ALLAH Tala Ki Jaat Aur Uski Sifat Ke Baare Mein Akeede

ALLAH Tala Ki Jaat Aur Uski Sifat Ke Baare Mein Akeede

अल्लाह तआला की जात और उसकी सिफ़तों के बारे में अकीदे

अल्लाह एक है कोई उसका शरीक नहीं न ज़ात में न सिफात में न अफआल (कार्यों) में न अहकाम (आदेशों) में न नामों में।
वह “वाजिबुल वुजूद” है (जिसका हर हाल में मौजूद रहना ज़रूरी हो) उसका अदम मुहाल है यानी किसी ज़माने में उसकी ज़ात मौजूद न हो नामुमकिन है।
अल्लाह “क़दीम” और “अज़ली” है यानी हमेशा से है और “अबदी” भी है यानी वह हमेशा रहेगा उसे कभी मौत न आएगी।
अल्लाह तआला ही इस लाइक़ है कि उसकी बन्दगी और इबादत की जाये।
अक़ीदा :- अल्लाह बेपरवाह है किसी का मुहताज नहीं और सारी दुनिया उसी की मुहताज है।
अक़ीदा :- अल्लाह की ज़ात का इदराक अक्ल के ज़रिये मुहाल है यानी अक्ल से उसकी ज़ात को समझना मुमकिन नहीं क्योंकि जो चीज़ अक्ल के ज़रिये समझ में आती है अक्ल उसको अपने घेरे में ले लेती है और अल्लाह की शान यह है कि कोई चीज़ उसकी ज़ात को घेर नहीं सकती।
अल्बत्ता अल्लाह के कामों के ज़रिये से मुख़तसर तौर पर उसकी सिफ़तों और फिर उन सिफ़तों के ज़रिये अल्लाह तआला की ज़ात पहचानी जाती है।
अक़ीदा :- अल्लाह तआला की सिफ़तें न ऐन हैं न गैर यानी अल्लाह तआला की सिफ़तें उसकी जात नहीं और न वो सिफ़तें किसी तरह उसकी ज़ात से अलग हो सकें क्यूँकि वह सिफ़तें ऐसी हैं जो अल्लाह की जात को चाहती हैं और उसकी ज़ात के लिए ज़रूरी हैं।



इसी सिलसिले में दूसरी बात यह भी ध्यान में रखने की है कि अल्लाह की सिफ़तें कई हैं और अलग अलग हैं और हर सिफ़त का मतलब भी अलग अलग है। मुतरादिफ़ (synonymous) नहीं, इसलिए सिफ़तें ऐने जात नहीं हो सकती और सिफ़तें गैरे जात इसलिये नहीं हैं कि गैरे ज़ात मानने की सूरत में दो बातें हो सकती हैं। या तो ये सिफ़तें क़दीम होंगी या हादिस (जो किसी के पैदा करने से पैदा हुई यानी मखलूक)।
अगर कदीम मानते हैं तो कई एक कदीम को मानना पड़ेगा जबकि क़दीम सिर्फ एक ही है। और अगर हादिस तसलीम करते हैं तो यह मानना भी ज़रूरी होगा कि वह क़दीम ज़ात सिफ़तों के हादिस होने या पैदा होने से पहले बगैर सिफ़तों के थी और यह दोनों बातें बातिल हैं।

इसीलिए इन मुश्किलों से बचने के लिये अहले सुन्नत ने यह मजहब इख़्तियार किया है कि सिफ़ाते बारी (अल्लाह तआला की सिफतें) न तो ऐने जात हैं और न गैरे जात बल्कि सिफ़तें उस जाते मुक़द्दस को लाज़िम हैं किसी हाल में उससे जुदा नहीं और ज़ाते बारी तआला अपनी हर सिफ़त के साथ अजली, अबदी और कदीम है।



अक़ीदा :- जिस तरह अल्लाह तआला की जात कदीम, अज़ली तथा अबदी है उसी तरह उसकी सिफ़तें भी कदीम, अज़ली और अबदी हैं।
अक़ीदा :- अल्लाह की कोई सिफ़त मखलूक नहीं न ज़ेरे कुदरत दाखिल।
अक़ीदा :- अल्लाह की जात और सिफ़ात के अलावा सब चीजें हादिस यानी पहले न थीं अब मौजूद हैं।
अक़ीदा :- जो अल्लाह की सिफ़तों को मखलूक कहे या हादिस बताये वह गुमराह और बद्दीन है।
अक़ीदा :- जो आलम में से किसी चीज़ को ख़ुद से मौजूद माने या उसके हादिस होने में शक करे वह काफ़िर है।
अक़ीदा :- अल्लाह तआला न किसी का बाप है और न ही किसी का बेटा है और न उसके लिए कोई बीवी। यदि कोई अल्लाह के लिए बाप, बेटा या जोरू (बीवी) बताये वह भी काफ़िर है बल्कि जो मुमकिन भी बताए गुमराह बद्दीन है।
अक़ीदा :- अल्लाह तआला हैय्य (अमर) है यानी जिन्दा है जिसे कभी मौत नहीं आयेगी। सबकी ज़िन्दगी उसी के हाथ है वह जिसे जब चाहे ज़िन्दगी दे और जब चाहे मौत दे दे।
अक़ीदा :- वह हर मुमकिन पर कादिर है और कोई मुमकिन उसकी कुदरत से बाहर नहीं।
जो चीज़ मुहाल हो, अल्लाह तआला उससे पाक है कि उसकी कुदरत उसे शामिल हो क्योंकि मुहाल उसे कहते हैं जो मौजूद न हो सके और जब उस पर कुदरत होगी तो मौजूद हो सकेगा और जब मौजूद हो सकेगा तो फिर मुहाल कैसे हो सकेगा।
इसे इस तरह समझिए जैसे कि दूसरा ख़ुदा मुहाल है यानी दूसरा ख़ुदा हो ही नहीं सकता अगर दूसरा ख़ुदा होना कुदरत के मातहत (अधीन) हो तो मौजूद हो सकेगा और जब मौजूद हो सकेगा तो मुहाल नहीं रहा।
और दूसरे ख़ुदा को मुहाल न मानना अल्लाह के एक होने का इन्कार है।
यूँही अल्लाह तआला का फ़ना हो जाना मुहाल है अगर अल्लाह के फ़ना होने को कुदरत में दाखिल माना जाए तो अल्लाह के अल्लाह होने से ही इन्कार करना है।
एक बात यह भी समझने की है कि हर वह चीज़ जो अल्लाह की कुदरत के मातहत हो वो मौजूद हो ही जाये यह कोई ज़रूरी नहीं।
जैसे कि यह मुमकिन है कि सोने चाँदी की जमीन हो जाए परन्तु ऐसा नहीं है। लेकिन ऐसा हो जाना हर हाल में मुमकिन रहेगा चाहे ऐसा कभी न हो।



अक़ीदा :- अल्लाह हर कमाल और खूबी का जामेअ है यानी उसमें सारी खूबियाँ हैं और अल्लाह हर उस चीज़ से पाक है जिसमें कोई भी ऐब, बुराई या कमी हो यानी उसमें ऐब और नुकसान का होना मुहाल है बल्कि जिसमें न कोई कमाल हो और न कोई नुकसान वह भी उसके लिए मुहाल हैं मिसाल के तौर पर झूट बोलना, दगा देना, ख्रिनायत करना, जुल्म करना और जहालत और बेहयाई वगैरा ऐब अल्लाह के लिए मुहाल हैं।
और यह कहना कि झूट पर कुदरत इस माना कर कि वह ख़ुद झूट बोल सकता है मुहाल को मुमकिन ठहराना और ख़ुदा को ऐबी बताना है बल्कि खुदा का इन्कार करना है और यह समझना कि यदि वह मुहाल पर क़ादिर न होगा तो उसकी कुदरत नाक़िस रह जायेंगी बिल्कुल बातिल है यानी बेअस्ल और बेकार की बात है कि उसमें कुदरत का क्या नुकसान है।
कमी तो उस मुहाल में है कि कुदरत से तअल्लुक की उसमें सलाहियत नहीं।

अक़ीदा :- हयात, कुदरत, सुनना, देखना, कलाम, इल्म और इरादा उसकी जाती सिफ़तें हैं मगर आँख, कान और जुबान से उसका सुनना, देखना और कलाम करना नहीं क्योंकि यह सब जिस्म हैं और वह जिस्म (Body) से पाक है।
अल्लाह हर धीमी से धीमी आवाज़ को सुनता है। वह ऐसी बारीक चीज़ों को भी देखता है जो किसी भी खुर्दबीन या दूरबीन से न देखी जा सकें बल्कि उसका देखना और सुनना इन्हीं चीज़ों पर मुन्हसिर (निर्भर) नहीं बल्कि वह हर मौजूद को देखता और सुनता है।

अक़ीदा :- अल्लाह की दूसरी सिफ़तों की तरह उसका कलाम भी क़दीम है।
हादिस और मखलूक नहीं जो कुरान शरीफ़ को मखलूक माने उसे हमारे इमामे आज़म हज़रत अबू हनीफ़ा, दूसरे इमामों और सहाबा रदियल्लाहु तआला अन्हुम ने काफ़िर कहा है।
अल्लाह का कलाम आवाज़ से पाक है और यह कुरान शरीफ़ जिसकी हम अपनी ज़बान से तिलावत करते हैं और किताबों तथा कागजों में लिखते लिखाते हैं उसी का बिना आवाज़ के क़दीम कलाम है।
हमारा पढ़ना लिखना और यह हमारी आवाज़ हादिस और जो हमने सुना कदीम।
हमारा याद करना हादिस और हमने जो याद किया क़दीम है। इसे यूँ समझो कि तजल्ली हादिस और मुतजल्ली (तजल्ली डालने वाला) कदीम है।



अकीदा :- अल्लाह का इल्म, जुज्यात, कुल्लियात, मौजूदात (Existing Thing), मादूमात (Non Existing Thing), मुमकिनात (Posibilities) और मुहालात को मुहीत (घेरे हुए) है यानी सबको अज़ल में जानता था और अब भी जानता है और अबद ता. जानेगा।
चीजें बदल जाया करती हैं लेकिन अल्लाह का इल्म नहीं बदला करता।
वह दिलों की बातों और वसवसों को जानता है।
यहाँ तक कि उसके इल्म की कोई थाह नहीं।

अक़ीदा :- वह हर खुली और ढकी चाज़ों को जानता है और उसका इल्म जाती है और जाती इल्म उसी के लिए ख़ास है।
जो कोई ढकी छिपी या ज़ाहिरी चीज़ों का ज़ाती इल्म अल्लाह के सिवा किसी दूसरे के लिये साबित करे वह काफ़िर है क्योंकि किसी दूसरे के लिए जाती इल्म मानने का मतलब यह है कि बगैर खुदा के दिये खुद हासिल हो।

अक़ीदा :- अल्लाह ही हर तरह की जातों तथा कामों का पैदा करने वाला है।
हकीकत में रोज़ी पहुँचाने वाला सिर्फ अल्लाह ही है और फ़रिश्ते रोज़ी पहुँचाने के ज़रिये हैं।

अक़ीदा :- अल्लाह तआला ने हर भलाई और बुराई को अपने अज़ली इल्म के मुवाफ़िक़ मुकद्दर कर दिया है यानी जैसा होने वाला था और जो जैसा करने वाला था उसने अपने इल्म से जाना और वही लिख लिया।
इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि जैसा उसने लिख दिया वैसा ही हमको करना पड़ता है बल्कि हम जैसा करने वाले थे वैसा उसने लिखा है।
अगर अल्लाह ने जैद के ज़िम्मे बुराई लिखी तो इसलिये कि जैद बुराई करने वाला था।
अगर जैद भलाई करने वाला होता तो वह उसके लिये भलाई लिखता।
अल्लाह तआला के लिख देने ने किसी को मजबूर नहीं कर दिया।
यह तक़दीर की बातें हैं और तक़दीर की बातों का इन्कार नहीं किया जा सकता।
तक़दीर के इन्कार करने वालों को हूजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इस उम्मत का मजूस बताया है।



अकीदा- कज़ा या तकदीर की तीन किस्में हैं। पहले तीनों की मुख़तसर तारीफें फिर उसकी तफ़सील से. कुछ बातें बताई जायेंगी।

  1. मुबरमे हकीकी (अटल) कि इल्मे इलाही में किसी शय. पर मुअल्लक नहीं।
    यानी वह किसी की दुआ वगैरह से भी टल नहीं सकती।
  2. मुअल्लके महज़ जो फ़रिश्तों के लेखों में किसी चीज़ पर उसका मुअल्लक होना ज़ाहिर फ़रमा दिया गया है यानी जो दुआ या सदकों से बदल जाए।
  3. मुअल्लके शबीह ब मुबरेम जिसके मुअल्लक होने का फ़रिश्तों के लेख में जिक्र नहीं लेकिन अल्लाह के इल्म में मुअल्लक है।
    इस क़ज़ा की घटना होने न होने का दोहा उल्लेख किसी शर्त के साथ है।
    अब कज़ा या तक़दीर की तीन किस्में जिनके बारे में कुछ तफ़सील से लिखा जाता है :
  4. “मुबरम हक़ीकी” यह वह क़ज़ा है जिसकी तबदीली मुमकिन नहीं।
    अगर इस बारे में अल्लाह के ख़ास बन्दे कुछ कहते हैं तो उन्हें वापस कर दिया जाता है जैसा कि जब कौमे लूत पर फ़रिश्ते अज़ाब लेकर आये तो हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने उन काफिरों को अज़ाब से बचाने के लिए कोशिश की और यहाँ तक कि जैसा कि अल्लाह ने कुरान शरीफ़ में इस बात को इस तरह बताया है कि

तर्जमा :- हमसे क़ौमे लूत के बारे में झगड़ने लगा।

जो बेदीन यह कहते हैं कि अल्लाह के आगे कोई दम नहीं मार सकता और जो लोग अल्लाह की बारगाह में अल्लाह के महबूबों की कोई इज़्ज़त नहीं मानते, वह कुरान के इस टुकड़े को देखें कि अल्लाह ने अपने महबूब की इज्जत और शान को इन अल्फ़ाज़ से बढ़ाया है कि इब्राहीम हम से झगड़ने लगा।
दूसरी बात यह कि हदीस शरीफ़ में आया है कि मेराज की रात हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने एक आवाज़ ऐसी सुनी कि कोई अल्लाह के साथ बहुत तेज़ी और ज़ोर ज़ोर से बातें कर रहा है। हुजूर अलैहिस्सलाम ने हज़रते जिब्रोल से पूछा कि यह कौन हैं? उन्होंने कहा कि यह हज़रते मूसा अलैहिस्सलाम हैं। हुजूर ने फ़रमाया कि अपने रब पर तेज़ होकर बात करते हैं।
तो जवाब में हज़रते जिब्रील अलैहिस्सलाम ने कहा कि “उनका रब जानता है कि उनके मिज़ाज में तेजी है” तीसरी बात यह है कि जब यह आयत उतरी कि

तर्जमा :- बेशक करीब है कि तुम्हें तुम्हारा रब इतना अता फरमायेगा कि तुम राज़ी हो जाओगे।



तो हुजूर सय्यदुल महबूबीन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने यह फरमाया कि

तर्जमा :- अगर ऐसा है तो मैं नहीं राजी हूंगा अगर मेरा एक उम्मती भी आग में हो।

यह तो बड़ी ऊँची बातें हैं और उनकी शान तो ऐसी है कि जिस पर सारी बलन्दियाँ कुर्बान हैं।
मुसलमान के कच्चे बच्चे जो हमल से गिर जाते हैं उनके लिए भी हदीसों में आया है कि वे अपने माँ बाप की बख्शिश के लिए उपने रब से कियामत के दिन ऐसा झगड़ेंगे कि जैसा कोई कर्जा देने वाला अपने दिये हुये कर्जे के लिये झगड़ा करता है और उस झगड़ने वाले कच्चे बच्चे से यह कहा जायेगा कि :

तर्जमा :- ऐ अपने रब से झगड़ने वाले कच्चे बच्चे! अपने माँ बाप का हाथ पकड़ ले और जन्नत में चला जा।



खैर यह तो जुमला बीच में आ गया मगर ईमान वालों के लिए बहुत नफा बख़्श और इन्सानों में रहने वाले शैतानों की ख़बासत को दूर करने वाला है।
कहना यह है कि कौमे लूत पर अज़ाब क़ज़ाए मुबरमे हकीकी था।
हज़रते ख़लीलुल्लाह अलानबीय्यिना व अलैहिस्सलातु वस्सलाम उसमें झगड़े तो उन्हें इरशाद हुआ :

तर्जमा :- ऐ इब्राहीम इस ख्याल में न पड़ो बेशक उन पर वह अज़ाब आने वाला है जो फिरने का नहीं।

  1. दूसरी कज़ा ‘कज़ाए मुअल्लके महज़’ है।
    कौमे लूत पर जो अज़ाब आया वह क़जाए मुबरमे हक़ीकी था इसी लिए जब हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम इस कज़ा के टलने के लिए दुआयें करने लगे तो अल्लाह ने यह फ़रमाया कि :

तर्जमा :- ऐ इब्राहीम इस ख्याल में न पड़ो बेशक उन पर अज़ाब ऐसा आने वाला है जो फिरने का नहीं।

और वह कज़ा जो ज़ाहिर में कज़ाए मुअल्लक है उस कज़ाए मुअल्लक तक बहुत से औलिया किराम की पहुँच होती है और औलिया किराम की दुआ से यह कज़ा टाल दी जाती है।
3- और वह क़ज़ा जो दरमियानी हालत में है जिसे फ़रिश्तों की किताबों के एतिबार से ‘मुबरम’ भी कह सकते हैं।
और यह वह कज़ा है जिस तक अल्लाह तआला के बहुत ही खास वलियों की पहँच होती है।

हज़रत गौसे आज़म रदियल्लाहु तआला अन्हु इसी कज़ा के बारे में फ़रमाते हैं कि “मैं कज़ाए मुबरम को टाल देता हूँ और हदीस शरीफ़ में इसी बारे में आया है कि :



तर्जमा :- बेशक दुआ कजाए मुबरम को टाल देती है।
इस हदीसे पाक से यही दरमियानी कज़ा मुराद है।

मसअला :- तकदीर की बातें आम लोग नहीं समझ सकते।
इनमें ज्यादा गौर व फ़िक्र करना बराबाद होने का सबब है। इसीलिए हज़रते अबूबक्र और हज़रते उमर रदियल्लाहु तआला अन्हुमा इस मसअले में बहस करने से रोक दिए गए हमारी और तुम्हारी क्या गिनती है।
इतनी बात ध्यान में रहे कि अल्लाह ने आदमी को ईंट, पत्थर और दूसरे जमादात की तरह बेहिस और बेहरकत नहीं पैदा किया बल्कि उसको एक तरह का इख़्तियार दिया है कि एक काम को चाहे करे या न करे और उसके साथ ही उसको अक्ल भी दी है कि भले बुरे तथा फ़ायदे और नुकसान को पहचान सके।
और हर किस्म के सामान और असबाब अल्लाह तआला ने इन्सान को दे दिए है कि जब कोई काम करना चाहता है उसी किस्म के सामान हो जाते हैं और इसी बिना पर इन्सानी की पकड़ है।
अपने आपको बिल्कुल पत्थर की तरह मजबूर या बिल्कुल मुख़्तार समझना दोनों गुमराही हैं।

दूसरी बात यह है कि बुरा काम करके यह कहना कि “तक़दीर में ऐसा ही था और अल्लाह तआला की मर्जी ऐसी ही थी” बहुत बुरी बात है। शरीअत का हुक्म यह है कि जो अच्छा काम करे उसे अल्लाह की तरफ़ से जाने और जो बुरा काम करे उसे अपने नफ़्स की तरफ़ से और इबलीसे लईन की तरफ से समझे।

अक़ीदा :- अल्लाह तआला जहत (दिशाओं) और जगहों और वक्तों और हिलने और रुकने और शक्ल व सूरत और तमाम हादिस चीज़ों से पाक है इसलिए कि अल्लाह तआला जमीन व आसमान का नूर है।

अक़ीदा :- दुनिया की ज़िन्दगी में अल्लाह तआला का दीदार नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए ख़ास है और आखिरत में हर सुन्नी मुसलमान अल्लाह तआला का दीदार करेगा
अब रही दिल से देखने या ख़्वाब में अल्लाह तआला के दीदार की बात तो यह दूसरे नबियों और वलियों के लिए भी हासिल है जैसा कि इमामे आज़म अबू हनीफ़ा रदियल्लाहु तआला अन्हु को सौ बार ख़्वाब में अल्लाह तआला की जियारत हुई।



अक़ीदा :- अल्लाह तआला का दीदार कियामत के दिन मुसलमानों को यक़ीनन होगा और यह नहीं कह सकते कि कैसे होगा क्यूँकि जिस चीज़ को देखते हैं वह चीज़ देखने वाले से कुछ दूरी पर होती है और नज़दीकी या दूरी देखने वाले से किसी तरफ़ होती है।
जब किसी को देखा जाता है तो उसे देखने में आगे पीछे दाहिने बायें ऊपर नीचे दूर या करीब देखा जाता है और अल्लाह तआला तमाम जहतों से पाक है।
फिर रही यह बात कि आखिर दीदार कैसे होगा? तो खूब समझ लो कि यहाँ कैसे’ और ‘क्यूँकर’ की कोई गुंजाइश नहीं।
जब अल्लाह का करम होगा तो खुद पता चल जायेगा।
इन सब बातों का खुलासा यह है कि क्यों, कैसे और क्यूँकर आदि का सम्बन्ध अक्ल से है और अल्लाह तआला की ज़ात तक अक्ल पहुँच ही नहीं सकती और जहाँ तक अक्ल पहुँचती है वह ख़ुदा नहीं।
जब अक्ल वहाँ तक नहीं पहुँच सकती तो अक्ल या नज़र उसे घेरे में ले भी नहीं सकतीं।

अक़ीदा :- अल्लाह जो चाहे और जैसे चाहे करे उस पर किसी को काबू नहीं और न कोई अल्लाह तआला को उसके इरादे से रोक सकता है।
न वह ऊंघता है और न ही उसे नींद आती है।
वह तमाम जहानों का निगहबान हैं।
वह न थकता है और न उकताता है।
वही सारे आलम का पालनहार है।
माँ बाप से ज्यादा मेहरबान और हलीम है।
अल्लाह ही की रहमत टूटे हुए दिलों का सहारा है।
और उसी के लिए बड़ाई और अज़मत है।
माँओं के पेट में जैसी चाहे सूरत बनाने वाला वही है।
अल्लाह ही गुनाहों का बख़्शने वाला, तौबा क़बूल करने वाला और कहर और गज़ब फ़रमाने वाला है।
और उसकी पकड़ ऐसी कड़ी है कि बिना उसके छुड़ाये कोई छूट ही नहीं सकता।
अल्लाह चाहे तो छोटी चीज़ों को बड़ी कर दे और फैली चीजों को समेट दे।
वह जिसको चाहे ऊचा कर दे और जिसको चाहे नीचा।
वह चाहे तो जलील को इज्जत दे और इज्जत वाले को जलील कर दे।
जिसको चाहे सीधे रास्ते पर लाये और जिसे चाहे सीधे रास्ते से अलग कर दे।
जिसे चाहे अपने से करीब बना ले और जिसे चाहे मरदूद कर दे। जिसे जो चाहे दे और जिससे जो चाहे छीन ले।
वह जो कुछ करता है या करेगा वह इन्साफ़ है और वह जुल्म से पाक व साफ़ है अल्लाह हर बलन्द से बलन्द है।
यहाँ तक कि उसकी बलन्दी की कोई थाह (सीमा) नहीं।
वह सबको घेरे हुए है उसको कोई घेर नहीं सकता।
फ़ायदा और नुकसान उसी के हाथ में है।
मज़लूम की फ़रयाद को पहुँचता और जालिम से बदला लेता है। उसकी मशीयत और इरादे के बगैर कुछ नहीं हो सकता वह भले कामों से खुश और बुरे कामों से नाराज़ होता है।
अल्लाह की रहमत है कि वह ऐसे कामों का हुक्म नहीं करता जो हमारी ताक़त से बाहर हों।
अल्लाह तआला पर सवाब या अज़ाब या बन्दे के साथ मेहरबानी या बन्दे जो अपने लिए अच्छा जानें वह अल्लाह के लिए वाजिब नहीं।
वह मालिक है जो चाहे करे और जो चाहे हुक्म दे।
हाँ अल्लाह ने अपने करम से वादा फ़रमा लिया है कि मुसलमानों को जन्नत में और काफ़िरों को जहन्नम में दाखिल करेगा।
और उसके वाटे और वईद कभी बदला नहीं करते उसका यह भी वादा है कि कुफ़ के सिवा हर छोटे बड़े गुनाहों को जिसे चाहे माफ़ कर देगा।

अक़ीदा :- अल्लाह तआला के हर काम में हमारे लिए बहुत सी हिकमतें हैं चाहे हमको मालूम हों या न हों और उसके काम के लिए कोई ग़रज़ नहीं क्यूँकि ग़रज़ और गायत उस फ़ायदे को कहते हैं जिसका सम्बन्ध काम के करने वाले से हो और अल्लाह के काम किसी इल्लत तथा सबब के मुहताज नहीं अलबत्ता अल्लाह तआला ने कामों के लिए कुछ असबाब पैदा कर दिये हैं।
आँख के सबब से देखा जाता है, कान के जरिये सुना जाता है। आग जलाने का काम करती है और पानी के सबब से प्यास बुझती है।
लेकिन अगर अल्लाह चाहे तो आँख सुनने लगे कान देखने लगे पानी जलाने लगे और आग प्यास बुझाये।
और न चाहे तो लाख आँखें हो दिन को भी पहाड़ नज़र नहीं आयेगा और आग के अंगारे में तिनका भी बेदाग रहेगा।
वह आग कितने ग़जब की थी कि जिसमें काफ़िरों ने हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम को डाला।
आग ऐसी थी कि कोई उसके पास जा नहीं सकता था इसलिए उन्हें गोफन में रखकर फेंका गया।
जब आग के सामने पहुँचे तो हज़रते जिब्रील अलैहिस्सलाम आये और पूछा कि अगर कोई हाजत हो तो आप बतायें।
उन्होंने फ़रमाया कि है तो लेकिन तुमसे नहीं।
और इस तरह इरशाद फ़रमाया कि

 



 

तर्जमा :- उसको मेरे हाल का इल्म होना बस काफ़ी है मुझे अपनी हाजत बयान करने से।

उधर अल्लाह तआला ने आग को यह हुक्म दिया कि

तर्जमा :- ऐ आग हो जा ठन्डी और सलामती इब्राहीम पर।

इस बात को सुनकर दुनिया में जहाँ कहीं पर भी आगे थीं यह समझते हुए सब ठंडी हो गईं कि शायद मुझी से कहा जा रहा है। और नमरूद की आग तो ऐसी ठंडी हुई कि उलमा फ़रमाते हैं अगर उसके साथ वसलामन का लफ्ज़ न होता तो आग इतनी ठन्डी हो जाती कि उसकी ठन्डक से हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम को तकलीफ़ पहुँच जाती।
बताना यह था कि आग का काम जलाने का ज़रूर है लेकिन अगर अल्लाह चाहे तो आग ठन्डी हो सकती है।

📚 ( बहारे शरीअत 1/18 ) 

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