छब्बीसवाँ पारा – हा मीम
46 सूरए अहक़ाफ़ – पहला रूकू
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
حم
تَنزِيلُ الْكِتَابِ مِنَ اللَّهِ الْعَزِيزِ الْحَكِيمِ
مَا خَلَقْنَا السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَا إِلَّا بِالْحَقِّ وَأَجَلٍ مُّسَمًّى ۚ وَالَّذِينَ كَفَرُوا عَمَّا أُنذِرُوا مُعْرِضُونَ
قُلْ أَرَأَيْتُم مَّا تَدْعُونَ مِن دُونِ اللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُوا مِنَ الْأَرْضِ أَمْ لَهُمْ شِرْكٌ فِي السَّمَاوَاتِ ۖ ائْتُونِي بِكِتَابٍ مِّن قَبْلِ هَٰذَا أَوْ أَثَارَةٍ مِّنْ عِلْمٍ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ
وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّن يَدْعُو مِن دُونِ اللَّهِ مَن لَّا يَسْتَجِيبُ لَهُ إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ وَهُمْ عَن دُعَائِهِمْ غَافِلُونَ
وَإِذَا حُشِرَ النَّاسُ كَانُوا لَهُمْ أَعْدَاءً وَكَانُوا بِعِبَادَتِهِمْ كَافِرِينَ
وَإِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ آيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ قَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُمْ هَٰذَا سِحْرٌ مُّبِينٌ
أَمْ يَقُولُونَ افْتَرَاهُ ۖ قُلْ إِنِ افْتَرَيْتُهُ فَلَا تَمْلِكُونَ لِي مِنَ اللَّهِ شَيْئًا ۖ هُوَ أَعْلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِ ۖ كَفَىٰ بِهِ شَهِيدًا بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ ۖ وَهُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ
قُلْ مَا كُنتُ بِدْعًا مِّنَ الرُّسُلِ وَمَا أَدْرِي مَا يُفْعَلُ بِي وَلَا بِكُمْ ۖ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰ إِلَيَّ وَمَا أَنَا إِلَّا نَذِيرٌ مُّبِينٌ
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِن كَانَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَكَفَرْتُم بِهِ وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّن بَنِي إِسْرَائِيلَ عَلَىٰ مِثْلِهِ فَآمَنَ وَاسْتَكْبَرْتُمْ ۖ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ
सूरए अहक़ाफ़ मक्का में उतरी, इसमें 35 आयतें, चार रूकू हैं.
-पहला रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए अहक़ाफ़ मक्का में उतरी मगर कुछ के नज़्दीक इसकी कुछ आयतें मदनी हैं जैसे कि आयत ” क़ुल अरएतुम” और “फ़स्बिर कमा सबरा” और तीन आयतें “ववस्सैनल इन्साना बिवालिदैहे”. इस सूरत में चार रूकू, पैंतीस आयतें, छ सौ चवालीस कलिमे और दो हज़ार पाँच सौ पचानवे अक्षर हैं.
हा-मीम {1} यह किताब (2)
(2) यानी क़ुरआन शरीफ़
उतारना है अल्लाह इज़्ज़त व हिकमत (बोध) वाले की तरफ़ से {2} हमने न बनाए आसमान और ज़मीन और जो कुछ इन के बीच है मगर हक़ के साथ(3)
(3) कि हमारी क़ुदरत और एक होने के प्रमाणित करें.
और एक मुक़र्रर (निश्चित) मीआद पर (4)
(4) वह निश्चित अवधि क़यामत का दिन है जिस के आ जाने पर आसमान और ज़मीन नष्ट हो जाएंगे.
और काफ़िर उस चीज़ से कि डराए गए (5)
(5) इस चीज़ से मुराद या अज़ाब है या क़यामत के दिन की घबराहट या क़ुरआने पाक जो मरने के बाद उठाए जाने और हिसाब का डर दिलाता है.
मुंह फेरे हैं(6){3}
(6) कि उस पर ईमान नहीं लाते.
तुम फ़रमाओ भला बताओ तो वो जो तुम अल्लाह के सिवा पूजते हो(7)
(7) यानी बुत जिन्हे मअबूद ठहराते हो.
मुझे दिखाओ उन्होंने ज़मीन का कौन सा ज़र्रा (कण) बनाया या आसमान में उनका कोई हिस्सा है, मेरे पास लाओ इससे पहली कोई किताब (8)
(8) जो अल्लाह तआला ने क़ुरआन से पहले उतारी हो. मुराद यह है कि वह किताब यानी क़ुरआने मजीद तौहीद की सच्चाई और शिर्क के बातिल होने का बयान करती है और जो किताब भी इससे पहले अल्लाह तआला की तरफ़ से आई उसमें यही बयान है. तुम अल्लाह तआला की किताबों में से कोई एक किताब तो ऐसी ले आओ जिसमें तुम्हारे दीन (बुत-परस्ती) की गवाही हो.
या कुछ बचा खुचा इल्म(9)
(9) पहलों का.
अगर तुम सच्चे हो(10){4}
(10) अपने इस दावे में कि ख़ुदा का कोई शरीक है जिसकी इबादत का उसने तुम्हें हुक्म दिया है.
औऱ उससे बढ़कर कौन गुमराह जो अल्लाह के सिवा ऐसो को पूजे(11)
(11) यानी बुतों को.
जो क़यामत तक उसकी न सुनें और उन्हें उनकी पूजा की ख़बर तक नहीं(12){5}
(12) क्योंकि वो पत्थर और बेजान है.
और जब लोगों का हश्र होगा वो उनके दुश्मन होंगे(13)
(13) यानी बुत, अपने पुजारियों के.
और उनसे इन्कारी हो जाएंगे(14){6}
(14) और कहेंगे कि हमने उन्हें अपनी इबादत की दावत नहीं दी. अस्ल में ये अपनी ख़्वाहिशों के पुजारी थे.
और जब उनपर(15)
(15) यानी मक्के वालों पर.
पढ़ी जाएं हमारी रौशन आयतें तो काफ़िर अपने पास आए हुए हक़ को(16)
(16)यानी क़ुरआन शरीफ़ को बग़ैर ग़ौरो फ़िक्र किये और अच्छी तरह सुने.
कहते हैं यह खुला जादू है(17){7}
(17) कि इसके जादू होने में शुबह नहीं और इससे भी बुरी बात कहते हैं जिसका आगे बयान है.
क्या कहते हैं उन्होंने उसे जी से बनाया (18)
(18) यानी सैयदे आलम मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने.
तुम फ़रमाओ अगर मैं ने उसे जी से बना लिया होगा तो तुम अल्लाह के सामने मेरा कुछ इख़्तियार नहीं रखते (19)
(19) यानी अगर फ़र्ज़ करो मैं दिल से बनाता और उसको अल्लाह तआला का कलाम बताता तो वह अल्लाह तआला पर लांछन होता और अल्लाह तआला ऐसे लांछन लगाने वाले को जल्द मुसीबत और अज़ाब में गिरफ़्तार करता है. तुम्हें तो यह क़ुदरत नहीं कि तुम उसके बज़ाब से बचा सको या उसके अज़ाब को दूर कर सको तो किस तरह हो सकता है कि मैं तुम्हारी वजह से अल्लाह तआला पर झूट बोलता.
वह ख़ूब जानता है जिन बातों में तुम मश्ग़ूल हो(20)
(20)और जो कुछ क़ुरआने पाक की निस्बत कहते हो.
और वह काफ़ी है मेरे और तुम्हारे बीच गवाह और वह बख़्शने वाला मेहरबान है(21){8}
(21) यानी अगर तूम कुफ़्र से तौबह करके ईमान लाओ तो अल्लाह तआला तुम्हारी मग़फ़िरत फ़रमाएगा. और तुम पर रहमत करेगा.
तुम फ़रमाओ मैं कोई अनोखा रसूल नहीं(22)
(22) मुझसे पहले भी रसूल आ चुके हैं तो तुम क्यों नबुव्वत का इन्कार करते हो.
और मैं नहीं जानता मेरे साथ क्या किया जाएगा और तुम्हारे साथ क्या(23)
(23) इसके मानी में मुफ़स्सिरों के कुछ क़ौल हैं एक तो यह कि क़यामत में जो मेरे और तुम्हारे साथ किया जाएगा वह मुझे मालूम नहीं. यह मानी हों तो यह आयत मन्सूख़ है. रिवायत है कि जब यह आयत नाज़िल हुई तो मुश्रिक ख़ुश हुए और कहने लगे लात और उज़्ज़ा की क़सम, अल्लाह के नज़्दीक हमारा और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) का एक सा हाल है. उन्हें हम पर कुछ फ़ज़ीलत नहीं. अगर यह क़ुरआन उनका अपना बनाया हुआ न होता तो उनका भेजने वाला उन्हें ज़रूर ख़बर देता कि उनके साथ क्या करेगा. तो अल्लाह तआला ने आयत “लियग़फ़िरा तकल्लाहो मा तक़द्दमा मिन ज़ंबिका वमा तअख़्ख़रा” यानी ताकि अल्लाह तुम्हारे कारण से गुनाह बख़्शे तुम्हारे अगलों के और तुम्हारे पिछलों के और अपनी नेअमतें तुमपर पूरी कर दे. (सूरए फ़त्ह, आयत 2) नाज़िल फ़रमाई. सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, हुज़ूर को मुबारक हो आपको मालूम हो गया कि आप के साथ क्या किया जाएगा. यह इन्तिज़ार है कि हमारे साथ क्या करेगा. इसपर अल्लाह ने यह आयत उतारी “लियुदख़िलल मूमिनीना वल मूमिनाते जन्नातिन तजरी मिन तहतिहल अन्हारो” यानि ताकि ईमान वाले मर्दो और ईमान वाली औरतों को बाग़ों में ले जाए जिनके नीचे नहरें बहें हमेशा उनमें रहें. (सूरए फ़त्ह, आयत 5) और यह आयत उतरी “बश्शिरिल मूमिनीना बिअन्ना लहुम मिनल्लाहे फ़दलन कबीरा” यानी और ईमान वालो को ख़ुशख़बरी दो कि उनके लिये अल्लाह का बड़ा फ़ज़्ल है. (सूरए अहज़ाब, आयत 47) तो अल्लाह तआला ने बयान फ़रमाया कि हुज़ूर के साथ क्या करेगा और मूमिनीन के साथ क्या. दूसरा क़ौल आयत की तफ़सीर में यह है कि आख़िर का हाल तो हुज़ूर को अपना भी मालूम है और मूमिनीन का भी और झूठलाने वालों का भी. मानी ये हैं कि दुनिया में क्या किया जाएगा, यह नहीं मालूम. अगर ये मानी लिये जाएं तो भी यह आयत मन्सूख़ है, अल्लाह तआला ने हुज़ूर को यह भी बता दिया “लियुज़हिरहू अलद दीने कुल्लिही” कि उसे सब दीनों पर ग़ालिब करे. (सूरए तौबह, आयत 33) और “माकानल्लाहो लियुअज्ज़िबहुम व अन्ता फ़ीहिम” यानी जबतक ऐ मेहबूब, तुम उनमें तशरीफ़ फ़रमा हो और अल्लाह उन्हें अज़ाब करने वाला नहीं. (सूरए अनफ़ाल, आयत 33) बहरहाल अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हुज़ूर के साथ और हुज़ूर की उम्मत के साथ पेश आने वाले उमूर पर मुत्तला फ़रमा दिया चाहे वो दुनिया के हों या आख़िरत के और अगर “दरायत” अक़्ल से जानने के अर्थ में लिया जाए तो मज़मून और भी ज़्यादा साफ़ है और आयत का इसके बाद वाला वाक्य इसकी पुष्टि करता है. अल्लामा नीशापुरी ने इस आयत के अन्तर्गत फ़रमाया कि इसमें नफ़ी अपनी ज़ात से जानने की है, वही के ज़रिये जानने का इन्कार नहीं है.
मैं तो उसी का ताबेअ हूँ जो मुझे वही होती है(24)
(24) यानी मैं जो कुछ जानता हूँ अल्लाह तआला की तालीम से जानता हूँ.
और मैं नहीं मगर साफ़ डर सुनाने वाला {9} तुम फ़रमाओ भला देखो तो अगर वह क़ुरआन अल्लाह के पास से हो और तुम ने उसका इन्कार किया और बनी इस्राईल का एक गवाह(25)
(25) वह हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम हैं जो नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाए और आपकी नबुव्वत की सच्चाई की गवाही दी.
उस पर गवाही दे चुका(26)
(26) कि वह क़ुरआन अल्लाह तआला की तरफ़ से है.
तो वह ईमान लाया और तुमने घमण्ड किया(27)
(27) और ईमान से मेहरूम रहे तो इसका नतीजा क्या होता है.
बेशक अल्लाह राह नहीं देता ज़ालिमों को{10}
46 सूरए अहक़ाफ़ – दूसरा रूकू
وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آمَنُوا لَوْ كَانَ خَيْرًا مَّا سَبَقُونَا إِلَيْهِ ۚ وَإِذْ لَمْ يَهْتَدُوا بِهِ فَسَيَقُولُونَ هَٰذَا إِفْكٌ قَدِيمٌ
وَمِن قَبْلِهِ كِتَابُ مُوسَىٰ إِمَامًا وَرَحْمَةً ۚ وَهَٰذَا كِتَابٌ مُّصَدِّقٌ لِّسَانًا عَرَبِيًّا لِّيُنذِرَ الَّذِينَ ظَلَمُوا وَبُشْرَىٰ لِلْمُحْسِنِينَ
إِنَّ الَّذِينَ قَالُوا رَبُّنَا اللَّهُ ثُمَّ اسْتَقَامُوا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ
أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ خَالِدِينَ فِيهَا جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ
وَوَصَّيْنَا الْإِنسَانَ بِوَالِدَيْهِ إِحْسَانًا ۖ حَمَلَتْهُ أُمُّهُ كُرْهًا وَوَضَعَتْهُ كُرْهًا ۖ وَحَمْلُهُ وَفِصَالُهُ ثَلَاثُونَ شَهْرًا ۚ حَتَّىٰ إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُ وَبَلَغَ أَرْبَعِينَ سَنَةً قَالَ رَبِّ أَوْزِعْنِي أَنْ أَشْكُرَ نِعْمَتَكَ الَّتِي أَنْعَمْتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَالِدَيَّ وَأَنْ أَعْمَلَ صَالِحًا تَرْضَاهُ وَأَصْلِحْ لِي فِي ذُرِّيَّتِي ۖ إِنِّي تُبْتُ إِلَيْكَ وَإِنِّي مِنَ الْمُسْلِمِينَ
أُولَٰئِكَ الَّذِينَ نَتَقَبَّلُ عَنْهُمْ أَحْسَنَ مَا عَمِلُوا وَنَتَجَاوَزُ عَن سَيِّئَاتِهِمْ فِي أَصْحَابِ الْجَنَّةِ ۖ وَعْدَ الصِّدْقِ الَّذِي كَانُوا يُوعَدُونَ
وَالَّذِي قَالَ لِوَالِدَيْهِ أُفٍّ لَّكُمَا أَتَعِدَانِنِي أَنْ أُخْرَجَ وَقَدْ خَلَتِ الْقُرُونُ مِن قَبْلِي وَهُمَا يَسْتَغِيثَانِ اللَّهَ وَيْلَكَ آمِنْ إِنَّ وَعْدَ اللَّهِ حَقٌّ فَيَقُولُ مَا هَٰذَا إِلَّا أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ
أُولَٰئِكَ الَّذِينَ حَقَّ عَلَيْهِمُ الْقَوْلُ فِي أُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِن قَبْلِهِم مِّنَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ ۖ إِنَّهُمْ كَانُوا خَاسِرِينَ
وَلِكُلٍّ دَرَجَاتٌ مِّمَّا عَمِلُوا ۖ وَلِيُوَفِّيَهُمْ أَعْمَالَهُمْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ
وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِينَ كَفَرُوا عَلَى النَّارِ أَذْهَبْتُمْ طَيِّبَاتِكُمْ فِي حَيَاتِكُمُ الدُّنْيَا وَاسْتَمْتَعْتُم بِهَا فَالْيَوْمَ تُجْزَوْنَ عَذَابَ الْهُونِ بِمَا كُنتُمْ تَسْتَكْبِرُونَ فِي الْأَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَبِمَا كُنتُمْ تَفْسُقُونَ
और काफ़िरों ने मुसलमानों को कहा आग उसमें(1)
(1) यानी दीने मुहम्मदी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम में.
कुछ भलाई होती तो ये (2)
(2) ग़रीब लोग.
हमसे आगे उस तक न पहुंच जाते(3)
(3) यह आयत मक्के के मुश्रिकों के बारे में उतरी जो कहते थे कि अगर दीने मुहम्मदी सच्चा होता तो फ़लाँ और फ़लाँ उसका हम से पहले कैसे क़ुबूल कर लेते.
और जब उन्हें उसकी हिदायत न हुई तो अब (4)
(4) दुश्मनी से, क़ुरआन शरीफ़ की निस्बत.
कहेंगे कि यह पुराना बोहतान {11} और इससे पहले मूसा की किताब (5)
(5) तौरात.
है पेशवा और मेहरबानी, और यह किताब है तस्दीक़ (पुष्टि) फ़रमाती(6)
(6) पहली किताबों की.
अरबी ज़बान में कि ज़ालिमों को डर सुनाए, और नेकों को बशारत {12} बेशक वो जिन्होंने कहा हमारा रब अल्लाह है फिर साबित क़दम रहे (डटे रहे)(7)
(7) अल्लाह तआला की तौहीद सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शरीअत पर आख़िरी दम तक.
न उनपर ख़ौफ़(8)
(8) क़यामत में.
न उनको ग़म(9){13}
(9) मौत के वक़्त.
वो जन्नत वाले हैं हमेशा उसमें रहेंगे, उनके कर्मों का इनाम {14} और हमने आदमी को हुक्म दिया कि अपने माँ बाप से भलाई करे, उसकी माँ ने उसे पेट में रखा तकलीफ़ से और ज़नी उसको तकलीफ़ से और उसे उठाए फिरना और उसका दूध छूड़ाना तीस महीने में है(10)
(10) इस आयत से साबित होता है कि गर्भ की कम से कम मुद्दत छ माह है क्योंकि जब दूध छुडाने की मुद्दत दो साल हुई जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया “हौलैन कामिलैन “तो गर्भ के लिये छ माह बाक़ी रहे. यही क़ौल है इमाम अबू युसूफ़ और इमाम मुहम्मद रहमतुल्लाहे अलैहिमा का और हज़रत इमाम साहिब रदियल्लाहो अन्हो के नज़्दीक इस आयत से रिज़ाअत की मुद्दत ढाई साल साबित होती है. मसअले की तफ़सील दलीलों के साथ उसूल की किताबों में मिलती है.
यहाँ तक कि जब अपने ज़ोर को पहुंचा(11)
(11) और अक़्ल और क़ुव्वत मुस्तहकम हुई और यह बात तीस से चालीस साल तक की उम्र में हासिल होती है.
और चालीस बरस का हुआ (12)
(12) यह आयत हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हों के हक़ में उतरी. आपकी उम्र सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दो साल कम थी. जब हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो की उम्र अटठारह साल की हुई तो आपने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सोहबत इख़्तियार की. उस वक़्त हुज़ूर की उम्र शरीफ़ बीस साल की थी. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की हमराही में तिजारत की ग़रज़ से शाम का सफ़र किया. एक मंज़िल पर ठहरे वहाँ एक बेरी का दरख़्त था. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो वसल्लम उसके साए में तशरीफ़ फ़रमा हुए. क़रीब ही एक पादरी रहता था. हज़रत सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो उसके पास चले गए. उसने आपसे कहा यह कौन साहिब हैं जो इस बेरी के साए में जलवा फ़रमा हैं. हज़रत सिद्दीक़ ने फ़रमाया कि यह मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह हैं, अब्दुल मुत्तलिब के पोते, राहिब ने कहा ख़ुदा की क़सम ये नबी है इस बेरी के साए में हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बाद से आज तक इनके सिवा कोई नहीं बैठा, यही आख़िरी ज़माने के नबी हैं. राहिब की यह बात हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ के दिल में उतर गई और नबुव्वत का यक़ीन आपके दिल में जम गया. और आपने सरकार की सोहबत शरीफ़ की मुलाज़िमत इख़्तियार कर ली. सफ़र व हज़र में आपसे जुदा न होते. जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की उम्र शरीफ़ चालीस साल की हुई और अल्लाह तआला ने हुज़ूर को अपनी नबुव्वत और रिसालत का ताज पहनाया तो हज़रत सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो आप पर ईमान ले आए. उस वक़्त आपकी उम्र अड़तीस बरस की थी. जब आप चालीस साल के हुए तो आपने अल्लाह तआला से यह दुआ की.
अर्ज़ की ऐ मेरे रब मेरे दिल में डाल कि मैं तेरी नेअमत का शुक्र करूं जो तूने मुझ पर और मेरे माँ बाप पर की(13)
(13) कि हम सबको हिदायत फ़रमाई और इस्लाम से मुशर्रफ़ किया. हज़रत सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो के वालिद का नाम अबू क़हाफ़ा और वालिदा का नाम उम्मुल ख़ैर था.
और मैं वह काम करूं जो तूझे पसन्द आए(14)
(14) आपकी यह दुआ भी क़ुबूल हुई और अल्लाह तआला ने आपको अच्छे कर्मों की वह दौलत अता फ़रमाई कि सारी उम्मत के कर्म आपके एक कर्म के बराबर नहीं हो सकते. आपकी नेकियों में से एक यह है कि नौ मूमिन जो ईमान की वजह से सख़्त यातनाओ और तकलीफ़ों में जकड़े हुए थे, उनको आपने आज़ाद कराया, उन्हीं में से हज़रत बिलाल रदियल्लाहो अन्हो भी हैं. और आप ने यह दुआ की.
और मेरे लिये मेरी औलाद में सलाह रख(15)
(15) यह दुआ भी क़ुबूल हुई . अल्लाह तआला ने आपकी औलाद में नेकी रखी. आपकी तमाम औलाद मूमिन है और उनमें हज़रत उम्मुल मूमिनीन आयशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहो अन्हा का दर्जा किस क़द्र बलन्द है कि तमाम औरतों पर अल्लाह ने उन्हें बुज़ुर्गी अता की है. हज़रत अबूबक्र रदियल्लाहो अन्हो के वालिदेन भी मुसलमान और आपके बेटे मुहम्मद और अब्दुल्लाह और अब्दुल रहमान और आपकी बेटियाँ हज़रत आयशा और हज़रत असमा और आपके पोते मुहम्मद बिन अब्दुर रहमान, ये सब मूमिन और सब सहाबियत की बुज़ुर्गी रखने वाले हैं. आपके सिवा कोई ऐसा नहीं है जिसको यह फ़ज़ीलत हासिल हो कि उसके वालिदैन भी सहाबी हों, ख़ुद भी सहाबी, औलाद भी सहाबी, पोते भी सहाबी, चार पुश्तें सहाबियत का शरफ़ रखने वाली.
मैं तेरी तरफ़ रूजू लाया(16)
(16) हर उस काम में जिसमें तेरी रज़ा हो.
और मैं मुसलमान हूँ (17){15}
(17) दिल से भी और ज़बान से भी.
ये हैं वो जिनकी नेकियाँ हम क़ुबूल फ़रमाएंगे (18)
(18) उनपर सवाब देंगे.
और उनकी तक़सीरों से दरग़ुज़र फ़रमाएंगे जन्नत वालों में, सच्चा वादा जो उन्हें दिया जाता था (19){16}
(19)दुनिया में नबीए अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ज़बाने मुबारक से.
और वह जिसने अपने माँ बाप से कहा(20)
(20) इससे मुराद कोई ख़ास व्यक्ति नहीं है बल्कि काफ़िर जो मरने के बाद उठाए जाने का इन्कारी हो और माँ बाप का नाफ़रमान और उसके माँ बाप उसको सच्चे दीन की तरफ़ बुलाते हों और वह इन्कार करता हो.
उफ़ तुम से दिल पक गया क्या मुझे यह वादा देते हो कि फिर ज़िन्दा किया जाऊंगा हालांकि मुझसे पहले संगते गुज़र चुकीं(21)
(21) उनमें से कोई मरकर ज़िन्दा न हुआ.
और वो दोनों(22)
(22) माँ बाप.
अल्लाह से फ़रियाद करते हैं तेरी ख़राबी हो ईमान ला बेशक अल्लाह का वादा सच्चा है(23)
(23)मुर्दे ज़िन्दा फ़रमाने का.
तो कहता है ये तो नहीं मगर अगलों की कहानियां {17} ये वो हैं जिन पर बात साबित हो चुकी(24)
(24) अज़ाब की.
उन गिरोहों में जो उन से पहले गुज़रे जिन्न और आदमी, बेशक वो ज़ियाँकार थे {18} और हर एक के लिये कर्म के अपने अपने (25)
(25) मूमिन हो या काफ़िर.
दर्जे हैं(26)
(26)यानी अल्लाह तआला के नज़्दीक मन्ज़िलों और दर्जों में. क़यामत के दिन जन्नत के दर्जे बलन्द होते चले जाते हैं और जहन्नम के दर्जे पस्त होते जाते हैं तो जिनके कर्म अच्छे हो वो जन्नत के ऊंचे दर्जे में होंगे और जो कु़फ़्र और गुमराही में चरम सीमा को पहुंच गए हों वो जहन्नम के सब से नीचे दर्जे में होंगे.
और ताकि अल्लाह उनके काम उन्हें पूरे भर दे(27)
(27) यानी मूमिन और काफ़िरों को फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी की पूरी जंज़ा दे.
और उनपर ज़ुल्म न होगा {19} और जिस दिन काफ़िर आग पर पेश किये जाएंगे उनसे फ़रमाया जाएगा, तुम अपने हिस्से की पाक चीज़ें अपनी दुनिया ही की ज़िन्दगी में फ़ना कर चुके और उन्हें बरत चुके(28)
(28) यानी लज़्ज़त और ऐश जो तुम्हें पाना था. वह सब दुनिया में तुमने ख़त्म कर दिया. अब तुम्हारे लिये आख़िरत में कुछ भी बाक़ी न रहा और कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि “तैय्यिबात” से शरीर के अंग और जवानी मुराद है और मानी ये हैं कि तुम ने अपनी जवानी और अपनी क़ुव्वतों को दुनिया के अन्दर कुफ़्र और गुनाहों में ख़र्च कर दिया.
तो आज तुम्हें ज़िल्लत का अज़ाब बदला दिया जाएगा सज़ा उसकी कि तुम ज़मीन में नाहक़ घमण्ड करते थे और सज़ा उसकी कि हुक्मअदूली (नाफ़रमानी) करते थे(29) {20}
(29) इस आयत में अल्लाह तआला ने दुनियावी लज़्ज़तें इख़्तियार करने पर काफ़िरों को मलामत फ़रमाई तो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और हुज़ूर के सहाबा ने दुनिया की लज़्ज़तों से किनारा कशी इख़्तियार फ़रमाई. बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है कि हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की वफ़ात तक हुज़ूर के घर वालों ने कभी जौ की रोटी भी दो दिन बराबर न खाई. यह भी हदीस में है कि पूरा पूरा महीना गुज़र जाता था, सरकार के मकान में आग न जलती थी. कुछ खजूरों और पानी पर गुज़ारा कर लिया जाता था. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है आप फ़रमाते थे कि मैं चाहता तो तुमसे अच्छा खाना खाता और तुम से बेहतर लिबास पहनता लेकिन मैं अपना ऐश और राहत अपनी आख़िरत के लिये बाक़ी रखना चाहता हूँ.
46 सूरए अहक़ाफ़ – तीसरा रूकू
۞ وَاذْكُرْ أَخَا عَادٍ إِذْ أَنذَرَ قَوْمَهُ بِالْأَحْقَافِ وَقَدْ خَلَتِ النُّذُرُ مِن بَيْنِ يَدَيْهِ وَمِنْ خَلْفِهِ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا اللَّهَ إِنِّي أَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيمٍ
قَالُوا أَجِئْتَنَا لِتَأْفِكَنَا عَنْ آلِهَتِنَا فَأْتِنَا بِمَا تَعِدُنَا إِن كُنتَ مِنَ الصَّادِقِينَ
قَالَ إِنَّمَا الْعِلْمُ عِندَ اللَّهِ وَأُبَلِّغُكُم مَّا أُرْسِلْتُ بِهِ وَلَٰكِنِّي أَرَاكُمْ قَوْمًا تَجْهَلُونَ
فَلَمَّا رَأَوْهُ عَارِضًا مُّسْتَقْبِلَ أَوْدِيَتِهِمْ قَالُوا هَٰذَا عَارِضٌ مُّمْطِرُنَا ۚ بَلْ هُوَ مَا اسْتَعْجَلْتُم بِهِ ۖ رِيحٌ فِيهَا عَذَابٌ أَلِيمٌ
تُدَمِّرُ كُلَّ شَيْءٍ بِأَمْرِ رَبِّهَا فَأَصْبَحُوا لَا يُرَىٰ إِلَّا مَسَاكِنُهُمْ ۚ كَذَٰلِكَ نَجْزِي الْقَوْمَ الْمُجْرِمِينَ
وَلَقَدْ مَكَّنَّاهُمْ فِيمَا إِن مَّكَّنَّاكُمْ فِيهِ وَجَعَلْنَا لَهُمْ سَمْعًا وَأَبْصَارًا وَأَفْئِدَةً فَمَا أَغْنَىٰ عَنْهُمْ سَمْعُهُمْ وَلَا أَبْصَارُهُمْ وَلَا أَفْئِدَتُهُم مِّن شَيْءٍ إِذْ كَانُوا يَجْحَدُونَ بِآيَاتِ اللَّهِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ
और याद करो आद के हमक़ौम (1)
(1) हज़रत हूद अलैहिस्सलाम.
को जब उसने उनको अहक़ाफ़ की सरज़मीन (धरती) में डराया(2)
(2) शिर्क से. अहक़ाफ़ एक रेगिस्तानी घाटी है जहाँ क़ौमें आद के लोग रहते थे.
और बेशक इससे पहले डर सुनाने वाले गुज़र चुके और उसके बाद आए कि अल्लाह के सिवा किसी को न पूजो बेशक मुझे तुम पर एक बड़े दिन के अज़ाब का भय है {21} बोले क्या तुम इसलिये आए कि हमें हमारे मअबूदों से फेर दो तो हम पर लाओ (3)
(3) वह अज़ाब.
जिसका हमें वादा देते हो अगर तुम सच्चे हो(4){22}
(4) इस बात में कि अज़ाब आने वाला है.
उसने फ़रमाया (5)
(5) यानी हूद अलैहिस्सलाम ने.
इसके ख़बर तो अल्लाह ही के पास है(6)
(6) कि अज़ाब कब आएगा.
मैं तो तुम्हें अपने रब के पयाम (संदेश) पहुंचाता हूँ हाँ मेरी दानिस्त (जानकारी) में तुम निरे जाहिल लोग हो(7){23}
(7) जो अज़ाब में जल्दी करते हो और अज़ाब को जानते नहीं क्या चीज़ है.
फिर जब उन्होंने अज़ाब को देखा बादल की तरह आसमान के किनारे में फैला हुआ उनकी वादियों की तरफ़ आता(8)
(8) और लम्बी मुद्दत से उनकी सरज़मीन में बारिश न हुई थी. इस काले बादल को देखकर ख़ुश हुए.
बोले यह बादल है कि हम पर बरसेगा (9)
(9) हज़रत हूद अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया.
बल्कि यह तो वह है जिसकी तुम जल्दी मचाते थे, एक आंधी है जिसमें दर्दनाक अज़ाब {24} हर चीज़ को तबाह कर डालती है अपने रब के हुक्म से(10)
(10) चुनांन्चे उस आंधी के अज़ाब ने उनके मर्दों औरतों छोटों बड़ों को हलाक कर दिया और उनके माल आसमान और ज़मीन के बीच उड़ते फिरते थे. चीज़ें टुकड़े टुकड़े हो गई. हज़रत हूद अलैहिस्सलाम ने अपने और अपने ऊपर ईमान लाने वालों के चारों तरफ़ एक लकीर खींच दी थी. हवा जब उस लकीर के अन्दर आती तो अत्यन्त नर्म पाकीज़ा और राहत देने वाली ठण्डी होती और वही हवा क़ौम पर अत्यन्त सख़्त हलाक करने की होती. और यह हज़रत हूद अलैहिस्सलाम का एक महान चमत्कार था.
तो सुब्ह रह गए कि नज़र न आते थे मगर उनके सूने मकान हम ऐसी ही सज़ा देते हैं मुजरिमों को {25} और बेशक हमने उन्हें वो मक़दूर (साधन) दिये थे जो तुम को न दिये (11)
(11) ऐ मक्के वालों, वो क़ुव्वत और माल और लम्बी उम्र में तुम से ज़्यादा थे.
और उनके लिये कान और आँख और दिल बनाए (12)
(12) ताकि दीन के काम में लाएं. मगर उन्होंने सिवाय दुनिया की तलब के ख़ुदा की दी हुई उन नेअमतों से दीन का काम ही नहीं लिया.
तो उनके कान और आँखे और दिल कुछ काम न आए जब कि वो अल्लाह की आयतों का इन्कार करते थे और उन्हें घेर लिया उस अज़ाब ने जिसकी हंसी बनाते थे{26}
46 सूरए अहक़ाफ़ – चौथा रूकू
وَلَقَدْ أَهْلَكْنَا مَا حَوْلَكُم مِّنَ الْقُرَىٰ وَصَرَّفْنَا الْآيَاتِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ
فَلَوْلَا نَصَرَهُمُ الَّذِينَ اتَّخَذُوا مِن دُونِ اللَّهِ قُرْبَانًا آلِهَةً ۖ بَلْ ضَلُّوا عَنْهُمْ ۚ وَذَٰلِكَ إِفْكُهُمْ وَمَا كَانُوا يَفْتَرُونَ
وَإِذْ صَرَفْنَا إِلَيْكَ نَفَرًا مِّنَ الْجِنِّ يَسْتَمِعُونَ الْقُرْآنَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوا أَنصِتُوا ۖ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوْا إِلَىٰ قَوْمِهِم مُّنذِرِينَ
قَالُوا يَا قَوْمَنَا إِنَّا سَمِعْنَا كِتَابًا أُنزِلَ مِن بَعْدِ مُوسَىٰ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ يَهْدِي إِلَى الْحَقِّ وَإِلَىٰ طَرِيقٍ مُّسْتَقِيمٍ
يَا قَوْمَنَا أَجِيبُوا دَاعِيَ اللَّهِ وَآمِنُوا بِهِ يَغْفِرْ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمْ وَيُجِرْكُم مِّنْ عَذَابٍ أَلِيمٍ
وَمَن لَّا يُجِبْ دَاعِيَ اللَّهِ فَلَيْسَ بِمُعْجِزٍ فِي الْأَرْضِ وَلَيْسَ لَهُ مِن دُونِهِ أَوْلِيَاءُ ۚ أُولَٰئِكَ فِي ضَلَالٍ مُّبِينٍ
أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّ اللَّهَ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَلَمْ يَعْيَ بِخَلْقِهِنَّ بِقَادِرٍ عَلَىٰ أَن يُحْيِيَ الْمَوْتَىٰ ۚ بَلَىٰ إِنَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِينَ كَفَرُوا عَلَى النَّارِ أَلَيْسَ هَٰذَا بِالْحَقِّ ۖ قَالُوا بَلَىٰ وَرَبِّنَا ۚ قَالَ فَذُوقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنتُمْ تَكْفُرُونَ
فَاصْبِرْ كَمَا صَبَرَ أُولُو الْعَزْمِ مِنَ الرُّسُلِ وَلَا تَسْتَعْجِل لَّهُمْ ۚ كَأَنَّهُمْ يَوْمَ يَرَوْنَ مَا يُوعَدُونَ لَمْ يَلْبَثُوا إِلَّا سَاعَةً مِّن نَّهَارٍ ۚ بَلَاغٌ ۚ فَهَلْ يُهْلَكُ إِلَّا الْقَوْمُ الْفَاسِقُونَ
और बेशक हमने हलाक कर दीं(1)
(1) ऐ क़ुरैश.
तुम्हारे आस पास की बस्तियां (2)
(2) समूद व आद व क़ौमे लूत की तरह.
और तरह तरह की निशानियां लाए कि वो बाज़ आए(3) {27}
(3) कुफ़्र और सरकशी से, लेकिन वो बाज़ न आए तो हमने उन्हें उनके कुफ़्र के कारण हलाक कर दिया.
तो क्यों न मदद की उनकी(4)
(4) उन काफ़िरों की, उन बुतों ने.
जिनको उन्होंने अल्लाह के सिवा क़ुर्ब (समीपता) हासिल करने को ख़ुदा ठहरा रखा था (5)
(5) और जिनकी निस्बत यह कहा करते थे कि इन बुतों को पूजने से अल्लाह का क़ुर्ब हासिल होता है.
बल्कि वो उनसे ग़ुम गए (6)
(6) और अज़ाब उतरने के समय काम न आए.
और यह उनका बोहतान और इफ़तिरा है(7){28}
(7) कि वो बुतों को मअबूद कहते हैं और बुत परस्ती को अल्लाह के नज़्दीक होने का ज़रिया ठहराते हैं.
और जब कि हमने तुम्हारी तरफ़ कितने जिन्न फेरे (8)
(8) यानी ऐ सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम , उस वक़्त को याद कीजिये जब हमने आपकी तरफ़ जिन्नों की एक जमाअत भेजी. इस जमाअत की संख्या में मतभेद है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि सात जिन्न थे जिन्हें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनकी क़ौम की तरफ़ संदेश ले जाने वाला बनाया. कुछ रिवायतों मे आया है कि नौ थे. तहक़ीक़ करने वाले उलमा इसपर सहमत हैं कि जिन्न सब के सब मुकल्लिफ़ है यानी आक़िल व बालिग़. अब उन जिन्नों का हाल बयान होता है कि आप बत्ने नख़लह में, मक्कए मुकर्रमा और ताइफ़ के बीच, मक्कए मुकर्रमा को आते हुए अपने सहाबा के साथ फ़ज़्र की नमाज़ पढ़ रहे थे उस वक़्त जिन्न.
कान लगाकर क़ुरआन सुनते फिर जब वहाँ हाज़िर हुए आपस में बोले ख़ामोश रहो(9)
(9) ताकि अच्छी तरह हज़रत की क़िरअत सुन लें.
फिर जब पढ़ना हो चुका अपनी क़ौम की तरफ़ डर सुनाते पलटे (10){29}
(10) यानी रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाकर हुज़ूर के हुक्म से अपनी क़ौम की तरफ़ ईमान की दावत देने गए और उन्हें ईमान न लाने और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के विरोध से डराया.
बोले ऐ हमारी क़ौम, हमने एक किताब सुनी(11)
(11) यानी क़ुरआन शरीफ़.
कि मूसा के बाद उतारी गई(12)
(12) अता ने कहा चूंकि वो जिन्न दीने यहूदियत पर थे इसलिये उन्होंने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का ज़िक्र किया और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की किताब का नाम न लिया. कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की किताब का नाम न लेने का कारण यह है कि उसमें सिर्फ़ नसीहतें हैं, अहकाम बहुत ही कम हैं.
अगली किताबों की तस्दीक़ (पुष्टि) फ़रमाती हक़ और सीधी राह दिखाती{30} ऐ हमारी क़ौम अल्लाह के मनादी (उदघोषक) (13)
(13) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.
की बात मानो और उस पर ईमान लाओ कि वह तुम्हारे कुछ गुनाह बख़्श दे(14)
(14) जो इस्लाम से पहले हुए और जिनमें बन्दों का हक़ नहीं.
और तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से बचा ले {31} और जो अल्लाह के मनादी की बात न माने वह ज़मीन में क़ाबू से निकल कर जाने वाला नहीं (15)
(15) अल्लाह तआला से कहीं भाग नहीं सकता और उसके अज़ाब से बच नहीं सकता.
और अल्लाह के सामने उसका कोई मददगार नहीं(16)
(16) जो उसे अज़ाब से बचा सके.
वो(17)
(17) जो अल्लाह तआला के मुनादी हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बात न माने.
खुली गुमराही में हैं {32} क्या उन्होंने (18)
(18) यानी मरने के बाद उठाए जाने का इन्कार करने वालों ने.
न जाना कि वह अल्लाह जिसने आसमान और ज़मीन बनाए और उनके बनाने में न थका क़ादिर है कि मु्र्दे जिलाए, क्यों नहीं, बेशक वह सब कुछ कर सकता है {33} और जिस दिन काफ़िर आग पर पेश किये जाएंगे, उनसे फ़रमाया जाएगा,, क्या यह हक़ (सत्य) नहीं, कहेंगे, क्यों नहीं हमारे रब की क़सम, फ़रमाया जाएगा, तो अज़ाब चखो बदला अपने कुफ़्र का (19){34}
(19) जिसके तुम दुनिया में मुरतकिब हुए थे. इसके बाद अल्लाह तआला अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से खिताब फ़रमाता है.
तो तुम सब्र करो जैसा हिम्मत वाले रसूलों ने सब्र किया (20)
(20) अपनी क़ौम की तकलीफ़ पर.
और उनके लिये जल्दी न करो(21)
(21) अज़ाब तलब करने में क्योंकि अज़ाब उनपर ज़रूर उतरने वाला है.
गोया वो जिस दिन देखेंगे(22)
(22) आख़िरत के अज़ाब को.
जो उन्हें वादा दिया जाता है(23)
(23) तो उसकी दराज़ी और हमेशगी के सामने दुनिया में ठहरने की मुद्दत को बहुत कम समझेंगे और ख़याल करेंगे कि—
दुनिया में न ठहरे थे मगर दिन की एक घड़ी भर, यह पहुंचाना है(24)
(24) यानी यह क़ुरआन और वह हिदायत और निशानियाँ जो इसमें हैं यह अल्लाह तआला की तरफ़ से तबलीग़ है.
तो कौन हलाक किये जाएंगे, मगर बेहुक्म लोग(25) {35}
(25) जो ईमान और फ़रमाँबरदारी से बाहर हैं.