41 Surah Ham'mim Sajda

41 Surah Ham’mim Sajda

41 सूरए हामीम सज्दा- पहला रूकू

41 सूरए हामीम सज्दा – पहला रूकू

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ حم
تَنزِيلٌ مِّنَ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
كِتَابٌ فُصِّلَتْ آيَاتُهُ قُرْآنًا عَرَبِيًّا لِّقَوْمٍ يَعْلَمُونَ
بَشِيرًا وَنَذِيرًا فَأَعْرَضَ أَكْثَرُهُمْ فَهُمْ لَا يَسْمَعُونَ
وَقَالُوا قُلُوبُنَا فِي أَكِنَّةٍ مِّمَّا تَدْعُونَا إِلَيْهِ وَفِي آذَانِنَا وَقْرٌ وَمِن بَيْنِنَا وَبَيْنِكَ حِجَابٌ فَاعْمَلْ إِنَّنَا عَامِلُونَ
قُلْ إِنَّمَا أَنَا بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ يُوحَىٰ إِلَيَّ أَنَّمَا إِلَٰهُكُمْ إِلَٰهٌ وَاحِدٌ فَاسْتَقِيمُوا إِلَيْهِ وَاسْتَغْفِرُوهُ ۗ وَوَيْلٌ لِّلْمُشْرِكِينَ
الَّذِينَ لَا يُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَهُم بِالْآخِرَةِ هُمْ كَافِرُونَ
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَهُمْ أَجْرٌ غَيْرُ مَمْنُونٍ

सूरए हामीम सज्दा मक्का में उतरी, इसमें 54 आयतें, 6 रूकू हैं.
-पहला रूकू

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) इस सूरत का नाम सूरए फुस्सेलत भी है और सूरए सज्दा और सूरए मसाबीह भी है. यह सूरत मक्के में उतरी. इसमें छ रूकू, चव्वन आयतें, सात सौ छियानवे कलिमे और तीन हज़ार तीन सौ पचास अक्षर हैं.

हा-मीम.{1} यह उतारा है बड़े रहम वाले मेहरबान का {2} एक किताब है जिसकी आयतें मुफ़स्सल फ़रमाई गईं(2)
(2) अहकाम, मिसालें, कहावतें, नसीहतें, वादे, ख़ुशख़बिरयाँ, चेतावनी वग़ैरह के बयान में.

अरबी क़ुरआन अक़्ल वालों के लिये{3} ख़ुशख़बरी देता(3)
(3) अल्लाह तआला के दोस्तों को सवाब की.

और डर सुनाता  (4)
(4) अल्लाह तआला के दुश्मनों को अज़ाब का.

तो उनमें अक्सर ने मुंह फेरा तो वो सुनते ही नहीं (5){4}
(5) तवज्जह से क़ुबूल का सुनना.

और बोले (6)
(6) मुश्रिक लोग, हज़रत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से.

हमारे दिल गलाफ़ में हैं उस बात से जिसकी तरफ़ तुम हमें बुलाते हो(7)
(7) हम उसको समझ ही नहीं सकते, यानी तौहीद और ईमान को.

और हमारे कानों में टैंट (रूई) है (8)
(8) हम बेहरे हैं आपकी बात हमारे सुनने में नहीं आती. इससे उनकी मुराद यह थी कि आप हमसे ईमान और तौहीद क़ुबूल करने की आशा न रखिये हम किसी तरह मानने वाले नहीं और न मानने में हम उस व्यक्ति की तरह हैं जो न समझता हो, न सुनता हो.

और हमारे और तुम्हारे बीच रोक है(9)
(9) यानी दीनी मुख़ालिफ़त, तो हम आपकी बात मानने वाले नहीं.

तो तुम अपना काम करो हम अपना काम करते हैं(10){5}
(10) यानी तुम अपने दीन पर रहो, हम अपने दीन पर क़ायम हैं, या ये मानी हैं कि तुम से हमारा काम बिगाड़ने की जो कोशिश हो सके वह करो. हम भी तुम्हारे ख़िलाफ़ जो हो सकेगा करेंगे.

तुम फ़रमाओ (11)
(11) ऐ मख़लूक़ में सबसे बुजुर्गी वाले सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, विनम्रता के तौर पर उन लोगों को राह दिखाने और हिदायत के लिये कि—-

आदमी होने में तो मैं तुम्हीं जैसा हूँ (12)
(12) ज़ाहिर में कि मैं देखा भी जाता हूँ मेरी बात भी सुनी जाती है और मेरे बीच में ज़ाहिर तौर पर कोई जिन्सी इख़्तिलाफ़ भी नहीं है तो तुम्हारा यह कहना कैसे सही हो सकता है कि मेरी बात न तुम्हारे दिल तक पहुंचे न तुम्हारे सुनने में आए और मेरे तुम्हारे बीच कोई रोक हो बजाय मेरे कोई ग़ैर जिन्स फ़रिश्ता या जिन्न आता तो तुम कह सकते थे कि न वो हमारे देखने में आएं न उनकी बात सुनने में आए न हम उनके कलाम को समझ सकें. हमारे उनके बीच तो जिन्स का अलग होना ही बड़ी रोक है. लेकिन यहाँ तो ऐसा नहीं है क्योंकि मैं इन्सान की सूरत में जलवानुमा हुआ तो तुम्हें मुझसे मानूस होना चाहिये और मेरे कलाम के समझने और उससे फ़ायदा उठाने की बहुत कोशिश करनी चाहिये क्योंकि मेरा दर्जा बहुत बलन्द है, मेरा कलाम बहुत ऊंचा है इसलिये कि मैं वही कहता हूँ जो मुझे वही होती है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का ज़ाहिरी तौर से “आदमी होने में तो मैं तुम्ही जैसा हूँ”  फ़रमाना हिदायत और राह दिखाने की हिकमत से है और विनम्रता के तरीक़े से है और जो विनम्रता के लिये कलिमात कहे जाएं वो विनम्रता करने वाले के बलन्द दर्जे की दलील होते हैं छोटों का इन कलिमात को उसकी शान में कहना या उससे बराबरी ढूंढना अदब छोड़ना और गुस्ताख़ी होती है. तो किसी उम्मती को जायज़ नहीं कि वह हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम जैसा होने का दावा करे. यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि आपकी बशरिय्यत भी सबसे अअला है. हमारी बशरिय्यत को उससे कुछ निस्बत नहीं.

मुझे वही होती है कि तुम्हारा मअबूद एक ही मअबूद है तो उसके हुज़ूर सीधे रहो(13)
(13) उस पर ईमान लाओ उसकी फ़रमाँबरदारी करो और उसकी राह से न फिरो.

और उससे माफ़ी मांगो(14)
(14) अपने  अक़ीदे और अमल की ख़राबी की.

और ख़राबी है शिर्क वालों {6} वो जो ज़कात नहीं देते(15)
(15) यह ज़कात के इन्कार से ख़ौफ़ दिलाने के लिये फ़रमाया गया ताकि मालूम हो कि ज़कात को मना करना ऐसा बुरा है कि क़ुरआने पाक में मुश्रिकों की विशेषताओ में ज़िक्र किया गया और इसकी वजह यह है कि इन्सान को माल बहुत प्यारा होता है. माल का ख़ुदा की राह में ख़र्च कर डालना उसके पक्के इरादे, दृढ़ता और सच्चाई और नियत की नेकी की मज़बूत दलील है और हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि ज़कात से मुराद है तौहीद को मानना और लाइलाहा इल्लल्लाहो कहना. इस सूरत में मानी ये होंगे कि जो तौहीद का इक़रार करके अपने नफ़्सों को शिर्क से बाज़ नहीं रखते, और क़तादह ने इसके मानी ये लिये हैं कि जो लोग ज़कात को वाजिब नहीं जानते, इसके अलावा और भी क़ौल हैं.

और वो आख़िरत के मुन्किर हैं(16) {7}
(16) कि मरने के बाद उठने और जज़ा के मिलने के क़ायम नहीं.

बेशक जो ईमान लाए और अच्छे काम किये उनके लिये बे इन्तिहा सवाब है(17){8}
(17) जो ख़त्म न होगा. यह भी कहा गया है कि आयत बीमारों अपाहिजों और बूढों के हक़ में उतरी जो अमल और फ़रमाँबरदारी के क़ाबिल न रहे. उन्हे वही मिलेगा जो तन्दुरूस्ती में अमल करते थे. बुख़ारी शरीफ़ की हदीस है कि जब बन्दा कोई अमल करता है और किसी बीमारी या सफ़र के कारण वो काम करने वाला उस अमल से मजबूर हो जाता है तो स्वास्थ्य और इक़ामत की हालत में जो करता था वैसा ही उसके लिये लिखा जाता है.

41 सूरए हामीम सज्दा – दूसरा रूकू

41 सूरए हामीम सज्दा – दूसरा रूकू

۞ قُلْ أَئِنَّكُمْ لَتَكْفُرُونَ بِالَّذِي خَلَقَ الْأَرْضَ فِي يَوْمَيْنِ وَتَجْعَلُونَ لَهُ أَندَادًا ۚ ذَٰلِكَ رَبُّ الْعَالَمِينَ
وَجَعَلَ فِيهَا رَوَاسِيَ مِن فَوْقِهَا وَبَارَكَ فِيهَا وَقَدَّرَ فِيهَا أَقْوَاتَهَا فِي أَرْبَعَةِ أَيَّامٍ سَوَاءً لِّلسَّائِلِينَ
ثُمَّ اسْتَوَىٰ إِلَى السَّمَاءِ وَهِيَ دُخَانٌ فَقَالَ لَهَا وَلِلْأَرْضِ ائْتِيَا طَوْعًا أَوْ كَرْهًا قَالَتَا أَتَيْنَا طَائِعِينَ
فَقَضَاهُنَّ سَبْعَ سَمَاوَاتٍ فِي يَوْمَيْنِ وَأَوْحَىٰ فِي كُلِّ سَمَاءٍ أَمْرَهَا ۚ وَزَيَّنَّا السَّمَاءَ الدُّنْيَا بِمَصَابِيحَ وَحِفْظًا ۚ ذَٰلِكَ تَقْدِيرُ الْعَزِيزِ الْعَلِيمِ
فَإِنْ أَعْرَضُوا فَقُلْ أَنذَرْتُكُمْ صَاعِقَةً مِّثْلَ صَاعِقَةِ عَادٍ وَثَمُودَ
إِذْ جَاءَتْهُمُ الرُّسُلُ مِن بَيْنِ أَيْدِيهِمْ وَمِنْ خَلْفِهِمْ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا اللَّهَ ۖ قَالُوا لَوْ شَاءَ رَبُّنَا لَأَنزَلَ مَلَائِكَةً فَإِنَّا بِمَا أُرْسِلْتُم بِهِ كَافِرُونَ
فَأَمَّا عَادٌ فَاسْتَكْبَرُوا فِي الْأَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَقَالُوا مَنْ أَشَدُّ مِنَّا قُوَّةً ۖ أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّ اللَّهَ الَّذِي خَلَقَهُمْ هُوَ أَشَدُّ مِنْهُمْ قُوَّةً ۖ وَكَانُوا بِآيَاتِنَا يَجْحَدُونَ
فَأَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِيحًا صَرْصَرًا فِي أَيَّامٍ نَّحِسَاتٍ لِّنُذِيقَهُمْ عَذَابَ الْخِزْيِ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۖ وَلَعَذَابُ الْآخِرَةِ أَخْزَىٰ ۖ وَهُمْ لَا يُنصَرُونَ
وَأَمَّا ثَمُودُ فَهَدَيْنَاهُمْ فَاسْتَحَبُّوا الْعَمَىٰ عَلَى الْهُدَىٰ فَأَخَذَتْهُمْ صَاعِقَةُ الْعَذَابِ الْهُونِ بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ
وَنَجَّيْنَا الَّذِينَ آمَنُوا وَكَانُوا يَتَّقُونَ

तुम फ़रमाओ क्या तुम लोग उसका इन्कार रखते हो जिसने दो दिन में ज़मीन बनाई(1)
(1) उसकी ऐसी भरपूर क़ुदरत है, और चाहता तो एक पल  से भी कम में बना देता.

और उसके हमसर ठहराते हो(2)
(2) यानी शरीक.

वह है सारे जगत का रब (3) {9}
(3) और वही इबादत का मुस्तहक़ है उसके सिवा कोई पूजे जाने के लायक़ नहीं. सब उसकी ममलूक और मख़लूक़ हैं. इसके बाद फिर उसकी क़ुदरत का बयान फ़रमाया जाता है.

और उसमें (4)
(4) यानी ज़मीन में.

उसके ऊपर से लंगर डाले (5)
(5) पहाड़ों के.

और उसमें बरकत रखी(6)
(6) नदी और नेहरें और दरख़्त और फल और तरह तरह के जानदार वग़ैरह पैदा करके.

और उसमें उसके बसने वालों की रोज़ियाँ मुक़र्रर कीं यह सब मिलाकर चार दिन में(7),
(7) यानी दो दिन ज़मीन की पैदायश और दो दिन में ये सब.

ठीक जवाब पूछने वालों को {10} फिर आसमान की तरफ़ क़स्द फ़रमाया और वह धुंआ था(8)
(8) यानी बुख़ार(भाप)बलन्द होने वाला.

तो उससे और ज़मीन से फ़रमाया कि दोनो हाज़िर हो ख़ुशी से चाहे नाख़ुशी से, दोनो ने अर्ज़ की कि हम रग़बत के साथ हाज़िर हुए {11} तो उन्होंने पूरे सात आसमान कर दिया दो दिन में(9)
(9) ये कुल छ दिन हुए, इनमें सबसे पिछला जुमुआ (शुक्रवार)है.

और हर आसमान में उसी के काम के अहकाम भेजे(10)
(10) वहाँ के रहने वालों को ताअतों और इबादतों और, यह करो वह न करो, के आदेशों के.

और हमने नीचे के आसमान को (11)
(11) जो ज़मीन से क़रीब हे.

चिराग़ों से आरास्ता किया(12)
(12) यानी रौशन सितारों से.

और निगहबानी के लिये(13),
(13) चुराने वाले शैतानों से.

यह उस इज़्ज़त वाले इल्म वाले का ठहराया हुआ है{12} फिर अगर वो मुंह फेरें  (14)
(14) यानी अगर ये मुश्रिक लोग इस बयान के बाद भी ईमान लाने से मुंह फेरे.

तो तुम फ़रमाओ कि मैं तुम्हें डराता हूँ एक कड़क से जैसी कड़क आद और समूद पर आई थी(15) {13}
(15) यानी हलाकत वाले अज़ाब से, जैसा उन पर आया था.

जब रसूल उनके आगे पीछे फिरते थे (16)
(16) यानी आद व समूद क़ौमों के रसूल हर तरफ़ से आते थे और उनकी हिदायत की हर तदबीर अमल में लाते थे और उन्हें हर तरह नसीहत करते थे.

कि अल्लाह के सिवा किसी को न पूजो, बोले(17)
(17) उनकी क़ौम के काफ़िर उनके जवाब में कि—

हमारा रब चाहता तो फ़रिश्ते उतारता  (18)
(18) तुम्हारे बजाय, तुम तो हमारी तरह आदमी हो,

तो जो कुछ तुम लेकर भेजे गए हम उसे नहीं मानते(19) {14}
(19) यह ख़िताब उनका हज़रत हूद और हज़रत सालेह और सारे नबियों से था जिन्होंने ईमान की दावत दी. इमाम बग़वी ने सअलबी की सनद से हज़रत जाबिर से रिवायत की कि क़ुरैश की जमाअत ने, जिसमें अबू जहल वग़ैरह सरदार भी थे, यह प्रस्ताव रखा कि कोई ऐसा व्यक्ति, जो शायरी और तंत्र विद्या में माहिर हो, नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कलाम करने के लिये भेजा जाए. चुंनान्चे उतबा बिन रबीआ का चुनाव हुआ. उतबा ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से आकर कहा कि आप बेहतर हैं या हाशिम, आप बेहतर हैं या अब्दुल मुत्तलिब, आप बेहतर हैं या अब्दुल्लाह, आप क्यों हमारे मअबूदों को बुरा कहते हैं, क्यों हमारे बाप दादा को गुमराह बताते हैं, हुकूमत का शौक़ हो तो हम आपको बादशाह मान लें, आपके परचम उड़ाएं, औरतों का शौक़ हो तो क़ुरैश की जिन लड़कियों में से आप पसन्द करें हम दस आपके अक़्द में दें, माल की ख़्वाहिश हो तो इतना जमा कर दें जो आपकी नस्लों से भी बच रहे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ये तमाम बातें खामोशी से सुनते रहे. जब उतबा अपनी तक़रीर करके चुप हुआ तो हुज़ूरे अनवर अलैहिस्सलातों वस्सलाम ने यही सूरत हामीम सज्दा पढ़ी जब आप आयत “फ़ इन अअरदू फ़क़ुल अन्ज़रतुकुम साइक़तन मिस्ला साइक़ते आदिंव व समूदा” पर पहुंचे तो उतबा ने जल्दी से अपना हाथ हुज़ूर के दहने मुबारक पर रख दिया और आपको रिश्ते और क़राबत के वास्ते से क़सम दिलाई और डर कर अपने घर भाग गया. जब क़ुरैश उसके मकान पर पहुंचे तो उसने तमाम हाल बयान करके कहा कि ख़ुदा की क़सम मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) जो कहते हैं न वह शेअर है न जादू है न तांत्रिक विद्या है, मैं इन चीज़ों को ख़ूब जानता हूँ मैं ने उनका कलाम सुना जब उन्होंने आयत “फ़इन अअरदू” पढ़ी तो मैं ने उनके मुंह पर हाथ रख दिया और उन्हें क़सम दी कि बस करें और तुम जानते ही हो कि वो जो कुछ फ़रमाते हैं वही हो जाता है उनकी बात कभी झूटी नहीं होती. मुझे अन्देशा हो गया कि कहीं तुम पर अज़ाब न उतरने लगे.

तो वो जो आद थे उन्होंने ज़मीन में नाहक़ घमण्ड किया  (20)
(20) क़ौमे आद के लोग बड़े मज़बूत और शहज़ोर थे जब हूद अलैहिस्सलाम ने उन्हें अल्लाह के अज़ाब से डराया तो उन्हों ने कहा कि हम अपनी ताक़त से अज़ाब को हटा सकते हैं.

और बोले हम से ज़्यादा किस का ज़ोर और क्या उन्होंने न जाना कि अल्लाह जिसने उन्हें बनाया उनसे ज़्यादा क़वी (शक्तिशाली) है, और हमारी आयतों का इन्कार करते थे {15} तो हमने उनपर एक आंधी भेजी सख़्त गरज की(21)
(21) निहायत ठण्डी बग़ैर बारिश के.

उनकी शामत के दिनों में कि हम उन्हें रूस्वाई का अज़ाब चखाएं दुनिया की ज़िन्दगी में और बेशक आख़िरत के अज़ाब में सबसे बड़ी रूस्वाई है और उनकी मदद न होगी {16} और रहे समूद उन्हें हमने राह दिखाई(22)
(22) और नेकी और बदी के तरीक़े उनपर ज़ाहिर फ़रमाए-

तो उन्होंने सूझने पर अंधे होने को पसन्द किया(23)
(23) और ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र इख़्तियार किया.

तो उन्हें ज़िल्लत के अज़ाब की कड़क ने आ लिया(24)
(24) और हौलनाक आवाज़ के अज़ाब से हलाक किये गए.

सज़ा उनके किये की(25) {17}
(25) यानी उनके शिर्क और नबी को झुटलाने और गुनाहों की.

और हमने (26)
(26) साइक़ा यानी कड़क के उस ज़िल्लत वाले अज़ाब से.

उन्हें बचा लिया जो ईमान लाए (27)
(27) हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम पर.

और डरते थे (28) {18}
(28) शिर्क और बुरे कर्मों से.

41 सूरए हामीम सज्दा – तीसरा रूकू

41 सूरए हामीम सज्दा – तीसरा रूकू

وَيَوْمَ يُحْشَرُ أَعْدَاءُ اللَّهِ إِلَى النَّارِ فَهُمْ يُوزَعُونَ
حَتَّىٰ إِذَا مَا جَاءُوهَا شَهِدَ عَلَيْهِمْ سَمْعُهُمْ وَأَبْصَارُهُمْ وَجُلُودُهُم بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ
وَقَالُوا لِجُلُودِهِمْ لِمَ شَهِدتُّمْ عَلَيْنَا ۖ قَالُوا أَنطَقَنَا اللَّهُ الَّذِي أَنطَقَ كُلَّ شَيْءٍ وَهُوَ خَلَقَكُمْ أَوَّلَ مَرَّةٍ وَإِلَيْهِ تُرْجَعُونَ
وَمَا كُنتُمْ تَسْتَتِرُونَ أَن يَشْهَدَ عَلَيْكُمْ سَمْعُكُمْ وَلَا أَبْصَارُكُمْ وَلَا جُلُودُكُمْ وَلَٰكِن ظَنَنتُمْ أَنَّ اللَّهَ لَا يَعْلَمُ كَثِيرًا مِّمَّا تَعْمَلُونَ
وَذَٰلِكُمْ ظَنُّكُمُ الَّذِي ظَنَنتُم بِرَبِّكُمْ أَرْدَاكُمْ فَأَصْبَحْتُم مِّنَ الْخَاسِرِينَ
فَإِن يَصْبِرُوا فَالنَّارُ مَثْوًى لَّهُمْ ۖ وَإِن يَسْتَعْتِبُوا فَمَا هُم مِّنَ الْمُعْتَبِينَ
۞ وَقَيَّضْنَا لَهُمْ قُرَنَاءَ فَزَيَّنُوا لَهُم مَّا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ وَحَقَّ عَلَيْهِمُ الْقَوْلُ فِي أُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِن قَبْلِهِم مِّنَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ ۖ إِنَّهُمْ كَانُوا خَاسِرِينَ

और जिस दिन अल्लाह के दुश्मन  (1)
(1) यानी काफ़िर अगले और पिछले.

आग की तरफ़ हांके जाएंगे तो उनके अगलों को रोकेंगे {19} यहाँ तक कि पिछले आ मिलें(2)
(2) फिर सबको दोज़ख़ में हाँक दिया जाएगा.

यहां तक कि जब वहाँ पहुंचेंगे उनके कान और उनकी आँखे  और उनके चमड़े सब उनपर उनके किये की गवाही देंगे(3) {20}
(3) शरीर के अंग अल्लाह के हुक्म से बोल उठेंगे और जो जो कर्म किये थे बता देंगे.

और वो अपनी खालों से कहेंगे तुमने हम पर क्यों गवाही दी, वो कहेंगी हमें अल्लाह ने बुलवाया जिसने हर चीज़ को गोयाई (बोलने की ताक़त) बख़्शी और उसने तुम्हें पहली बार बनाया और उसी की तरफ़ तुम्हें फिरना है{21} और तुम (4)
(4) गुनाह करते वक़्त.

उससे कहाँ छुप कर जाते कि तुम पर गवाही दें तुम्हारे कान और तुम्हारी आँखें और तुम्हारी खालें(5)
(5) तुम्हें तो इसका गुमान भी न था बल्कि तुम तो मरने के बाद उठाए जाने और जज़ा के सिरे से ही क़ायल न थे.

लेकिन तुम तो यह समझे बैठे थे कि अल्लाह तुम्हारे बहुत से काम नहीं जानता (6) {22}
(6) जो तुम छुपा कर करते हो. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि काफ़िर यह कहते थे कि अल्लाह तआला ज़ाहिर की बातें जानता है और जो हमारे दिलों में है उसको नहीं जानता.

और यह है तुम्हारा वह गुमान जो तुमने अपने रब के साथ किया और उसने तुम्हें हलाक कर दिया(7)
(7) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अनहुमा ने फ़रमाया मानी ये हैं कि तुम्हें जहन्नम में डाल दिया.

तो अब रह गए हारे हुओं में{23} फिर अगर वो सब्र करें (8)
(8) अज़ाब पर.

तो आग उनका ठिकाना है(9)
(9) यह सब्र भी कारआमद नहीं.

और अगर वो मनाना चाहें तो कोई उनका मनाना न माने (10){24}
(10) यानी हक़ तआला उनसे राज़ी न हो चाहे कितनी ही मिन्नत करें किसी तरह अज़ाब से रिहाई नहीं.

और हमने उनपर कुछ साथी तैनात किये(11)
(11)  शैतानों में से.

उन्होंने उन्हें भला कर दिखाया जो उनके आगे है(12)
(12) यानी दुनिया की ज़ेबो ज़ीनत और नफ़्स की ख़्वाहिशों का अनुकरण.

और जो उनके पीछे (13)
(13) यानी आख़िरत की बात यह वसवसा डालकर कि न मरने के बाद उठना है न हिसाब न अज़ाब, चैन ही चैन है.

और उनपर बात पूरी हुई(14)उन गिरोहों के साथ जो उनसे पहले गुज़र चुके जिन्न और आदमियों के, बेशक वो ज़ियांकार(पापी) थे {25}
(14) अज़ाब की.

41 सूरए हामीम सज्दा – चौथा रूकू

41 सूरए हामीम सज्दा – चौथा रूकू

وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لَا تَسْمَعُوا لِهَٰذَا الْقُرْآنِ وَالْغَوْا فِيهِ لَعَلَّكُمْ تَغْلِبُونَ
فَلَنُذِيقَنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا عَذَابًا شَدِيدًا وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ أَسْوَأَ الَّذِي كَانُوا يَعْمَلُونَ
ذَٰلِكَ جَزَاءُ أَعْدَاءِ اللَّهِ النَّارُ ۖ لَهُمْ فِيهَا دَارُ الْخُلْدِ ۖ جَزَاءً بِمَا كَانُوا بِآيَاتِنَا يَجْحَدُونَ
وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا رَبَّنَا أَرِنَا اللَّذَيْنِ أَضَلَّانَا مِنَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ نَجْعَلْهُمَا تَحْتَ أَقْدَامِنَا لِيَكُونَا مِنَ الْأَسْفَلِينَ
إِنَّ الَّذِينَ قَالُوا رَبُّنَا اللَّهُ ثُمَّ اسْتَقَامُوا تَتَنَزَّلُ عَلَيْهِمُ الْمَلَائِكَةُ أَلَّا تَخَافُوا وَلَا تَحْزَنُوا وَأَبْشِرُوا بِالْجَنَّةِ الَّتِي كُنتُمْ تُوعَدُونَ
نَحْنُ أَوْلِيَاؤُكُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَفِي الْآخِرَةِ ۖ وَلَكُمْ فِيهَا مَا تَشْتَهِي أَنفُسُكُمْ وَلَكُمْ فِيهَا مَا تَدَّعُونَ
نُزُلًا مِّنْ غَفُورٍ رَّحِيمٍ

और काफ़िर बोले(1)
(1) यानी क़ुरैश के मुश्रिक लोग.

यह क़ुरआन न सुना और इसमें बेहूदा ग़ुल करो(2)
(2) और शोर मचाओ. काफ़िर एक दूसरे से कहते थे कि जब मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) क़ुरआन शरीफ़ पढें तो ज़ोर ज़ोर से शोर करो, ख़ूब चिल्लाओ, ऊंची ऊंची आवाज़ें निकाल कर चीखों, बेमानी कलिमात से शोर करो, तालियाँ और सीटियाँ बजाओ ताकि कोई क़ुरआन न सुनने पाए और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) परेशान हो.

शायद यूंही तुम ग़ालिब आओ (3) {26}
(3) और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पढ़ना बन्द कर दें.

तो बेशक ज़रूर हम काफ़िरों को सख़्त अज़ाब चखाएंगे और बेशक हम उनके बुरे से बुरे काम का उन्हें बदला देंगे(4) {27}
(4) यानी कुफ़्र का बदला सख़्त अज़ाब.

यह है अल्लाह के दुश्मनों का बदला आग, इसमें उन्हें हमेंशा रहना है, सज़ा उसकी कि हमारी आयतों का इन्कार करते थे {28} और काफ़िर बोले (5)
(5) जहन्नम में.

ऐ हमारे रब हमें दिखा वो दोनों जिन्न और आदमी जिन्होंने हमें गुमराह किया(6)
(6) यानी हमें वो दीनी शैतान दिखा, जिन्नी भी और इन्सी भी. शैतान दो क़िस्म के होते हैं एक जिन्नों में से, एक इन्सानों में से जैसा कि क़ुरआने पाक में हैं, “शयातीनल इन्से वल जिन्ने” (सूरए अनआम, आयत 112) जहन्नम में काफ़िर इन दोनों को देखने की ख़्वाहिश करेंगे.

कि हम उन्हें अपने पाँव तले डालें(7)
(7) आग में.

कि वो हर नीचे से नीचे रहें(8){29}

(8) पाताल में, हम से ज़्यादा सख़्त अज़ाब में.

बेशक वो जिन्हों ने कहा हमारा रब अल्लाह है फिर उसपर क़ायम रहे(9)
(9) हज़रत सिद्दीक़े अकबर रदियल्लाहो अन्हो से पूछा गया इस्तिक़ामत क्या है, फ़रमाया यह कि अल्लाह तआला के साथ किसी को शरीक न करें, हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि इस्तिक़ामत यह है कि अल्लाह ने जिन बातों की इजाज़त दी है और जिन बातों से रोका है उस पर क़ायम रहे. हज़रत उस्मान ग़नी रदियल्लहो अन्हो ने फ़रमाया इस्तिक़ामत यह है कि अमल में इख़लास करे. हज़रत अली रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि इस्तिक़ामत यह है कि फ़रायज़ अदा करे. और इस्तिक़ामत के मानी में यह भी कहा गया है कि अल्लाह तआला के हुक्म को बजा लाए गुमराही से बचे.

उनपर फ़रिश्ते उतरते हैं(10)
(10) मौत के वक़्त या वो जब क़ब्रों से उठेंगे और यह भी कहा गया है कि मूमिन को तीन बार बशारत दी जाती है एक मौत के वक़्त, दूसरे क़ब्र में तीसरे क़ब्र से उठने के बाद.

कि न डरो(11)
(11) मौत से, और आख़िरत में पेश आने वाले हालात से.

और न ग़म करो(12)
(12) घरवालों और औलाद के छूटने का या गुनाहों का.

और ख़ुश हो उस जन्नत पर जिस का तुम्हें वादा दिया जाता था(13){30}
(13) और फ़रिश्ते कहेंगे.

हम तुम्हारे दोस्त हैं दुनिया की ज़िन्दगी में(14)
(14) तुम्हारी हिफ़ाज़त करते थे.

और आख़िरत में(15)
(15) तुम्हारे साथ रहेंगे और जब तक तुम जन्नत में दाख़िल हो तुम से जुदा न होंगे.

और तुम्हारे लिये है उसमें (16) जो तुम्हारा जी चाहे और तुम्हारे लिये उसमें जो मांगो{31} मेहमानी बख़्शने वाले मेहरबान की तरफ़ से{32}
(16) यानी जन्नत में वह करामात  नेअमत और लज़्ज़त.

41 सूरए हामीम सज्दा – पांचवाँ रूकू

41 सूरए हामीम सज्दा – पांचवाँ रूकू

وَمَنْ أَحْسَنُ قَوْلًا مِّمَّن دَعَا إِلَى اللَّهِ وَعَمِلَ صَالِحًا وَقَالَ إِنَّنِي مِنَ الْمُسْلِمِينَ
وَلَا تَسْتَوِي الْحَسَنَةُ وَلَا السَّيِّئَةُ ۚ ادْفَعْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ فَإِذَا الَّذِي بَيْنَكَ وَبَيْنَهُ عَدَاوَةٌ كَأَنَّهُ وَلِيٌّ حَمِيمٌ
وَمَا يُلَقَّاهَا إِلَّا الَّذِينَ صَبَرُوا وَمَا يُلَقَّاهَا إِلَّا ذُو حَظٍّ عَظِيمٍ
وَإِمَّا يَنزَغَنَّكَ مِنَ الشَّيْطَانِ نَزْغٌ فَاسْتَعِذْ بِاللَّهِ ۖ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ
وَمِنْ آيَاتِهِ اللَّيْلُ وَالنَّهَارُ وَالشَّمْسُ وَالْقَمَرُ ۚ لَا تَسْجُدُوا لِلشَّمْسِ وَلَا لِلْقَمَرِ وَاسْجُدُوا لِلَّهِ الَّذِي خَلَقَهُنَّ إِن كُنتُمْ إِيَّاهُ تَعْبُدُونَ
فَإِنِ اسْتَكْبَرُوا فَالَّذِينَ عِندَ رَبِّكَ يُسَبِّحُونَ لَهُ بِاللَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَهُمْ لَا يَسْأَمُونَ ۩
وَمِنْ آيَاتِهِ أَنَّكَ تَرَى الْأَرْضَ خَاشِعَةً فَإِذَا أَنزَلْنَا عَلَيْهَا الْمَاءَ اهْتَزَّتْ وَرَبَتْ ۚ إِنَّ الَّذِي أَحْيَاهَا لَمُحْيِي الْمَوْتَىٰ ۚ إِنَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
إِنَّ الَّذِينَ يُلْحِدُونَ فِي آيَاتِنَا لَا يَخْفَوْنَ عَلَيْنَا ۗ أَفَمَن يُلْقَىٰ فِي النَّارِ خَيْرٌ أَم مَّن يَأْتِي آمِنًا يَوْمَ الْقِيَامَةِ ۚ اعْمَلُوا مَا شِئْتُمْ ۖ إِنَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بِالذِّكْرِ لَمَّا جَاءَهُمْ ۖ وَإِنَّهُ لَكِتَابٌ عَزِيزٌ
لَّا يَأْتِيهِ الْبَاطِلُ مِن بَيْنِ يَدَيْهِ وَلَا مِنْ خَلْفِهِ ۖ تَنزِيلٌ مِّنْ حَكِيمٍ حَمِيدٍ
مَّا يُقَالُ لَكَ إِلَّا مَا قَدْ قِيلَ لِلرُّسُلِ مِن قَبْلِكَ ۚ إِنَّ رَبَّكَ لَذُو مَغْفِرَةٍ وَذُو عِقَابٍ أَلِيمٍ
وَلَوْ جَعَلْنَاهُ قُرْآنًا أَعْجَمِيًّا لَّقَالُوا لَوْلَا فُصِّلَتْ آيَاتُهُ ۖ أَأَعْجَمِيٌّ وَعَرَبِيٌّ ۗ قُلْ هُوَ لِلَّذِينَ آمَنُوا هُدًى وَشِفَاءٌ ۖ وَالَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ فِي آذَانِهِمْ وَقْرٌ وَهُوَ عَلَيْهِمْ عَمًى ۚ أُولَٰئِكَ يُنَادَوْنَ مِن مَّكَانٍ بَعِيدٍ

और उससे ज़्यादा किसकी बात अच्छी जो अल्लाह की तरफ़ बुलाए(1)
(1) उसकी तौहीद और इबादत की तरफ़. कहा गया हे कि इस दावत देने वाले से मुराद हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हैं और यह भी कहा गया है कि वह मूमिन मुराद है जिसने नबी अलैहिस्सलातो वसल्लाम की दावत को क़ुबूल किया और दूसरों को नेकी की दावत दी.

और नेकी करे(2)
(2) हज़रत आयशा रदियल्लाहो अन्हा ने फ़रमाया, मेरे नज़्दीक़ यह आयत मुअज़्ज़िनों के हक़ में उतरी और एक क़ौल यह भी है कि जो कोई किसी तरीक़े पर भी अल्लाह तआला की तरफ़ दावत दे, वह इसमें दाख़िल हैं अल्लाह तआला की तरफ़ दावत के कई दर्जे हैं. अव्वल नबियों की दावत, चमत्कारों और हुज्जतों और दलीलों और तलवार के साथ. यह दर्जा नबियों के साथ ख़ास है. दूसरी दावत उलमा की, फ़क़त हुज्जतों और प्रमाणों के साथ. और उलमा कई तरह के हैं एक आलिम बिल्लाह, दूसरे आलिम बिसिफ़ातिल्लाह, तीसरे आलिम बिअहकामिल्लाह. तीसरा दर्जा मुजाहिदीन की दावत का है, यह काफ़िरों को तलवार के साथ होती है. यहाँ तक कि वो दीन में दाख़िल हों और ताअत क़ुबूल कर लें. चौथा दर्जा मुअज़्ज़िनों की दावत नमाज़ के लिये. नेक कर्मों की दो क़िस्म है एक वह जो दिल से हो, वह मअरिफ़ते इलाही है. दूसरे जो शरीर से हो, वो तमाम ताअतें हैं.

और कहे मैं मुसलमान हूँ (3) {33}
(3) और यह फ़क़त क़ौल न हो बल्कि इस्लाम को दिल से मान कर कहे कि सच्चा कहना यही है.

और नेकी और बदी बराबर न हो जाएंगी ऐ सुनने वाले, बुराई को भलाई से टाल (4)
(4) मिसाल के तौर पर ग़ुस्से को सब्र से और जिहालत को हिल्म से और दुर्व्यवहार को माफ़ी से, कि अगर तेरे साथ कोई बुराई करे तो तू माफ़ कर.

जभी वह कि तुझ में और उसमें दुश्मनी थी ऐसा हो जाएगा जैसा कि गहरा दोस्त (5){34}
(5) यानी इस ख़सलत का नतीजा यह होगा कि दुश्मन दोस्तों की तरह महब्बत करने लगेंगे. कहा गया है कि यह आयत अबू सुफ़ियान के हक़ में उतरी कि उनकी दुश्मनी की सख़्ती के बावुजूद नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनके साथ नेक व्यवहार किया. उनकी साहिबज़ादी को अपने निकाह में लिया. इसका नतीजा यह हुआ कि वह महब्बत में सच्चे और जाँ निसार हो गए.

और यह दौलत (6)
(6) यानी बदियों को नेकियों से दफ़ा करने की ख़सलत.

नहीं मिलती मगर साबिरों को, और इसे नहीं पाता मगर बड़े नसीब वाला {35} और अगर तुझे शैतान का कोई कौंचा (तकलीफ़) पहुंचे(7)
(7) यानी शैतान तुझ को बुराइयों पर उभारे और इस नेक ख़सलत से और इसके अलावा और नेकियों से फेर दे.

तो अल्लाह की पनाह मांग(8)
(8) उसके शर से और अपनी नेकियों पर क़ायम रह, शैतान की राह न इख़्तियार कर, अल्लाह तआला तेरी मदद फ़रमाएगा.

बेशक वही सुनता जानता है {36} और उसकी निशानियाँ में से हैं रात और दिन और सूरज और चांद (9)
(9) जो उसकी क़ुदरत और हिकमत और उसके रब होने और एक होने को प्रमाणित करते हैं.

सज्दा न करो सूरज को और न चांद को(10)
(10)  क्योंकि वो मख़लूक़ हैं और ख़ालिक़ के हुक्म के तहत हैं  और जो ऐसा हो वह इबादत का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता.

और अल्लाह को सज्दा करो जिसने उन्हें पैदा किया(11)
(11) वही सज्दा और इबादत का मुस्तहिक़ है.

अगर तुम उसके बन्दे हो {37} तो अगर ये घमण्ड करें (12)
(12) सिर्फ़ अल्लाह को सज्दा करने से.

तो वो जो तुम्हारे रब के पास हैं(13)
(13) फ़रिश्ते वो.

रात दिन उसकी पाकी बोलते हैं और उकताते नहीं {38} और उसकी निशानियों से हैं कि तू ज़मीन को देखे बेक़द्र पड़ी (14)
(14) सूखी कि उसमें सब्ज़े का नामों निशान नहीं.

फिर जब हमने उसपर पानी उतारा (15)
(15)बारिश उतारी.

तरो ताज़ा हुई और बढ़ चली, बेशक जिसने उसे जिलाया ज़रूर मुर्दे जिलाएगा, बेशक वह सब कुछ कर सकता है {39} बेशक वों जो हमारी आयतों में टेढ़े चलते हैं (16)
(16)और आयतों की व्याख्या में सेहत व इस्तिक़ामत से मुंह फेरते हैं.

हम से छुपे नहीं, (17)
(17)हम उन्हें इसकी सज़ा देंगे.

तो क्या आग में डाला जाएगा  (18)
(18) यानी काफ़िर, अल्लाह को न मानने वाले.

वह भला या जो क़यामत में अमान से आएगा  (19)
(19)सच्चे अक़ीदे और ईमान वाला, बेशक वही बेहतर है.

जो जी में आए करो बेशक वह तुम्हारे काम देख रहा है {40} बेशक जो ज़िक्र से मुन्किर हुए(20)
(20) यानी क़ुरआने करीम से और उन्हों ने उसमें बुराइयाँ निकालीं.

जब वह उनके पास आया उनकी ख़राबी का कुछ हाल न पूछ और बेशक यह इज़्ज़त वाली किताब है(21){41}
(21) बेमिसाल और अद्वितीय, जिसकी एक सूरत की तरह बनाने से सारी सृष्टि लाचार है.

बातिल को उसकी तरफ़ राह नहीं न उसके आगे से न उसके पीछे से(22)
(22) यानी किसी तरह और किसी तरीक़े से भी बातिल उस तक राह नहीं पा सकता. वह परिवर्तन और कमी बेशी से मेहफ़ूज़ है. शैतान उसमें बढ़ाने घटाने की क़ुदरत नहीं रखता.

उतारा हुआ है हिकमत (बोध) वाले सब ख़ूबियों सराहे का {42} तुम से न फ़रमाया जाएगा (23)
(23) अल्लाह तआला की तरफ़ से.

मगर वही जो तुम से अगले रसूलों को फ़रमाया गया, कि बेशक तुम्हारा रब बख़्शिश वाला(24)
(24) अपने नबियों के लिये और उन पर ईमान लाने वालों के लिये.

और दर्दनाक अज़ाब वाला है(25) {43}
(25) नबियों के दुश्मनों और झुटलाने वालों के लिये.

और अगर हम इसे अजमी ज़बान का क़ुरआन करते (26)
(26) जैसा कि काफ़िर ऐतिराज़ के तौर पर कहते हैं कि यह क़ुरआन अजमी ज़बान में क्यों न उतरा.

तो ज़रूर कहते कि इसकी आयतें क्यों न खोली गई(27)
(27) और अरबी ज़बान में बयान न की गई कि हम समझ सकते.

क्या किताब अजमी और नबी अरबी(28)
(28) यानी किताब नबी की ज़बान के ख़िलाफ़ क्यों उतरी. हासिल यह है कि क़ुरआने पाक अजमी ज़बान में होता तो ऐतिराज़ करते, अरबी में आया तो ऐतिराज़ करने लगे. बात यह है कि बुरी ख़सलत वाले के लिये हज़ार बहाने. ऐसे ऐतिराज़ सच्चाई की तलब करने वाले की शान के लायक़ नहीं.

तुम फ़रमाओ वह(29)
(29) क़ुरआन शरीफ़.

ईमान वालों के लिये हिदायत और शिफ़ा है(30)
(30) कि हक़ की राह बताता है, गुमराही से बचाता है, जिहालत और शक वग़ैरह दिल की बीमारियों से शिफ़ा देता है और शारीरिक रोगों के लिये भी इसका पढ़कर दम करना बीमारी के लिये असर कारक है.

और वो जो ईमान नहीं लाते उनके कानों में टैंट (रूई) है (31)
(31) कि वो क़ुरआने पाक सुनने की नेअमत से मेहरूम हैं.

और वह उनपर अन्धापन है(32)
(32) कि शक और शुबह की अंधेरियों में जकड़े हुए हैं.

मानो वो दूर जगह से पुकारे जाते हैं(33) {44}
(33) यानी वो अपने इन्कार से इस हालत को पहुंच गए हैं जैसा कि किसी को दूर से पुकारा जाए तो वह पुकारने वाले की बात न सुने, न समझे.

41 सूरए हामीम सज्दा – छटा रूकू

41 सूरए हामीम सज्दा – छटा रूकू

وَلَقَدْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ فَاخْتُلِفَ فِيهِ ۗ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ ۚ وَإِنَّهُمْ لَفِي شَكٍّ مِّنْهُ مُرِيبٍ
مَّنْ عَمِلَ صَالِحًا فَلِنَفْسِهِ ۖ وَمَنْ أَسَاءَ فَعَلَيْهَا ۗ وَمَا رَبُّكَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيدِ
۞ إِلَيْهِ يُرَدُّ عِلْمُ السَّاعَةِ ۚ وَمَا تَخْرُجُ مِن ثَمَرَاتٍ مِّنْ أَكْمَامِهَا وَمَا تَحْمِلُ مِنْ أُنثَىٰ وَلَا تَضَعُ إِلَّا بِعِلْمِهِ ۚ وَيَوْمَ يُنَادِيهِمْ أَيْنَ شُرَكَائِي قَالُوا آذَنَّاكَ مَا مِنَّا مِن شَهِيدٍ
وَضَلَّ عَنْهُم مَّا كَانُوا يَدْعُونَ مِن قَبْلُ ۖ وَظَنُّوا مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٍ
لَّا يَسْأَمُ الْإِنسَانُ مِن دُعَاءِ الْخَيْرِ وَإِن مَّسَّهُ الشَّرُّ فَيَئُوسٌ قَنُوطٌ
وَلَئِنْ أَذَقْنَاهُ رَحْمَةً مِّنَّا مِن بَعْدِ ضَرَّاءَ مَسَّتْهُ لَيَقُولَنَّ هَٰذَا لِي وَمَا أَظُنُّ السَّاعَةَ قَائِمَةً وَلَئِن رُّجِعْتُ إِلَىٰ رَبِّي إِنَّ لِي عِندَهُ لَلْحُسْنَىٰ ۚ فَلَنُنَبِّئَنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بِمَا عَمِلُوا وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنْ عَذَابٍ غَلِيظٍ
وَإِذَا أَنْعَمْنَا عَلَى الْإِنسَانِ أَعْرَضَ وَنَأَىٰ بِجَانِبِهِ وَإِذَا مَسَّهُ الشَّرُّ فَذُو دُعَاءٍ عَرِيضٍ
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِن كَانَ مِنْ عِندِ اللَّهِ ثُمَّ كَفَرْتُم بِهِ مَنْ أَضَلُّ مِمَّنْ هُوَ فِي شِقَاقٍ بَعِيدٍ
سَنُرِيهِمْ آيَاتِنَا فِي الْآفَاقِ وَفِي أَنفُسِهِمْ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَهُمْ أَنَّهُ الْحَقُّ ۗ أَوَلَمْ يَكْفِ بِرَبِّكَ أَنَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدٌ
أَلَا إِنَّهُمْ فِي مِرْيَةٍ مِّن لِّقَاءِ رَبِّهِمْ ۗ أَلَا إِنَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُّحِيطٌ

और बेशक हमने मूसा को किताब अता फ़रमाई(1)
(1) यानी पवित्र तौरात.

तो उसमें इख़्तिलाफ़ किया गया(2)
(2) कुछ ने उसको माना और कुछ ने  न माना. कुछ ने इसकी तस्दीक़ की और कुछ ने इसे झुटलाया.

और अगर एक बात तुम्हारे रब की तरफ़ से गुज़र न चुकी होती (3)
(3) यानी हिसाब और जज़ा को क़यामत तक विलम्बित न फ़रमा दिया होता.

तो जभी उनका फै़सला हो जाता (4)
(4) और दुनिया ही में उन्हें उसकी सज़ा दे दी जाती.

और बेशक वो (5)
(5) यानी अल्लाह की किताब को झुटलाने वाले.

ज़रूर उसकी तरफ़ से एक धोखा डालने वाले शक में हैं {45} जो नेकी करे वह अपने भले को और जो बुराई करे तो अपने बुरे को, और तुम्हारा रब बन्दों पर ज़ुल्म नहीं करता{46}

पारा चौबीस समाप्त

पच्चीसवाँ पारा-इलैहि युरहु
सूरए हामीम सज्दा
(छटा रूकू जारी)

क़यामत के इल्म का उसी पर हवाला है(6)
(6) तो जिससे क़यामत का वक़्त पूछा जाए उसको लाज़िम है कि कहे, अल्लाह तआला जानने वाला है.

और कोई फ़ल अपने ग़लाफ़ से नहीं निकलता और न किसी मादा को पेट रहे और न जने मगर उसके इल्म से(7)
(7) यानी अल्लाह तआला फल के ग़लाफ़ से निकलने से पहले उसकी हालतों को जानता है, और मादा के गर्भ को और उसकी घड़ियों को और पैदायश के वक़्त को और उसके बुरे और अच्छे और नर व मादा होने सब को जानता है. इसका इल्म भी उसी की तरफ़ हवाले करना चाहिये. अगर यह ऐतिराज़ किया जाए कि अल्लाह के वली और छुपी बातें जानने वाले लोग अक्सर इन बातों की ख़बर देते हैं और वह दुरूस्त साबित होती हैं बल्कि कभी ज्यातिषी और तांत्रिक भी ख़बर देते हैं. इसका जवाब यह है कि ज्योतिषियों और तांत्रिकों की बातें मात्र अटकल होती हैं जो बहुधा ग़लत हो जाती हैं, वह इल्म ही नहीं, बेहक़ीक़त बातें हैं. और अल्लाह के वलियों की ख़बरें बेशक सही होती हैं और वो इल्म से फ़रमाते हैं और यह इल्म उनका ज़ाती नहीं, अल्लाह तआला का अता फ़रमाया हुआ है तो हक़ीक़त में यह उसी का इल्म हुआ, ग़ैर का नहीं (ख़ाज़िन)

और जिस दिन उन्हें निदा फ़रमाएगा(8)
(8) यानी अल्लाह तआला मुश्रिकों से फ़रमाएगा कि—-

कहाँ हैं मेरे शरीक (9)
(9) जो तुमने दुनिया में घड़ रखे थे जिन्हें तुम पूजा करते थे. इसके जवाब में मुश्रिक लोग—

कहेंगे हम तुझसे कह चुके कि हम में कोई गवाह नहीं(10){47}
(10) जो आज यह झूठी गवाही दे कि तेरा कोई शरीक है यानी हम सब ईमान वाले एक ख़ुदा में यक़ीन रखने वाले हैं. ये मुश्रिक लोग अज़ाब देखकर कहेंगे और अपने बुतों से बेज़ारी ज़ाहिर करेंगे.

और गुम गया उनसे जिसे पहले पूजते थे(11)
(11)  दुनिया में, यानी बुत.

और समझ लिये कि उन्हें कहीं(12)
(12) अल्लाह के अज़ाब से बचने, और.

भागने की जगह नहीं {48} आदमी भलाई मांगने से नहीं उकताता (13)
(13) हमेशा अल्लाह तआला से माल और ख़ुशहाली और तंदुरूस्ती मांगता रहता है.

और कोई बुराई पहुंचे(14)
(14) यानी कोई सख़्ती और बला और रोज़ी की तंगी.

तो ना उम्मीद आस टूटा(15) {49}
(15) अल्लाह तआला के फ़ज़्ल और रहमत से निराश हो जाता है. यह और इसके बाद जो ज़िक्र फ़रमाया जाता है वह काफ़िर का हाल है. मूमिन अल्लाह तआला की रहमत से मायूस नहीं होते.

और अगर हम उसे कुछ अपनी रहमत का मज़ा दें(16)
(16) सेहत व सलामती और माल दौलत अता फ़रमाकर.

उस तकलीफ़ के बाद जो उसे पहुंची थी तो कहेगा यह तो मेरी है(17)
(17)ख़ालिस मेरा हक़ है, मैं अपने अमल से इसका मुस्तहिक हूँ.

और मेरे गुमान में क़यामत क़ायम न होगी अगर(18)
(18) बिलफ़र्ज़ जैसा कि मुसलमान कहते हैं.

मैं रब की तरफ़ लौटाया भी गया तो ज़रूर मेरे लिए उसके पास भी ख़ूबी ही है(19)
(19) यानी वहां भी मेरे लिये दुनिया की तरह ऐश और राहत, इज़्ज़त और बुज़ुर्गी है.

तो ज़रूर हम बता देंगे काफ़िरों को जो उन्हों ने किया (20)
(20) यानी उनके कुकर्म और उनके दुष्कर्म के परिणाम, और जिस अज़ाब के वो मुस्तहिक़  हैं, उससे उन्हें आगाह कर देंगे.

तो ज़रूर उन्हें गाढ़ा अज़ाब चखाएंगे(21){50}
(21) यानी अत्यन्त सख़्त.

और जब हम आदमी पर एहसान करते हैं तो मुंह फेर लेता है(22)
(22) और इस एहसान का शुक्र बजा नहीं लाता और इस नेअमत पर इतराता है और नेअमत देने वाले परवरदिगार को भूल जाता है.

और अपनी तरफ़ दूर हट जाता है(23)
(23) अल्लाह की याद से घमण्ड करता है.

और जब उसे तकलीफ़ पहुंचती है(24)
(24) किसी क़िस्म की परेशानी, बीमारी या नादारी वग़ैरह पेश आती है.

तो चौड़ी दुआ वाला है (25) {51}
(25) ख़ूब दुआएं करता है, रोता है, गिड़गिड़ता है, और लगातार दुआएं मांगे जाता है.

तुम फ़रमाओ (26)
(26) ऐ मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, मक्के के काफ़िरों से.

भला बताओ अगर यह क़ुरआन अल्लाह के पास से है(27)
(27) जैसा कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़रमाते हैं और साफ़ ख़ुली दलीलें साबित करती हैं.

फिर तुम इसके मुन्किर हुए तो उससे बढ़कर गुमराह कौन जो दूर की ज़िद में है(28){52}
(28) सच्चाई का विरोध करता है.

अभी हम उन्हें दिखाएंगे अपनी आयतें दुनिया भर में(29)
(29) आसमान व ज़मीन घेरों में. सूरज चांद सितारे पेड़ पौधे जानवर. ये सब उसकी क़ुदरत और हिकमत को प्रमाणित करने वाले हैं. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि इन आयतों से मुराद गुज़री हुई उम्मतों की उजड़ी हुई बस्तियाँ हैं जिनसे नबियों को झुटलाने वालों का हाल मालूम होता है. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि इन निशानियों से पूर्व और पश्चिम की वो विजयें मुराद हैं जो अल्लाह तआला अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और उनके साथियों को बहुत जल्द अता फ़रमाने वाला है.

और ख़ुद उनके आपे में (30)
(30) उनकी हस्तियों में लाखों अनोखी बारीकियों और अनगिनत चमत्कार हैं. या ये मानी हैं कि बद्र में काफ़िर मग़लूब व मक़हूर करके ख़ुद उनके अपने हालात में अपनी निशानियों का अवलोकन करा दिया. या ये मानी हैं कि मक्का फ़त्ह फ़रमाकर उनमे अपनी निशानियाँ ज़ाहिर कर देंगे.

यहाँ तक कि उनपर खुल जाए कि बेशक वह हक़ है(31)
(31) यानी इस्लाम और क़ुरआन की सच्चाई उन पर ज़ाहिर हो जाए.

क्या तुम्हारे रब का हर चीज़ पर गवाह होना काफ़ी नहीं {53} सुना उन्हें ज़रूर अपने रब से मिलने से शक है  (32)
(32)क्योंकि वो दोबारा उठाए जाने और क़यामत को नहीं मानते.

सुनो वह हर चीज़ को घेरे है (33) {54}
(33) कोई चीज़ उसके इल्म के घेरे से बाहर नहीं और उसकी मालूमात असीम है.

How useful was this post?

Click on a star to rate it!

Average rating / 5. Vote count:

No votes so far! Be the first to rate this post.

We are sorry that this post was not useful for you!

Let us improve this post!

Tell us how we can improve this post?

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top