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम शुक्रवार के दिन फ़ज्र की नमाज़ में यह सूरत यानी सूरए सज्दा और सूरए दहर पढ़ते थे. तिरमिज़ी की हदीस में है कि जब तक हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम यह सूरत और सूरए तबारकल्लज़ी बियदिहिल मुल्क न पढ़ लेते, सोने को न जाते. हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि सूरए सज्दा क़ब्र के अज़ाब से मेहफ़ूज़ रखती है. (ख़ाज़िन व मदारिक वग़ैरह)

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