58-Surah Al-Mujadalah

58-Surah Al-Mujadalah

58 सूरए मुजादलह – 58 Surah Al Mujadalah

सूरए मुजादलह मदनी है, इसमें तीन रूकू, बाईस आयतें, चार सौ तिहत्तर कलिमे और एक हज़ार सात सौ बानवे अक्षर हैं.

58 सूरए मुजादलह – पहला रूकू

अठ्ठाईसवाँ पारा – क़द समिअल्लाहु

58 सूरए मुजादलह – पहला रूकू

58|1|بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ قَدْ سَمِعَ اللَّهُ قَوْلَ الَّتِي تُجَادِلُكَ فِي زَوْجِهَا وَتَشْتَكِي إِلَى اللَّهِ وَاللَّهُ يَسْمَعُ تَحَاوُرَكُمَا ۚ إِنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ بَصِيرٌ
58|2|الَّذِينَ يُظَاهِرُونَ مِنكُم مِّن نِّسَائِهِم مَّا هُنَّ أُمَّهَاتِهِمْ ۖ إِنْ أُمَّهَاتُهُمْ إِلَّا اللَّائِي وَلَدْنَهُمْ ۚ وَإِنَّهُمْ لَيَقُولُونَ مُنكَرًا مِّنَ الْقَوْلِ وَزُورًا ۚ وَإِنَّ اللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٌ
58|3|وَالَّذِينَ يُظَاهِرُونَ مِن نِّسَائِهِمْ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا قَالُوا فَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مِّن قَبْلِ أَن يَتَمَاسَّا ۚ ذَٰلِكُمْ تُوعَظُونَ بِهِ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ
58|4|فَمَن لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ مِن قَبْلِ أَن يَتَمَاسَّا ۖ فَمَن لَّمْ يَسْتَطِعْ فَإِطْعَامُ سِتِّينَ مِسْكِينًا ۚ ذَٰلِكَ لِتُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ۚ وَتِلْكَ حُدُودُ اللَّهِ ۗ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٌ
58|5|إِنَّ الَّذِينَ يُحَادُّونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ كُبِتُوا كَمَا كُبِتَ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۚ وَقَدْ أَنزَلْنَا آيَاتٍ بَيِّنَاتٍ ۚ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ مُّهِينٌ
58|6|يَوْمَ يَبْعَثُهُمُ اللَّهُ جَمِيعًا فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُوا ۚ أَحْصَاهُ اللَّهُ وَنَسُوهُ ۚ وَاللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدٌ

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए मुजादलह मदनी है, इसमें तीन रूकू, बाईस आयतें, चार सौ तिहत्तर कलिमे और एक हज़ार सात सौ बानवे अक्षर हैं.

बेशक अल्लाह ने सुनी उसकी बात जो तुम से अपने शौहर के मामले में बहस करती है(2)
(2) वह ख़ूलह बिन्ते सअलबह थीं औस बिन साबित की बीबी, किसी बात पर औस ने उनसे कहा कि तू मुझ पर मेरी माँ की पुश्त की तरह है, यह कहने के बाद औस को शर्मिन्दगी हुई. जिहालत के ज़माने में यह कलिमा तलाक़ था. औस ने कहा मेरे ख़्याल में तू मुझ पर हराम हो गई. ख़ूलह ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर सारा हाल अर्ज़ किया कि मेरा माल ख़त्म हो चुका, माँ बाप गुज़र गए, उम्र ज़्यादा हो गई, बच्चे छोटे छोटे हैं, उनके बाप के पास छोड़ दूँ तो हलाक हो जाएं, अपने साथ रखूं तो भूखे मर जाएं, क्या सूरत है कि मेरे और मेरे शौहर के बीच जुदाई न हो. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि तेरे सिलसिले में मेरे पास कोई हुक्म नहीं है यानी अभी तक ज़िहार के बारे में कोई नया हुक्म नहीं उतरा. पुराना तरीक़ा यही है कि ज़िहार से औरत हराम हो जाती है. औरत ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, औस ने तलाक़ का शब्द न कहा, वह मेरे बच्चों का बाप है और मुझे बहुत ही प्यारा है. इसी तरह वह बार बार अर्ज़ करती रही और जवाब अपनी इच्छानुसार न पाया तो आसमान की तरफ़ सर उठाकर कहने लगी. या अल्लाह मैं तुझ से अपनी मोहताजी, बेकसी और परेशानी की शिकायत करती हूँ, अपने नबी पर मेरे हक़ में ऐसा हुक्म उतार जिस से मेरी मुसीबत दूर हो. हज़रत उम्मुल मूमिनीन आयशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहो अन्हा ने फ़रमाया ख़ामोश हो. देख रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुबारक चेहरे पर वही के आसार हैं. जब वही पूरी हो गई तो फ़रमाया, अपने शौहर को बुला. औस हाज़िर हुए तो हुज़ूर ने ये आयतें पढ़कर सुनाई.

और अल्लाह से शिकायत करती है और अल्लाह तुम दोनों की बातचीत सुन रहा है, बेशक अल्लाह सुनता देखता है {1} वो जो तुम में अपनी बीबियों को अपनी माँ की जगह कह बैठते हैं(3)
(3) यानी ज़िहार करते हैं. ज़िहार उसको कहते हैं कि अपनी बीबी को नसब वाली मेहरमात या रिज़ाई रिश्ते की औरतों के किसी ऐसे अंग से उपमा दी जाए जिसको देखना हराम है. जैसे कि बीबी से कहे तू मुझ पर मेरी माँ की पीठ की तरह है या बीबी के किसी अंग को जिससे वह ताबीर की जाती हो या उसके शरीर और उसके अंगो को मेहरम औरतों के किसी ऐसे अंग से मिसाल दे जिसका देखना हराम है जैसे कि यह कहे कि तेरा सर या तेरा आधा बदन मेरी माँ की पीठ या उसके पेट या उसकी रान या मेरी बहन या फुफी या दूध पिलाने वाली की पीठ या पेट की तरह है तो ऐसा कहना ज़िहार कहलाता है.

वो उनकी माएँ नहीं (4)
(4) यह कहने से वो माएँ नहीं हो गई.

उनकी माएँ तो वही हैं जिन से वो पैदा हैं (5)
(5) और दूध पिलाने वालियां दूध पिलाने के कारण माँ के हुक्म में हैं. और नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मुक़द्दस बीबियाँ कमाले हुर्मत के कारण माएँ बल्कि माओ से बढ़कर हैं.

और वह बेशक बुरी और निरी झूट बात कहते हैं (6)
(6) जो बीबी को माँ कहते हैं उसको किसी तरह माँ के साथ मिसाल देना ठीक नहीं.

और बेशक अल्लाह ज़रूर माफ़ करने वाला और बख़्शने वाला है{2} और वो जो अपनी बीबियों को अपनी माँ की जगह कहें(7)
(7) यानी उनसे ज़िहार करें. इस आयत से मालूम हुआ कि दासी से ज़िहार नहीं होता. अगर उसको मेहरम औरतों से तश्बीह दे तो मुज़ाहिर न होगा.

फिर वही करना चाहें जिस पर इतनी बड़ी बात कह चुके(8)
(8) यानी इस ज़िहार को तोड़ देना और हुर्मत को उठा देना

तो उनपर लाज़िम है(9)
(9) कफ़्फ़ारा ज़िहार का, लिहाज़ा उनपर ज़रूरी है.

एक ग़ुलाम आज़ाद करना(10)
(10) चाहे वह मूमिन हो या काफ़िर, छोटा हो या बड़ा, मर्द हो या औरत, अलबत्ता मुदब्बर और उम्मे वलद और ऐसा मकातिब जायज़ नहीं जिसने किताब के बदल में से कुछ अदा किया हो.

पहले इसके कि एक दूसरे को हाथ लगाएं(11)
(11) इससे मालूम हुआ कि इस कफ़्फ़ारे के देने से पहले वती (संभोग) और उसके दवाई (संभोग इच्छुक काम) हराम है.

यह है जो नसीहत तुम्हें की जाती है, और अल्लाह तुम्हारे कामों से ख़बरदार है{3} फिर जिसे ग़ुलाम न मिले(12)
(12) उसका कफ़्फ़ारा.

तो लगातार दो महीने के रोज़े (13)
(13) जुड़े हुए इसतरह कि न उन दो महीनों के बीच रमज़ान आए न उन पाँच दिनों में से कोई दिन आए जिनका रोज़ा मना है, और न किसी उज्र से, या बग़ैर उज्र के, दरमियान कोई रोज़ा छोड़ा जाए. अगर ऐसा हुआ तो नए सिरे से रोज़े रखने पड़ेंगे.

पहले इसके कि एक दूसरे को हाथ लगाएं(14)
(14) यानी रोज़ों से जो कफ़्फ़ारा दिया जाए उसका भी हमबिस्तरी से पहले होना ज़रूरी है और जब तक वो रोज़े पूरे हों, शौहर बीबी में से किसी को हाथ न लगाए.

फिर जिस से रोज़े भी न हो सकें(15)
(15)यानी उसे रोज़े रखने की ताक़त ही न हो, बुढ़ापे या बीमारी के कारण, या रोज़े तो रख सकता हो मगर लगातार एक के बाद एक न रख सकता हो.

तो साठ मिस्कीनों (फ़क़ीरों) का पेट भरना(16)
(16) यानी साठ मिस्कीनों का ख़ाना देना और यह इस तरह कि हर मिस्कीन को निस्फ़ साअ गेँहू या एक साअ ख़जूर या जौ दे और अगर मिस्कीनों को उसकी क़ीमत दी या सुब्ह शाम दोनो समय उन्हें पेट भर खाना खिला दिया तब भी जायज़ है. इस कफ़्फ़ारे में यह शर्त नहीं कि एक दूसरे को हाथ लगाने से पहले हो, यहाँ तक कि अगर खाना खिलाने के बीच में शौहर और बीबी में क़ुर्बत वाक़े हुई तो नया कफ़्फ़ारा देना लाज़िम न होगा.

यह इसलिये कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखो(17)
(17)और ख़ुदा और रसूल की फ़रमाँबरदारी करो और जिहालत के तरीक़े को छोड़ दो.

और ये अल्लाह की हदें हैं (18)
(18) उनको तोड़ना और उनसे आगे बढ़ना जायज़ नहीं.

और काफ़िरों के लिये दर्दनाक अज़ाब है {4} बेशक वो जो मुख़ालिफ़त करते हैं अल्लाह और उसके रसूल की, ज़लील किये गए जैसे उनसे अगलों को ज़िल्लत दी गई(19)
(19) रसूलों की मुख़ालिफ़त करने के कारण.

और बेशक हमने रौशन आयतें उतारीं(20)
(20)रसूलों की सच्चाई को प्रमाणित करने वाली.

और काफ़िरों के लिये ख़्वारी का अज़ाब है {5} जिस दिन अल्लाह उन सबको उठाएगा(21)
(21) किसी एक को बाक़ी न छोड़ेगा.

फिर उन्हें उनके कौतुक जता देगा(22)
(22) रूस्वा और शर्मिन्दा करने के लिये.

अल्लाह ने उन्हें गिन रखा है और वो भूल गए(23) और हर चीज़ अल्लाह के सामने है{6}
(23) अपने कर्म जो दुनिया में करते थे.

58 सूरए मुजादलह – दूसरा रूकू

58 सूरए मुजादलह -दूसरा रूकू

58|7|أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۖ مَا يَكُونُ مِن نَّجْوَىٰ ثَلَاثَةٍ إِلَّا هُوَ رَابِعُهُمْ وَلَا خَمْسَةٍ إِلَّا هُوَ سَادِسُهُمْ وَلَا أَدْنَىٰ مِن ذَٰلِكَ وَلَا أَكْثَرَ إِلَّا هُوَ مَعَهُمْ أَيْنَ مَا كَانُوا ۖ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُوا يَوْمَ الْقِيَامَةِ ۚ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ
58|8|أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ نُهُوا عَنِ النَّجْوَىٰ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا نُهُوا عَنْهُ وَيَتَنَاجَوْنَ بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَمَعْصِيَتِ الرَّسُولِ وَإِذَا جَاءُوكَ حَيَّوْكَ بِمَا لَمْ يُحَيِّكَ بِهِ اللَّهُ وَيَقُولُونَ فِي أَنفُسِهِمْ لَوْلَا يُعَذِّبُنَا اللَّهُ بِمَا نَقُولُ ۚ حَسْبُهُمْ جَهَنَّمُ يَصْلَوْنَهَا ۖ فَبِئْسَ الْمَصِيرُ
58|9|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا تَنَاجَيْتُمْ فَلَا تَتَنَاجَوْا بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَمَعْصِيَتِ الرَّسُولِ وَتَنَاجَوْا بِالْبِرِّ وَالتَّقْوَىٰ ۖ وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ
58|10|إِنَّمَا النَّجْوَىٰ مِنَ الشَّيْطَانِ لِيَحْزُنَ الَّذِينَ آمَنُوا وَلَيْسَ بِضَارِّهِمْ شَيْئًا إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ ۚ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ
58|11|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا قِيلَ لَكُمْ تَفَسَّحُوا فِي الْمَجَالِسِ فَافْسَحُوا يَفْسَحِ اللَّهُ لَكُمْ ۖ وَإِذَا قِيلَ انشُزُوا فَانشُزُوا يَرْفَعِ اللَّهُ الَّذِينَ آمَنُوا مِنكُمْ وَالَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ دَرَجَاتٍ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ
58|12|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا نَاجَيْتُمُ الرَّسُولَ فَقَدِّمُوا بَيْنَ يَدَيْ نَجْوَاكُمْ صَدَقَةً ۚ ذَٰلِكَ خَيْرٌ لَّكُمْ وَأَطْهَرُ ۚ فَإِن لَّمْ تَجِدُوا فَإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
58|13|أَأَشْفَقْتُمْ أَن تُقَدِّمُوا بَيْنَ يَدَيْ نَجْوَاكُمْ صَدَقَاتٍ ۚ فَإِذْ لَمْ تَفْعَلُوا وَتَابَ اللَّهُ عَلَيْكُمْ فَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ وَأَطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ وَاللَّهُ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ

ऐ सुनने वाले क्या तूने न देखा कि अल्लाह जानता है जो कुछ आसमानों में हैं और जो कुछ ज़मीन में है और जो कुछ ज़मीन में(1)
(1) उससे कुछ छुपा नहीं.

जहाँ कहीं तीन लोगों की कानाफूसी हो(2)
(2) और अपने राज़ आपस में कानों में कहें और अपनी बात चीत पर किसी को सूचित न होने दें.

तो चौथा वह मौजूद है (3)
(3) यानी अल्लाह तआला उन्हें देखता है, उनके राज़ जानता है.

और पाँच की(4)
(4) कानाफूसी हो.

तो छटा वह (5)
(5) यानी अल्लाह तआला.

और न उससे कम(6)
(6) यानी पाँच और तीन से.

और न उससे ज़्यादा की मगर यह कि वह उनके साथ है(7)
(7) अपने इल्म और क़ुदरत से.

जहाँ कहीं हों, फिर उन्हें क़यामत के दिन बता देगा जो कुछ उन्होंने किया, बेशक अल्लाह सब कुछ जानता है {7} क्या तुम ने उन्हें न देखा जिन्हें बुरी मशविरत से मना फ़रमाया गया था फिर वही करते हैं (8)
(8) यह अल्लाह यहूदियों और दोहरी प्रवृत्ति वाले मुनाफ़ि क़ों के बारे में उतरी. वो आपस में काना फूसी करते और मुसलमानों की तरफ़ देखते जाते और आँखों से उनकी तरफ़ इशारे करते जाते ताकि मुसलमान समझें कि उनके ख़िलाफ़ कोई छुपी बात है और इससे उन्हें दुख हो. उनकी इस हरकत से मुसलमानों को दुख होता था और वो कहते थे कि शायद इन लोगों को हमारे उन भाइयों की निस्बत क़त्ल या हार की कोई ख़बर पहुंची जो जिहाद में गए हैं और ये उसी के बारे में बाते बनाते और इशारे करते हैं. जब मुनाफ़ि क़ों की ये हरकतें ज़्यादा हो गई और मुसलमानों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में इसकी शि कायतें कीं तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने कानाफ़ूसी करने वालों को मना फ़रमाया लेकिन वो नहीं माने और यह हरकत करते ही रहे इसपर यह आयत उतरी.

जिसकी मुमानियत हुई थी और आपस में गुनाह और हद से बढ़ने (9)
(9)गुनाह और हद से बढ़ना यह कि मक्कारी के साथ कानाफूसी करके मुसलमानों को दुख में डालते हैं.

और रसूल की नाफ़रमानी के मशविरे करते हैं (10)
(10) और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नाफ़रमानरी यह कि मना करने के बाद भी बाज़ नहीं आते और यह भी कहा गया कि उनमें एक दूसरे को राय देते थे कि रसूल की नाफ़रमानी करो.

और जब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर होते हैं तो उन लफ़्ज़ों से तुम्हें मुजरा करते हैं जो लफ़्ज़ अल्लाह ने तुम्हारे एज़ाज़ में न कहे(11)
(11) यहूदी नबीये अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास आते तो अस्सामो अलैका (तुमपर मौत हो) कहते साम मौत को कहते हैं. नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उनके जवाब में अलैकुम(और तुम पर भी) फ़रमा देते.

और अपने दिलों में कहते हैं हमें अल्लाह अज़ाब क्यों नहीं करता हमारे इस कहने पर(12)
(12) इससे उनकी मुराद यह थी कि अगर हुज़ूर नबी होते तो हमारी इस गुस्ताख़ी पर अल्लाह तआला हमें अज़ाब करता, अल्लाह तआला फ़रमाता है.

उन्हें जहन्नम बस है, उसमें धंसेंगे तो क्या ही बुरा अंजाम {8} ऐ ईमान वालों तुम जब आपस में मशविरत (परामर्श) करो तो गुनाह और हद से बढ़ने और रसूल की नाफ़रमानी की मशविरत न करो(13)
(13) और जो तरीक़ा यहूदियों और मुनाफ़ि क़ों का है उससे बचो.

और नेकी और परहेज़गारी की मशविरत करो, और अल्लाह से डरो जिसकी तरफ़ उठाए जाओगे {9} वह मशविरत तो शैतान ही की तरफ़ से है(14)
(14) जिसमें गुनाह और हद से बढ़ना और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नाफ़रमानी हो और शैतान अपने दोस्तों को उस पर उभारता है.

इसलिये कि ईमान वालों को रंज दे और वह उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता ख़ुदा के हुक्म के बिना और मुसलमानों को अल्लाह ही पर भरोसा चाहिये(15) {10}
(15) कि अल्लाह पर भरोसा करने वाला टोटे में नहीं रहता.

ऐ ईमान वालों! जब तुमसे कहा जाए मजलिसों में जगह दो तो जगह दो, अल्लाह तुम्हें जगह देगा(16)
(16) नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम बद्र में हाज़िर होने वाले सहाबा की इज़्ज़त करते थे. एक रोज़ चन्द बद्री सहाबा ऐसे वक़्त पहुंचे जबकि मजलिस शरीफ़ भर चुकी थी, उन्होंने हुज़ूर के सामने खड़े होकर सलाम अर्ज़ किया हुज़ूर ने जवाब दिया. फिर उन्होंने हाज़िरीन को सलाम किया उन्होंने जवाब दिया फिर वो इस इन्तिज़ार में खड़े रहे कि उनके लिये मजलिस शरीफ़ में जगह की जाए मगर किसी ने जगह न दी. यह सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे को बुरा लगा तो हुज़ूर ने अपने क़रीब बैठने वालों को उठाकर उनके लिये जगह की. उठने वालों को उठना अच्छा नहीं लगा इसपर यह आयत उतरी.

और जब कहा जाए उठ खड़े हो तो उठ खड़े हो(17)
(17) नमाज़ के या जिहाद के या और किसी नेक काम के लिये और इसी में ज़ि क्रे रसूल की ताज़ीम के लिये खड़ा होना.

अल्लाह तुम्हारे ईमान वालों के और उनके जिनको इल्म दिया गया (18)
(18) अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी के कारण.

दर्जे बलन्द फ़रमाएगा, और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है{11} ऐ ईमान वालो! जब तुम रसूल से कोई बात आहिस्ता अर्ज़ करना चाहो तो अपने अर्ज़ से पहले कुछ सदक़ा दे लो(19)
(19) कि उसमें रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बारगाह में हाज़िरी की ताज़ीम और फ़क़ीरों का नफ़ा है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बारगाह में जब मालदारों ने अर्ज़ मअरूज़ का सिलसिला दराज़ किया और नौबत यहाँ तक पहुंची कि फ़क़ीरों को अपनी अर्ज़ पेश करने का मौक़ा कम मिलने लगा, तो अर्ज़ पेश करने वालों को अर्ज़ पेश करने से पहले सदक़ा देने का हुक्म दिया गया और इस हुक्म पर हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो ने अमल किया और एक दीनार सदक़ा करके दस मसअले दरियाफ़्त किये अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम वफ़ा क्या है? फ़रमाया, तौहीद और तौहीद की शहादत देना, अर्ज़ किया, फ़साद क्या है? फ़रमाया, कुफ़्र और शिर्क. अर्ज़ किया, हक क्या है? फ़रमाया, इस्लाम और क़ुरआन और विलायत, जब तुझे मिले. अर्ज़ किया, हीला क्या है? यानी तदबीर? फ़रमाया, तर्के हीला. अर्ज़ किया, मुझ पर क्या लाज़िम है? फ़रमाया, अल्लाह तआला और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी. अर्ज़ किया, अल्लाह तआला से दुआ कैसे माँगू? फ़रमाया, सच्चाई और यक़ीन के साथ, अर्ज़ किया, क्या माँगू? फ़रमाया, आक़िबत. अर्ज़ किया, अपनी निजात के लिये क्या करूं? फ़रमाया, हलाल खा और सच बोल. अर्ज़ किया, सुरूर क्या है? फ़रमाया, जन्नत, अर्ज़ किया, राहत क्या है? फ़रमाया, अल्लाह का दीदार. जब अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो इन सवालों के जवाब से फ़ारिग़ हो गए तो यह हुक्म मन्सूख़ हो गया और रूख़सत नाज़िल हुई और हज़रत अली के सिवा और किसी को इसपर अमल करने का वक़्त नहीं मिला. (मदारिक व ख़ाज़िन) हज़रत इमाम अहमद रज़ा ने फ़रमाया, यह इसकी अस्ल है जो औलिया की मज़ारात पर तस्दीक़ के लिये शीरीनी ले जाते हैं.

यह तुम्हारे लिये बहुत बेहतर और बहुत सुथरा है, फिर अगर तुम्हें मक़दूर न हो तो अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {12} क्या तुम इससे डरे कि तुम अपनी अर्ज़ से पहले कुछ सदक़ा दो(20)
(20) अपनी ग़रीबी और नादारी के कारण.

फिर जब तुमने यह न किया और अल्लाह ने अपनी कृपा से तुम पर तवज्जुह फ़रमाई(21)
(21) और सदक़े की पहल छोड़ने की पकड़ तुम पर से उठाली और तुमको इख़्तियार दे दिया.

तो नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो और अल्लाह और उसके रसूल के फ़रमाँबरदार रहो, और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है {13}

58 सूरए मुजादलह – तीसरा रूकू

58 सूरए मुजादलह – तीसरा रूकू

58|14|۞ أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ تَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِم مَّا هُم مِّنكُمْ وَلَا مِنْهُمْ وَيَحْلِفُونَ عَلَى الْكَذِبِ وَهُمْ يَعْلَمُونَ
58|15|أَعَدَّ اللَّهُ لَهُمْ عَذَابًا شَدِيدًا ۖ إِنَّهُمْ سَاءَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ
58|16|اتَّخَذُوا أَيْمَانَهُمْ جُنَّةً فَصَدُّوا عَن سَبِيلِ اللَّهِ فَلَهُمْ عَذَابٌ مُّهِينٌ
58|17|لَّن تُغْنِيَ عَنْهُمْ أَمْوَالُهُمْ وَلَا أَوْلَادُهُم مِّنَ اللَّهِ شَيْئًا ۚ أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ
58|18|يَوْمَ يَبْعَثُهُمُ اللَّهُ جَمِيعًا فَيَحْلِفُونَ لَهُ كَمَا يَحْلِفُونَ لَكُمْ ۖ وَيَحْسَبُونَ أَنَّهُمْ عَلَىٰ شَيْءٍ ۚ أَلَا إِنَّهُمْ هُمُ الْكَاذِبُونَ
58|19|اسْتَحْوَذَ عَلَيْهِمُ الشَّيْطَانُ فَأَنسَاهُمْ ذِكْرَ اللَّهِ ۚ أُولَٰئِكَ حِزْبُ الشَّيْطَانِ ۚ أَلَا إِنَّ حِزْبَ الشَّيْطَانِ هُمُ الْخَاسِرُونَ
58|20|إِنَّ الَّذِينَ يُحَادُّونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ أُولَٰئِكَ فِي الْأَذَلِّينَ
58|21|كَتَبَ اللَّهُ لَأَغْلِبَنَّ أَنَا وَرُسُلِي ۚ إِنَّ اللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٌ
58|22|لَّا تَجِدُ قَوْمًا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ يُوَادُّونَ مَنْ حَادَّ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَوْ كَانُوا آبَاءَهُمْ أَوْ أَبْنَاءَهُمْ أَوْ إِخْوَانَهُمْ أَوْ عَشِيرَتَهُمْ ۚ أُولَٰئِكَ كَتَبَ فِي قُلُوبِهِمُ الْإِيمَانَ وَأَيَّدَهُم بِرُوحٍ مِّنْهُ ۖ وَيُدْخِلُهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمْ وَرَضُوا عَنْهُ ۚ أُولَٰئِكَ حِزْبُ اللَّهِ ۚ أَلَا إِنَّ حِزْبَ اللَّهِ هُمُ الْمُفْلِحُونَ

क्या तुमने उन्हें न देखा जो ऐसों के दोस्त हुए जिन पर अल्लाह का ग़ज़ब है(1)
(1) जिन लोगों पर अल्लाह तआला का ग़ज़ब है उनसे मुराद यहूदी है और उनसे दोस्ती करने वाले मुनाफ़िक़. यह आयत मुनाफ़िक़ों के बारे में उतरी जिन्होंने यहूदियों से दोस्ती की और उनकी ख़ैर ख़्वाही में लगे रहते और मुसलमानों के राज़ उनसे कहते.

वो न तुम से न उनसे(2)
(2) यानी न मुसलमान न यहूदी बल्कि मुनाफ़िक़ हैं बीच में लटके हुए.

वो जानकर झूटी क़सम खाते हैं(3){14}
(3) यह आयत अब्दुल्लाह बिन नबतल मुनाफ़िक़ के बारे में उतरी जो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मजलिस में हाज़िर रहता यहाँ की बात यहूदियों के पास पहुंचाता. एक दिन हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम दौलत सराय अक़दस में तशरीफ़ फ़रमा थे. हुज़ूर ने फ़रमाया इस वक़्त एक आदमी आएगा जिसका दिल निहायत सख़्त और शैतान की आँखों से देखता है. थोड़ी ही देर बाद अब्दुल्लाह बिन नबतल आया उसकी आख़ें नीली थीं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उससे फ़रमाया तू और तेरे साथी हमें क्यों गालियाँ देते हैं. वह क़सम खा गया कि ऐसा नहीं करता. और अपने यारों को ले आया उन्होंने भी क़सम खाई कि हमने आपको गाली नहीं दी. इस पर यह आयत उतरी.

अल्लाह ने उनके लिये सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है, बेशक वो बहुत ही बुरे काम करते हैं{15} उन्होंने अपनी क़समों को(4)
(4) जो झूटी है.

ढाल बना लिया है (5)
(5) कि अपना जान माल मेहफ़ूज़ रहे.

तो अल्लाह की राह से रोका(6)
(6) यानी मुनाफ़िक़ों ने अपनी इस हीला साज़ी से लोगों को जिहाद से रोका और कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा कि मानी यह हैं कि लोगों को इस्लाम में दाख़िल होने से रोका.

तो उनके लिये ख़्वारी का अज़ाब है(7){16}
(7) आख़िरत में.

उनके माल और उनकी औलाद अल्लाह के सामने उन्हें कुछ काम न देंगे(8)
(8) और क़यामत के दिन उन्हें अल्लाह के अज़ाब से न बचा सकेंगे.

वो दोज़ख़ी हैं, उन्हें उसमें हमेशा रहना {17} जिस दिन अल्लाह उन सब को उठाएगा तो उसके हुज़ूर भी ऐसे ही क़समें खाएंगे जैसे तुम्हारे सामने खा रहे हैं(9)
(9) कि दुनिया में मूमिन मुख़लिस थे.

और वो यह समझते हैं कि उन्होंने कुछ किया(10)
(10) यानी वो अपनी उन झूटी क़स्मों को कारआमद समझते हैं.

सुनते हो बेशक वही झूठे हैं(11) {18}
(11) अपनी क़स्मों में और ऐसे झूटे कि दुनिया में भी झूट बोलते रहे और आख़िरत में भी रसूल के सामने भी और ख़ुदा के सामने भी.

उन पर शैतान ग़ालिब आ गया तो उन्हें अल्लाह की याद भुलादी, वो शैतान के गिरोह हें, सुनता है बेशक शैतान ही का गिरोह हार में है(12) {19}
(12) कि जन्नत की हमेशा की नेअमतों से मेहरूम और जहन्नम के अबदी अज़ाब में गिरफ़्तार.

बेशक वो जो अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालिफ़त करते हैं, वो सबसे ज़्यादा ज़लीलों में हैं{20} अल्लाह लिख चुका (13)
(13) लौहे मेहफ़ूज़ में.

कि ज़रूर मैं ग़ालिब आऊंगा और मेरे रसूल (14)
(14) हुज्जत के साथ या तलवार के साथ.

बेशक अल्लाह क़ुव्वत वाला इज़्ज़त वाला है {21} तुम न पाओगे उन लोगों को जो यक़ीन रखते हैं अल्लाह और पिछले दिन पर कि दोस्ती करें उनसे जिन्हों ने अल्लाह और उसके रसूल से मुख़ालिफ़त की(15)
(15) यानी मूमिनों से यह हो ही नहीं सकता और उनकी यह शान ही नहीं और ईमान इसको गवारा ही नहीं करता कि ख़ुदा और रसूल के दुश्मन से दोस्ती करे. इस आयत से मालूम हुआ कि बददीनों और बदमज़हबों और ख़ुदा और रसूल की शान में गुस्ताख़ी और बेअदबी करने वालों से ताल्लुक़ात और मेलजोल जायज़ नहीं.

अगरचे वो उनके बाप या बेटे या भाई या कुंबे वाले हों(16)
(16) चुनांन्वे हज़रत अबूउबैदह बिन जर्राह ने उहुद की जंग में अपने बाप जर्राह को क़त्ल किया और हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो ने बद्र के दिन अपने बेटे अब्दुर्रहमान को लड़ने के लिये पुकारा लेकिन रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन्हें इस जंग की इजाज़त न दी और मुसअब बिन उमैर ने अपने भाई अब्दुल्लाह बिन उमैर को क़त्ल किया और हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने अपने मामूँ आस बिन हिशाम बिन मुग़ीरह को बद्र के दिन क़त्ल किया और हज़रत अली बिन अबी तालिब व हमज़ा व अबू उबैदह ने रबीआ के बेटों उतबह और शैबह को और वलीद बिन उतबह को बद्र में क़त्ल किया जो उनके रिश्तेदार थे. ख़ुदा और रसूल पर ईमान लाने वालों को रिश्तेदारी का क्या लिहाज़.

ये हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान नक़्श फ़रमा दिया और अपनी तरफ़ की रूह से उनकी मदद की(17)
(17) इस रूह से या अल्लाह की मदद मुराद है या ईमान या क़ुरआन या जिब्रईल या अल्लाह की रहमत या नूर.

और उन्हें बाग़ों में ले जाएगा जिनके नीचे नेहरें बहें उनमें हमेशा रहें, अल्लाह उनसे राज़ी (18)
(18) उनके ईमान, इख़लास और फ़रमाँबरदारी के कारण.

और वो अल्लाह से राज़ी (19)
(19) उसके रहमत और करम से.
यह अल्लाह की जमाअत है सुनता है अल्लाह ही की जमाअत कामयाब है{22}

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