33 सूरए अहज़ाब – 33 Surah Al Ahzab
सूरए अहज़ाब मदीने में उतरी. इसमें नौ रूकू, तिहत्तर आयतें, एक हज़ार दो सौ अस्सी कलिमे और पाँच हज़ार सात सौ नब्बे अक्षर हैं.
33 सूरए अहज़ाब – पहला रूकू
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ اتَّقِ اللَّهَ وَلَا تُطِعِ الْكَافِرِينَ وَالْمُنَافِقِينَ ۗ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا
وَاتَّبِعْ مَا يُوحَىٰ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا
وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ ۚ وَكَفَىٰ بِاللَّهِ وَكِيلًا
مَّا جَعَلَ اللَّهُ لِرَجُلٍ مِّن قَلْبَيْنِ فِي جَوْفِهِ ۚ وَمَا جَعَلَ أَزْوَاجَكُمُ اللَّائِي تُظَاهِرُونَ مِنْهُنَّ أُمَّهَاتِكُمْ ۚ وَمَا جَعَلَ أَدْعِيَاءَكُمْ أَبْنَاءَكُمْ ۚ ذَٰلِكُمْ قَوْلُكُم بِأَفْوَاهِكُمْ ۖ وَاللَّهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَهُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ
ادْعُوهُمْ لِآبَائِهِمْ هُوَ أَقْسَطُ عِندَ اللَّهِ ۚ فَإِن لَّمْ تَعْلَمُوا آبَاءَهُمْ فَإِخْوَانُكُمْ فِي الدِّينِ وَمَوَالِيكُمْ ۚ وَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ فِيمَا أَخْطَأْتُم بِهِ وَلَٰكِن مَّا تَعَمَّدَتْ قُلُوبُكُمْ ۚ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا
النَّبِيُّ أَوْلَىٰ بِالْمُؤْمِنِينَ مِنْ أَنفُسِهِمْ ۖ وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ ۗ وَأُولُو الْأَرْحَامِ بَعْضُهُمْ أَوْلَىٰ بِبَعْضٍ فِي كِتَابِ اللَّهِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُهَاجِرِينَ إِلَّا أَن تَفْعَلُوا إِلَىٰ أَوْلِيَائِكُم مَّعْرُوفًا ۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي الْكِتَابِ مَسْطُورًا
وَإِذْ أَخَذْنَا مِنَ النَّبِيِّينَ مِيثَاقَهُمْ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٍ وَإِبْرَاهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۖ وَأَخَذْنَا مِنْهُم مِّيثَاقًا غَلِيظًا
لِّيَسْأَلَ الصَّادِقِينَ عَن صِدْقِهِمْ ۚ وَأَعَدَّ لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا أَلِيمًا
सूरए अहज़ाब मदीने में उतरी, इसमें 73 आयतें और नौ रूकू हैं
पहला रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए अहज़ाब मदीने में उतरी. इसमें नौ रूकू, तिहत्तर आयतें, एक हज़ार दो सौ अस्सी कलिमे और पाँच हज़ार सात सौ नब्बे अक्षर हैं.
ऐ ग़ैब की ख़बरें बताने वाले (नबी) (2)
(2) यानी हमारी तरफ़ से ख़बरें देने वाले, हमारे राज़ों के रखने वाले, हमारा कलाम हमारे प्यारे बन्दों तक पहुंचाने वाले. अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को या अय्युहन्नबीय्यो के साथ सम्बोधित किया जिसके मानी ये हैं जो बयान किये गए. नामे पाक के साथ या मुहम्मद ज़िक्र फ़रमाकर सम्बोधित नहीं किया जैसा कि दूसरे नबियों को सम्बोधित फ़रमाता है. इससे उद्देश्य आपकी इज़्ज़त, आपका सत्कार और सम्मान है और आपकी बुज़ुर्गी का ज़ाहिर करना है. (मदारिक)
अल्लाह का यूंही ख़ौफ़ रखना और काफ़िरों और मुनाफ़िकों (दोग़लों) की न सुनना(3)
(3) अबू सूफ़ियान बिन हर्ब और अकरमह बिन अबी जहल और अबुल अअवर सलमी जंगे उहद के बाद मदीनए तैय्यिबह आए और मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलूल के यहाँ ठहरे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म से बातचीत के लिये, अमान हासिल करके, उन्होंने यह कहा कि आप लात, उज़्ज़ा, मनात वग़ैरह हमारे बुतों को जिन्हें मुश्रिकीन अपना मअबूद समझते हैं, कुछ न कहा कीजिये और यह फ़रमा दीजिये कि उनकी शफ़ाअत उनके पुजारियों के लिये है और हम लोग आप को और आपके रब को कुछ न कहेंगे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को उनकी यह बात बहुत नागवार हुई और मुसलमानों ने उनके क़त्ल का इरादा किया. हुज़ूर ने क़त्ल की इजाज़त न दी और फ़रमाया कि मैं उन्हें अमान दे चुका हूँ इसलिये क़त्ल न करो. मदीना शरीफ़ से निकाल दो. चुनांन्चे हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने निकाल दिया इस पर यह आयत उतरी. इसमे सम्बोधन तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ है और मक़सूद है आपकी उम्मत से फ़रमाना कि जब नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अमान दी तो तुम उसके पाबन्द रहो और एहद तोड़ने का इरादा न करो और काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों की शरीअत विरोधी बात न मानो.
बेशक अल्लाह इल्म व हिकमत (बोध) वाला है {1} और उसकी पैरवी (अनुकरण) रखना जो तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हें वही (देववाणी) होती है, ऐ लोगों अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है{2} और ऐ मेहबूब तुम अल्लाह पर भरोसा रखो और अल्लाह बस है काम बनाने वाला {3} अल्लाह ने किसी आदमी के अन्दर दो दिल न रखे(4)
(4) कि एक में अल्लाह का ख़ौफ़ हो, दूसरे में किसी और का. जब एक ही दिल है तो अल्लाह ही से डरे. अबू मुअम्मर हमीद फ़ेहरी की याददाश्त अच्छी थी जो सुनता था, याद कर लेता था. क़ुरैश ने कहा कि उसके दो दिल हैं जभी तो उसकी स्मरण शक्ति इतनी तेज़ है. वह ख़ुद भी कहता था कि उसके दो दिल हैं और हर एक मे हज़रत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म से ज़्यादा समझ है. जब बद्र में मुश्रिक भागे तो अबू मुअम्मर इस तरह से भागा कि एक जूती हाथ में एक पाँव में, अबू सूफ़ियान से मुलाक़ात हुई तो अबू सुफ़ियान ने पूछा क्या हाल है, कहा लोग भाग गए, तो अबू सुफ़ियान ने पूछा एक जूती हाथ में एक पाँव में क्यों है, कहा इसकी मुझे ख़बर ही नहीं मैं तो यही समझ रहा हूँ कि दोनो जूतियाँ पाँव में हैं. उस वक़्त क़ुरैश को मालूम हुआ कि दो दिल होते तो जूती जो हाथ में लिये हुए था भूल न जाता. और एक क़ौल यह भी है कि मुनाफ़िक़ीन सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिये दो दिल बताते थे और कहते थे कि उनका एक दिल हमारे साथ है और एक अपने सहाबा के साथ है. साथ ही जिहालत के ज़माने में जब कोई अपनी औरत से ज़िहार करता था वो लोग इस ज़िहार को तलाक़ कहते और उस औरत को उसकी माँ क़रार देते थे और जब कोई शख़्स किसी को बेटा कह देता तो उसको हक़ीक़ी बेटा क़रार देकर मीरास में हिस्सेदार ठहराते और उसकी बीबी के बेटा कहने वाले के लिये सगे बेटे की बीवी की तरह हराम जानते. इस सब के रद में यह आयत उतरी.
और तुम्हारी उन औरतों को जिन्हें तुम माँ के बराबर कह दो तुम्हारी माँ न बनाया(5)
(5) यानी ज़िहार से औरत माँ की तरह हराम नहीं हो जाती. ज़िहार यानी मन्कूहा को ऐसी औरत से मिसाल देना जो हमेशा के लिये हराम हो और यह मिसाल ऐसे अंग में हो जिसे देखना और छूना जायज़ नहीं है. जैसे किसी ने अपनी बीबी से यह कहा कि तू मुझपर मेरी माँ की पीठ या पेट की तरह है तो वह ज़िहार वाला हो गया. ज़िहार से निकाह बातिल नहीं होता. लेकिन कफ़्फ़ारा अदा करना लाज़िम हो जाता है. और कफ़्फ़ारा अदा करने से पहले औरत से अलग रहना और उससे सोहबत न करना लाज़िम है. ज़िहार का कफ़्फ़ारा एक ग़ुलाम का आज़ाद करना और यह मयस्सर न हो तो लगातार दो महीने के रोज़े और यह भी न हो सके तो साठ मिस्कीनो को खाना खिलाना है. कफ़्फ़ारा अदा करने के बाद औरत से क़ुर्बत और सोहबत हलाल हो जाती है. (हिदायह)
और न तुम्हारे लेपालकों को तुम्हारा बेटा बनाया(6)
(6) चाहे उन्हें लोग तुम्हारा बेटा कहते हों.
यह तुम्हारे अपने मुंह का कहना है(7)
(7) यानी बीबी को माँ के मिस्ल कहना और ले पालक को बेटा कहना बेहक़ीक़त बात है. न बीबी माँ हो सकती है न दूसरे का बेटा अपना बेटा. नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने जब हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश से निकाह किया तो यहूदी और मुनाफ़िक़ों ने तअने देने शुरू किये और कहा कि मुहम्मद ने अपने बेटे ज़ैद की बीबी से शादी कर ली क्योंकि पहले हज़रत ज़ैनब ज़ैद के निकाह में थीं और हज़रत ज़ैद उम्मुल मुमिनीन हज़रत ख़दीजा रदियल्लाहो अन्हा के ज़रख़रीद थे. उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में उन्हे हिबा कर दिया. हुज़ूर ने उन्हें आज़ाद कर दिया तब भी वह अपने बाप के पास न गए हुज़ूर की ही ख़िदमत में रहे. हुज़ूर उनपर शफ़क़तो करम फ़रमाते थे इसलिये लोग उन्हे हुज़ूर का बेटा कहने लगे. इससे वह हक़ीक़त में हुज़ूर के बेटे न हो गए और यहूदी व मुनाफ़िक़ों का तअना ग़लत और बेजा हुआ. अल्लाह तआला ने यहाँ उन तअना देने वालों को झूटा क़रार दिया.
और अल्लाह हक़ फ़रमाता है और वही राह दिखाता है(8){4}
(8) हक़ की. लिहाज़ा लेपालकों को उनके पालने वालों का बेटा न ठहराओ बल्कि—-
उन्हें उनके बाप ही का कहकर पुकारो(9)
(9) जिनसे वो पैदा हुए.
यह अल्लाह के नज्दीक़ ज़्यादा ठीक है फिर अगर तुम्हें उनके बाप मालूम न हों(10)
(10) और इस वजह से तुम उन्हें उनके बापों की तरफ़ निस्बत न कर सको.
तो दीन में तुम्हारे भाई हैं और बशरियत (आदमी होना) में तुम्हारे चचाज़ाद (11)
(11) तो तुम उन्हें भाई कहो और जिसके लेपालक हैं उसका बेटा न कहो.
और तुम पर इसमें कुछ गुनाह नहीं जो अनजाने में तुमसे हो गुज़रा(12)
(12) मना किये जाने से पहले. या ये मानी हैं कि अगर तुमने लेपालकों को ग़लती से अन्जाने में उनके पालने वालों का बेटा कह दिया या किसी ग़ैर की औलाद को केवल ज़बान की सबक़त से बेटा कहा तो इन सूरतों में गुनाह नहीं.
हाँ वह गुनाह है जो दिल के इरादे से करो(13)
(13) मना किये जाने के बाद.
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {5} यह नबी मुसलमानों का उनकी जान से ज़्यादा मालिक है(14)
(14)दुनिया और दीन के तमाम मामलों में. और नबी का हुक्म उनपर लागू और नबी की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी. और नबी के हुक्म के मुक़ाबले में नफ़्स की ख़्वाहिश का त्याग अनिवार्य. या ये मानी हैं कि नबी ईमान वालों पर उनकी जानों से ज़्यादा मेहरबानी, रहमत और करम फ़रमाते हैं और सबसे ज़्यादा नफ़ा देने वाले हैं. बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया हर मूमिन के लिये दुनिया और आख़िरत में सबसे ज़्यादा औला हूँ अगर चाहो तो यह आयत पढ़ो “अन नबिय्यो औला बिन मूमिनीन” हज़रत इब्दे मसऊल रदियल्लाहो अन्हो की क़िरअत में “मिन अन्फ़ुसिहिम” के बाद “व हुवा अबुल लहुम” भी है. मुजाहिद ने कहा कि सारे नबी अपनी उम्मत के बाप होते हैं और इसी रिश्ते से मुसलमान आपस में भाई कहलाते हैं कि वो अपने नबी की दीनी औलाद हैं.
और उसकी बीबियाँ उनकी माएं हैं(15)
(15) तअज़ीम व हुर्मत में और निकाह के हमेशा के लिये हराम होने में और इसके अलावा दूसरे अहकाम में जैसे कि विरासत और पर्दा वग़ैरह. उनका वही हुक्म है जो अजनबी औरतों का और उनकी बेटियों को मूमिनीन की बहनें और उनके भाईयों और बहनों को मूमिनों के मामूँ और ख़ाला कहा जाएगा.
और रिश्ते वाले अल्लाह की किताब में एक दूसरे से ज़्यादा क़रीब हैं(16)
(16) विरासत में
बनिस्बत और मुसलमानों और मुहाजिरों के (17)
(17) इससे मालूम हुआ कि उलुल अरहाम यानी रिश्ते वाले एक दूसरे के वारिस होते हैं. कोई अजनबी दीनी बिरादरी के ज़रिये से वारिस नहीं होता.
मगर यह कि तुम अपने दोस्तों पर कोई एहसान करो(18)
(18) इस तरह कि जिसको चाहो कुछ वसीयत करो तो वसीयत तिहाई माल के बराबर विरासत पर मुक़द्दस की जाएगी. ख़ुलासा यह है कि पहले माल सगे वारिसों को दिया जाएगा फिर क़रीब के रिश्तेदारों को फिर दूर के रिश्तेदारों को.
यह किताब में लिखा है (19) {6}
(19) यानी लौहे मेहफ़ूज़ में.
और ऐ मेहबूब याद करो जब हमने नबियों से एहद लिया(20)
(20) रिसालत की तब्लीग़ और दीने हक़ की दावत देने का.
और तुम से(21)
(21) ख़ुसूसियत के साथ. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का ज़िक्र दूसरे नबियों पर मुकद्दस करना उन सब पर आपकी फ़ज़ीलत के इज़हार के लिये है.
और नूह और इब्राहीम और मूसा और ईसा मरयम के बेटे से और हमने उनसे गाढ़ा एहद लिया {7} ताकि सच्चों से(22)
(22) यानी नबियों से या उनकी तस्दीक़ करने वालों से.
उनके सच का सवाल करे (23)
(23) यानी जो उन्हो ने अपनी क़ौम से फ़रमाया और उन्हें तब्लीग़ की वह दरियाफ़्त फ़रमाए या ईमान वालों से उनकी तस्दीक़ का सवाल करे या ये मानी हैं कि नबियों को जो उनकी उम्मतों ने जवाब दिये वो पूछे और इस सवाल से मक़सूद काफ़िरों को ज़लील करना और नीचा दिखाना है.
और उसने काफ़िरों के लिये दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है{8}
33 सूरए अहज़ाब – दूसरा रूकू
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا نِعْمَةَ اللَّهِ عَلَيْكُمْ إِذْ جَاءَتْكُمْ جُنُودٌ فَأَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِيحًا وَجُنُودًا لَّمْ تَرَوْهَا ۚ وَكَانَ اللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرًا
إِذْ جَاءُوكُم مِّن فَوْقِكُمْ وَمِنْ أَسْفَلَ مِنكُمْ وَإِذْ زَاغَتِ الْأَبْصَارُ وَبَلَغَتِ الْقُلُوبُ الْحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِاللَّهِ الظُّنُونَا
هُنَالِكَ ابْتُلِيَ الْمُؤْمِنُونَ وَزُلْزِلُوا زِلْزَالًا شَدِيدًا
وَإِذْ يَقُولُ الْمُنَافِقُونَ وَالَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ مَّا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ إِلَّا غُرُورًا
وَإِذْ قَالَت طَّائِفَةٌ مِّنْهُمْ يَا أَهْلَ يَثْرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمْ فَارْجِعُوا ۚ وَيَسْتَأْذِنُ فَرِيقٌ مِّنْهُمُ النَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوْرَةٌ وَمَا هِيَ بِعَوْرَةٍ ۖ إِن يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارًا
وَلَوْ دُخِلَتْ عَلَيْهِم مِّنْ أَقْطَارِهَا ثُمَّ سُئِلُوا الْفِتْنَةَ لَآتَوْهَا وَمَا تَلَبَّثُوا بِهَا إِلَّا يَسِيرًا
وَلَقَدْ كَانُوا عَاهَدُوا اللَّهَ مِن قَبْلُ لَا يُوَلُّونَ الْأَدْبَارَ ۚ وَكَانَ عَهْدُ اللَّهِ مَسْئُولًا
قُل لَّن يَنفَعَكُمُ الْفِرَارُ إِن فَرَرْتُم مِّنَ الْمَوْتِ أَوِ الْقَتْلِ وَإِذًا لَّا تُمَتَّعُونَ إِلَّا قَلِيلًا
قُلْ مَن ذَا الَّذِي يَعْصِمُكُم مِّنَ اللَّهِ إِنْ أَرَادَ بِكُمْ سُوءًا أَوْ أَرَادَ بِكُمْ رَحْمَةً ۚ وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ اللَّهِ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا
۞ قَدْ يَعْلَمُ اللَّهُ الْمُعَوِّقِينَ مِنكُمْ وَالْقَائِلِينَ لِإِخْوَانِهِمْ هَلُمَّ إِلَيْنَا ۖ وَلَا يَأْتُونَ الْبَأْسَ إِلَّا قَلِيلًا
أَشِحَّةً عَلَيْكُمْ ۖ فَإِذَا جَاءَ الْخَوْفُ رَأَيْتَهُمْ يَنظُرُونَ إِلَيْكَ تَدُورُ أَعْيُنُهُمْ كَالَّذِي يُغْشَىٰ عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِ ۖ فَإِذَا ذَهَبَ الْخَوْفُ سَلَقُوكُم بِأَلْسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى الْخَيْرِ ۚ أُولَٰئِكَ لَمْ يُؤْمِنُوا فَأَحْبَطَ اللَّهُ أَعْمَالَهُمْ ۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرًا
يَحْسَبُونَ الْأَحْزَابَ لَمْ يَذْهَبُوا ۖ وَإِن يَأْتِ الْأَحْزَابُ يَوَدُّوا لَوْ أَنَّهُم بَادُونَ فِي الْأَعْرَابِ يَسْأَلُونَ عَنْ أَنبَائِكُمْ ۖ وَلَوْ كَانُوا فِيكُم مَّا قَاتَلُوا إِلَّا قَلِيلًا
ऐ ईमान वालो अल्लाह का एहसान अपने ऊपर याद करो(1)
(1) जो उसने जंगे अहज़ाब के दिन फ़रमाया जिसको ग़ज़बए ख़न्दक़ कहते है जो उहद की जंग से एक साल बाद था जबकि मुसलमानों का नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ मदीनए तैय्यिबह में घिराव कर लिया गया था.
जब तुम पर कुछ लश्कर आए(2)
(2) क़ुरैश और ग़तफ़ान और कुरैज़ा और नुज़रै के यहूदियों के.
तो हमने उनपर आंधी और वो लश्कर भेजे जो तुम्हें नज़र न आए(3)
(3) यानी फ़रिश्तों के लश्कर.
ग़जबए अह़ज़ाब का संक्षिप्त विवरण– ये ग़ज़वा शव्वाल चार या पाँच हिजरी में पेश आया जब गनी नुज़ैर के यहूदियों को जिला – वतन किया गया तो उनके बड़े मक्कए मुकर्रमा में क़ुरैश के पास पहुंचे और उन्हें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ जंग की तरग़ीब दिलाई और वादा किया कि हम तुम्हारा साथ देंगे यहाँ तक कि मुसलमान नैस्तोनाबूद हो जाएं. अबू सूफ़ियान ने इस तहरीक़ की बड़ी क़द्र की और कहा कि हमें दुनिया में वह प्यारा है जो मुहम्मद की दुश्मनी में हमारा साथ दे. फिर क़ुरैश ने उन यहूदियों से कहा कि तुम पहली किताब वाले हो बताओ तो हम हक़ पर है या मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम). यहूद ने कहा तुम्हीं हक़ पर हो. इसपर क़ुरैश बहुत ख़ुश हुए. इसी पर आयत उतरी “अलम तरा इलल लज़ीना ऊतू नसीबम मिनल किताबे यूमिनूना बिल जिब्ते वत ताग़ूते” (यानी क्या तुमने वो न देखे जिन्हें किताब का एक हिस्सा मिला, ईमान लाते हैं बुत और शैतान पर – सूरए निसा, आयत 11). फिर यहूदी ग़तफ़ान और कै़स और ग़ीलान क़बीलों में गए और वहाँ भी यही तहरीक की. वो सब उनसे सहमत हो गए. इस तरह उन्होंने जगह जगह दौरे किये और अरब के क़बीले क़बीले को मुसलमानों के ख़िलाफ़ तैयार कर लिया.
जब सब लोग तैयार हो गए तो ख़ुज़ाआ कबीले के कुछ लोगों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को काफ़िरों की इन ज़बरदस्त तैयारियों की सूचना दी. यह सूचना पाते ही हुज़ूर ने हज़रत सलमान फ़ारसी रदियल्लाहो अन्हो की सलाह से ख़न्दक़ खुदवानी शुरू कर दी. इस ख़न्दक़ में मुसलमानों के साथ सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ख़ुद भी काम किया. मुसलमानों ने ख़न्दक़ की ख़ुदाई का काम पूरा ही किया था कि मुश्रिकीन बारह हज़ार का भारी लश्कर लेकर उनपर टूट पड़े और मदीनए तैय्यिबह का घिराव कर लिया. ख़न्दक़ मुसलमानों के और उनके बीच हाइल थी. उसको देखकर आश्चर्य में पड़ गए और कहने लगे कि यह ऐसी तदबीर है जिससे अरब लोग अब तक परिचित न थे. अब उन्होंने मुसलमानों पर तीर बरसाने शुरू किये और इस घिराव को पन्द्रह दिन या चौबीस दिन गुज़रे. मुसलमानों पर ख़ौफ़ ग़ालिब हुआ और वो बहुत घबराए और परेशान हुए तो अल्लाह तआला ने मदद फ़रमाई और तेज़ हवा भेजी, बहुत सर्द और अन्धेरी रात में हवा ने दुश्मनों के ख़ैमे गिरा दिये, तनाबें तोड़ दीं, खूंटे उखाड़ दिये, हाँडिया उलट दीं, आदमी ज़मीन पर गिरने लगे और अल्लाह तआला ने फ़रिश्ते भेज दिये जिन्होंने काफ़िरों को लरज़ा दिया और उनके दिलों में दहशत डाल दी. मगर इस जंग में फ़रिश्तों ने मार काट नहीं की. फिर रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हुज़ैफ़ा बिन यमान को ख़बर लेने के लिये भेजा. मौसम अत्यन्त ठण्डा था. यह हथियार लगाकर रवाना हुए. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने चलते वक़्त उनके चेहरे और बदन पर दस्ते मुबारक फेरा जिससे उनपर सर्दी असर न कर सकी और यह दुश्मन के लश्कर में पहुंच गए. वहाँ हवा तेज़ चल रही थी. काफ़िरों के लश्कर के सरदार अबू सुफ़ियान हवा की यह दशा देखकर उठे और उन्होंने क़ुरैश को पुकार कर कहा कि जासूसों से होशियार रहना. हर शख़्स अपने बराबर वाले को देख ले. यह ऐलान होने के बाद हर शख़्स ने अपने बराबर वाले को टटोलना शुरू किया. हज़रत हुज़ैफ़ा ने समझदारी से अपने दाई तरफ़ वाले व्यक्ति का हाथ पकड़ कर पूछा तू कौन है उसने कहा मैं फ़लाँ बिन फ़लाँ हूँ. इसके बाद अबू सुफ़ियान ने कहा ऐ गिरोह क़ुरैश तुम ठहरने के मक़ाम पर नहीं हो. घोड़े और ऊंट हलाक हो चुके बनी क़ुरैज़ा अपने एहद से फिर गए और हमें उनकी तरफ़ से चिन्ता जनक ख़बरें पहुंची हैं. हवा ने जो हाल किया है वह तुम देख ही रहे हो. बस अब यहाँ से कूच कर दो. मैं कूच करता हूँ. यह कहकर अबू सुफ़ियान अपनी ऊंटनी पर सवार हो गए लश्कर में कूच कूच का शोर मच गया. हवा हर चीज़ को उलटे डालती थी. मगर यह हवा इस लश्कर से बाहर न थी. अब यह लश्कर भाग निकला और सामान का लाद कर ले जाना उसको बोझ हो गया. इसलिये बहुत सा सामान छोड़ गया. (जुमल).
और अल्लाह तुम्हारे काम देखता है (4){9}
(4) यानी तुम्हारा ख़न्दक़ और नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की फ़रमाँबरदारी में साबित क़दम रहना.
जब काफ़िर तुम पर आए तुम्हारे ऊपर से और तुम्हारे नीचे से (5)
(5) यानी घाटी की ऊपरी ओर पूर्व से असद और ग़तफ़ान क़बीलों के लोग मालिक बिन औंफ़ नसरी और ऐनिया बिन हिरन फ़राज़ी की सरदारी में एक हज़ार का समूह लेकर और उनके साथ तलीहा बिन ख़ुवेलिद असदी बनी असद का समूह लेकर और हयई बिन अख़तब बनी क़ुरैज़ा के यहूदियों का समूह लेकर और घाटी की निचली और पश्चिम से क़ुरैश और कनानह अबू सुफ़ियान बिन हर्ब के नेतृत्व में.
और जब कि ठिठक कर रह गई निगाहें (6)
(6) और रोअब और हैबत की सख़्ती से हैरत में आ गई.
और दिल गलों के पास आ गए (7)
(7) ख़ौफ़ और बेचैनी चरम सीमा को पहुंच गई.
और तुम अल्लाह पर तरह तरह के गुमान करने लगे (उम्मीद और आस के) (8){10}
(8) मुनाफ़िक़ तो यह गुमान करने लगे कि मुसलमानों का नामों निशान बाक़ी न रहेगा. काफ़िरों की इतनी बड़ी भीड़ सब को नष्ट कर डालेगी और मुसलमानों को अल्लाह तआला की तरफ़ से मदद आने और अपने विजयी होने की उम्मीद थी.
वह जगह थी कि मुसलमानों की जांच हुई (9)
(9) और उनके सब्र और निष्ठा का परीक्षण किया गया.
और ख़ूब सख़्ती से झंझोड़े गए {11} और जब कहने लगे मुनाफ़िक़ और जिनके दिलों में रोग था (10)
(10)यानी अक़ीदे की कमज़ोरी.
हमें अल्लाह व रसूल ने वादा न दिया था मगर फ़रेब का(11) {12}
(11) ये बात मअतब बिन क़ुरैश ने काफ़िरों के लश्कर को देखकर कही थी कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) तो हमें फ़ारस और रूम की विजय का वादा देते हैं और हाल यह है कि हम में से किसी की मज़ाल भी नहीं कि अपने डेरे से बाहर निकल सके, तो यह वादा निरा धोखा है.
और जब उनमें से एक गिरोह ने कहा(12)
(12) यानी मुनाफ़िक़ों के एक गिरोह ने.
ऐ मदीना वालो(13)
(13)यह क़ौल मुनाफ़िक़ों का है. उन्होंने मदीनए तैय्यिबह को यसरब कहा. मुसलमानों को यसरब नहीं कहना चाहिये. हदीस शरीफ़ में मदीनए तैय्यिबह को यसरब कहने से मना फ़रमाया गया है. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को नागवार था कि मदीनए पाक को यसरब कहा जाए क्योंकि यसरब के मानी अच्छे नहीं है.
यहाँ तुम्हारे ठहरने की जगह नहीं(14)
(14) यानी रसूले पाक सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लश्कर में.
तुम घरों को वापस चलो, और उनमें से एक गिरोह(15)
(15) यानी बनी हारिस और बनी सलमा.
नबी से इज़्न (आज्ञा) मांगता था यह कहकर कि हमारे घर बेहिफ़ाज़त हैं और वो बेहिफ़ाज़त न थे, वो तो न चाहते थे मगर भागना {13} और अगर उनपर फ़ौज़ें मदीनें के अतराफ़ से आती फिर उनसे कुफ़्र चाहतों तो ज़रूर उनका मांगा दे बैठते(16)
(16) यानी इस्लाम से फिर जाते.
और उसमें देर न करते मगर थोड़ी {14} और बेशक इससे पहले अल्लाह से एहद कर चुके थे कि पीठ न फेरेंगे, और अल्लाह का एहद पूछा जाएगा (17){15}
(17) यानी आख़िरत में अल्लाह तआला उसको दरियाफ़्त फ़रमाएगा कि क्यों पूरा नहीं किया गया.
तुम फ़रमाओ हरगिज़ तुम्हें भागना नफ़ा न देगा अगर मौत या क़त्ल से भागों(18)
(18) क्योंकि जो लिखा है वह ज़रूर होकर रहेगा.
और जब भी दुनिया न बरतने दिये जाओगे मगर थोड़ी(19) {16}
(19)यानी अगर वक़्त नहीं आया है तो भी भागकर थोड़े ही दिन, जितनी उम्र बाक़ी है उतने ही दुनिया को बरतोगे और यह एक थोड़ी सी मुद्दत है.
तुम फ़रमाओ वह कौन है जो अल्लाह का हुक्म तुम पर से टाल दे और अगर वह तुम्हारा बुरा चाहे(20)
(20) यानी उसको तुम्हारा क़त्ल और हलाकत मन्ज़ूर होतो उसको कोई दफ़ा नहीं कर सकता.
या तुम पर मेहरबानी (रहम) फ़रमाना चाहे(21)
(21) अम्न और आफ़ियत अता फ़रमाकर.
और वो अल्लाह के सिवा कोई हामी न पाएंगे न मददगार {17} बेशक अल्लाह जानता है तुम्हारे उन को जो औरों को जिहाद से रोकते हैं और अपने भाइयों से कहते हैं हमारी तरफ़ चले आओ (22)
(22) और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को छोड़ दो, उनके साथ जिहाद में न रहो. इसमें जान का ख़तरा है. यह आयत मुनाफ़िक़ों के हक़ में उतरी. उनके पास यहूदियों ने संदेश भेजा था कि तुम क्यों अपनी जानें अबू सुफ़ियान के हाथों से हलाक करना चाहते हो. उसके लश्करी इस बार अगर तुम्हें पा गए तो तुम में से किसी को बाक़ी न छोड़ेंगे. हमें तुम्हारा अन्देशा है. तुम हमारे भाई और पड़ौसी हो. हमारे पास आजाओ. यह ख़बर पाकर अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलूल मुनाफ़िक़ और उसके साथी ईमान वालों को अबू सुफ़ियान और उसके साथियों से डरा कर रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का साथ देने से रोकने लगे और इसमें उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन जिस क़द्र उन्होंने कोशिश की, ईमान वालों की दृढ़ता और इरादा और बढ़ता गया.
और लड़ाई में नहीं आते मगर थोड़े (23){18}
(23) रियाकारी और दिखावट के लिये.
तुम्हारी मदद में गई (कमी) करते हैं, फिर जब डर का वक़्त आए तुम उन्हें देखोगे तुम्हारी तरफ़ यूं नज़र करते हैं कि उनकी आँखें घूम रही हैं जैसे किसी पर मौत छाई हो, फिर जब डर का वक़्त निकल जाए (24)
(24)और अम्न और माल हासिल हो.
तुम्हें तअने देने लगें तेज़ ज़बानों से माले-ग़नीमत के लालच में(25)
(25) और ये कहें हमें ज़्यादा हिस्सा दो. हमारी ही वजह से तुम विजयी हुए हो.
ये लोग ईमान लाए ही नहीं (26)
(26) हक़ीक़त में अगरचे उन्होंने ज़बान से ईमान का इज़हार किया.
तो अल्लाह ने उनके अमल (कर्म) अकारत कर दिये(27)
(27) यानी चूंकि वास्तव में वो ईमान वाले न थे इसलिये उनके सारे ज़ाहिरी कर्म जिहाद वग़ैरह सब बातिल कर दिये.
और यह अल्लाह को आसान है {19} वो समझ रहे हैं कि काफ़िरों के लश्कर अभी न गए(28)
(28) यानी मुनाफ़िक़ लोग अपनी कायरता और नामर्दी से अभी तक यह समझ रहे हैं कि क़ुरैश के काफ़िर और ग़तफ़ान और यहूदी वग़ैरह अभी तक मैदान छोड़कर भागे नहीं हैं अगरचे हक़ीक़ते हाल यह है कि वो फ़रार हो चुके.
और अगर लश्कर दोबारा आएं तो उनकी (29)
(29) यानी मुनाफ़िक़ों की अपनी नामर्दी के कारण यही आरज़ू और–
ख़्वाहिश होगी कि किसी तरह गाँव में निकल कर(30)
(30) मदीनए तैय्यिबह के आने जाने वाले से.
तुम्हारी ख़बरें पूछते (31)
(31) कि मुसलमानों का क्या अंजाम हुआ. काफ़िरों के मुक़ाबले में उनकी क्या हालत रही.
और अगर वो तुम में रहते जब भी न लड़ते मगर थोड़े (32) {20}
(32) रियाकारी और उज्र रखने के लिये, ताकि यह कहने का मौक़ा मिल जाए कि हम भी तो तुम्हारे साथ जंग में शरीक थे.
33 सूरए अहज़ाब – तीसरा रूकू
لَّقَدْ كَانَ لَكُمْ فِي رَسُولِ اللَّهِ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِّمَن كَانَ يَرْجُو اللَّهَ وَالْيَوْمَ الْآخِرَ وَذَكَرَ اللَّهَ كَثِيرًا
وَلَمَّا رَأَى الْمُؤْمِنُونَ الْأَحْزَابَ قَالُوا هَٰذَا مَا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَصَدَقَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ ۚ وَمَا زَادَهُمْ إِلَّا إِيمَانًا وَتَسْلِيمًا
مِّنَ الْمُؤْمِنِينَ رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ ۖ فَمِنْهُم مَّن قَضَىٰ نَحْبَهُ وَمِنْهُم مَّن يَنتَظِرُ ۖ وَمَا بَدَّلُوا تَبْدِيلًا
لِّيَجْزِيَ اللَّهُ الصَّادِقِينَ بِصِدْقِهِمْ وَيُعَذِّبَ الْمُنَافِقِينَ إِن شَاءَ أَوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًا
وَرَدَّ اللَّهُ الَّذِينَ كَفَرُوا بِغَيْظِهِمْ لَمْ يَنَالُوا خَيْرًا ۚ وَكَفَى اللَّهُ الْمُؤْمِنِينَ الْقِتَالَ ۚ وَكَانَ اللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزًا
وَأَنزَلَ الَّذِينَ ظَاهَرُوهُم مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مِن صَيَاصِيهِمْ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ فَرِيقًا تَقْتُلُونَ وَتَأْسِرُونَ فَرِيقًا
وَأَوْرَثَكُمْ أَرْضَهُمْ وَدِيَارَهُمْ وَأَمْوَالَهُمْ وَأَرْضًا لَّمْ تَطَئُوهَا ۚ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرًا
बेशक तुम्हें अल्लाह के रसूल की पैरवी बेहतर है(1)
(1) उनका अच्छी तरह अनुकरण करो और अल्लाह के दीन की मदद करो और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का साथ न छोड़ो और मुसीबतों पर सब्र करो और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सुन्नतों पर चलो. यह बेहतर है.
उसके लिये कि अल्लाह और पिछले दिन की उम्मीद रखता हो और अल्लाह को बहुत याद करे(2){21}
(2) हर अवसर पर उसका ज़िक्र करे, ख़ुशी में भी, ग़म में भी. तंगी में भी, ख़ुशहाली में भी.
और जब मुसलमानों ने काफ़िरों के लश्कर देखे बोले यह है वह जो हमें वादा दिया था अल्लाह और उसके रसूल ने(3)
(3) कि तुम्हें सख़्ती और बला पहुंचेगी और तुम परीक्षा में डाले जाओगे और पहलों की तरह तुम पर सख़्तियाँ आएंगी और लश्कर जमा हो हो कर तुम पर टूटेंगे और अन्त में तुम विजयी होंगे और तुम्हारी मदद फ़रमाई जाएगी जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है: – “अम हसिबतुम अन तदख़ुलुल जन्नता व लम्मा यातिकुम मसलुल लज़ीना खलौ मिन क़बलिकुम” यानी क्या इस गुमान में हो कि जन्नत में चले जाओगे और अभी तुम पर अगलों की सी रूदाद न आई – (सूरए बक़रह, आयत 214). और हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपने सहाबा से फ़रमाया कि पिछली नौ या दस रातों में लश्कर तुम्हारी तरफ़ आने वाले हैं. जब उन्हों ने देखा कि उस मीआद पर लश्कर आ गए तो कहा यह है वह जो हमें अल्लाह और उसके रसूल ने वादा दिया था.
और सच फ़रमाया अल्लाह और उसके रसूल ने(4)
(4) यानी जो उसके वादे है, सब सच्चे हैं, सब यक़ीनन वाक़े होंगे. हमारी मदद भी होगी, हमें विजय भी दी जाएगी और मक्कए मुकर्रमा और रूम और फ़ारस भी फ़त्ह होंगे.
और उससे उन्हें न बढ़ा मगर ईमान और अल्लाह की रज़ा पर राज़ी होना{22} मुसलमानों में कुछ वो मर्द हैं जिन्होंने सच्चा कर दिया जो एहद अल्लाह से किया था(5)
(5) हज़रत उस्मान ग़नी और हज़रत तलहा और हज़रत सईद बिन जैद और हज़रत हमज़ा और हज़रत मुसअब वग़ैरह रदियल्लाहो अन्हुम ने नज्र मानी थी कि वो जब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ जिहाद का मौक़ा पाएंगे तो डटे रहेंगे यहाँ तक कि शहीद हो जाएं. उनकी निस्बत इस आयत में इरशाद हुआ कि उन्होंने अपना वादा सच्चा कर दिखाया.
तो उनमें कोई अपनी मन्नत पूरी कर चुका(6)
(6) जिहाद पर डटा रहा यहाँ तक कि शहीद हो गया जैसे कि हज़रत हमज़ा और हज़रत मुसअब रदियल्लाहो अन्हुमा.
और कोई राह देख रहा है(7)
(7) और शहादत का इन्तिज़ार कर रहा है जैसे कि हज़रत उस्मान और हज़रत तलहा रदियल्लाहो अन्हुमा.
और वो ज़रा न बदले(8){23}
(8) अपने एहद पर वैसे ही डटे रहे. शहीद हो जाने वाले भी और शहादत का इन्तिज़ार करने वाले भी. उन मुनाफ़िक़ों और दिल के बीमार लोगों पर धिक्कार है जो अपने एहद पर क़ायम न रहे.
ताकि अल्लाह सच्चों को उनके सच का सिला दे और मुनाफ़िक़ों को अज़ाब करे अगर चाहे या उन्हें तौबह दे, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {24} और अल्लाह ने काफिरों को(9)
(9) यानी क़ुरैश और ग़तफ़ान के लश्करों का, जिनका ऊपर ज़िक्र हो चुका है.
उनके दिलों की जलन के साथ पलटाया कि कुछ भला न पाया (10)
(10) नाकाम और नामुराद वापस हुए.
और अल्लाह ने मुसलमानों को लड़ाई की किफ़ायत फ़रमादी (11)
(11) कि दुश्मन फ़रिश्तों की तकबीरों और हवा की तीव्रता से भाग निकले.
और अल्लाह ज़बरदस्त इज़्ज़त वाला है {25} और जिन किताब वालों ने उनकी मदद की थी(12)
(12) यानी बनी कुरैज़ा ने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुकाबले में कुरैश और ग़तफ़ान वग़ैरह की मदद की थी.
उन्हें उनके क़िलों से उतारा (13)
(13) इसमें ग़ज़वए बनी कुरैजा का बयान है.
ग़ज़वए बनी कुरैज़ा – यह ज़ी-क़अदह सन चार सन पाँच हिजरी के आख़िर में हुआ, जब ग़ज़वए ख़न्दक़ में रात को विरोधियों के लश्कर भाग गए जिसका ऊपर की आयतों में बयान हुआ है, उस रात की सुबह को रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और सहाबा मदीनए तैय्यिबह में तशरीफ़ लाए और हथियार उतार दिये. उस रोज़ ज़ोहर के वक़्त हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का सरे मुबारक धोया जा रहा था, जिब्रईले अमीन हाज़िर हुए और उन्होंने अर्ज़ किया कि हुज़ूर ने हथियार रख दिये. फ़रिश्तों ने चालीस रोज़ से हथियार नहीं रखे हैं. अल्लाह तआला आपको बनी क़ुरैज़ा की तरफ़ जाने का हुक्म फ़रमाता है. हुज़ूर ने हुक्म फ़रमाया कि पुकार लगा दी जाए बनी क़ुरैज़ा में जाकर, हुज़ूर यह फ़रमा कर रवाना हो गए. और मुसलमान चलने शुरू हुए और एक के बाद दूसरे हुज़ूर की ख़िदमत में पहुंचते रहे यहाँ तक कि कुछ लोग ईशा नमाज़ के बाद पहुंचे लेकिन उन्होंने उस वक़्त तक अस्र की नमाज़ नहीं पढ़ी थी क्योंकि हुज़ूर ने बनी क़ुरैज़ा में पहुंच कर अस्र की नमाज़ पढ़ने का हुक्म फ़रमाया था इसलिये उस रोज़ उन्होंने अस्र की नमाज़ ईशा के बाद पढ़ी और इसपर न अल्लाह तआला ने उनकी पकड़ फ़रमाई न रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने. इस्लामी लश्कर ने पच्चीस दिनों तक बनी क़ुरैज़ा का घिराव रखा. इससे वो तंग हो गए और अल्लाह तआला ने उनके दिलों में रोअब डाला. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनसे फ़रमाया कि तुम मेरे हुक्म पर किलों से उतरोगे? उन्होंने इन्कार किया तो फ़रमाया क्या क़बीला औस के सरदार सअद बिन मआज़ के हुक्म पर उतरोगे? इसपर वह राज़ी हुए और सअद बिन मआज़ को उनके बारे में हुक्म देने पर मामूर किया. हज़रत सअद ने हुक्म दिया कि मर्द क़त्ल कर दिये जाएं, औरतें और बच्चे क़ैद किये जाएं. फिर मदीने के बाज़ार में ख़न्दक़ खोदी गई और वहाँ लाकर उन सब की गर्दन मार दी गई. उन लोगों में बनी नुज़ैर क़बीले का मुखिया कअब बिन असद भी था और ये लोग छ सौ या सात सौ जवान थे जो गर्दने काटकर ख़न्दक़ में डाल दिये गए. (मदारिक व जुमल)
और उनके दिलों में रोब डाला उनमें एक गिरोह को तुम क़त्ल करते हो(14)
(14) यानी मुक़ातिलीन को.
और एक गिरोह को क़ैद (15) {26}
(15) औरतों और बच्चों को.
और हमने तुम्हारे हाथ लगाए उनकी ज़मीन और उनके मकान और उनके माल(16)
(16) नक्द और सामान और मवेशी, सब मुसलमानों के क़ब्ज़े में आई.
और वह ज़मीन जिसपर तुमने अभी क़दम नहीं रखा है(17) और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है {27}
(17) इस ज़मीन से मुराद ख़ैबर है जो क़ुरैज़ा की जीत के बाद मुसलमानों के क़ब्ज़े में आया या वह हर ज़मीन मुराद है जो क़यामत तक फ़त्ह होकर मुसलमानों के क़ब्ज़े में आने वाली है.
33 सूरए अहज़ाब – चौथा रूकू
ا أَيُّهَا النَّبِيُّ قُل لِّأَزْوَاجِكَ إِن كُنتُنَّ تُرِدْنَ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيْنَ أُمَتِّعْكُنَّ وَأُسَرِّحْكُنَّ سَرَاحًا جَمِيلًا
وَإِن كُنتُنَّ تُرِدْنَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَالدَّارَ الْآخِرَةَ فَإِنَّ اللَّهَ أَعَدَّ لِلْمُحْسِنَاتِ مِنكُنَّ أَجْرًا عَظِيمًا
يَا نِسَاءَ النَّبِيِّ مَن يَأْتِ مِنكُنَّ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ يُضَاعَفْ لَهَا الْعَذَابُ ضِعْفَيْنِ ۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرًا
۞ وَمَن يَقْنُتْ مِنكُنَّ لِلَّهِ وَرَسُولِهِ وَتَعْمَلْ صَالِحًا نُّؤْتِهَا أَجْرَهَا مَرَّتَيْنِ وَأَعْتَدْنَا لَهَا رِزْقًا كَرِيمًا
يَا نِسَاءَ النَّبِيِّ لَسْتُنَّ كَأَحَدٍ مِّنَ النِّسَاءِ ۚ إِنِ اتَّقَيْتُنَّ فَلَا تَخْضَعْنَ بِالْقَوْلِ فَيَطْمَعَ الَّذِي فِي قَلْبِهِ مَرَضٌ وَقُلْنَ قَوْلًا مَّعْرُوفًا
وَقَرْنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجَاهِلِيَّةِ الْأُولَىٰ ۖ وَأَقِمْنَ الصَّلَاةَ وَآتِينَ الزَّكَاةَ وَأَطِعْنَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا
وَاذْكُرْنَ مَا يُتْلَىٰ فِي بُيُوتِكُنَّ مِنْ آيَاتِ اللَّهِ وَالْحِكْمَةِ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ لَطِيفًا خَبِيرًا
ऐ ग़ैब बताने वाले (नबी) अपनी बीबियों से फ़रमा दो अगर तुम दुनिया की ज़िन्दगी और इसकी आरायश चाहती हो(1)
(1) यानी अगर तुम्हें बहुत सारा माल और ऐश के साधन दरकार हैं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की पाक बीबियों ने आपसे दुनियावी सामान तलब किये और गुज़ारे के ख़र्च को बढ़ाने की दरख़्वास्त की. यहाँ तो पाकीज़गी अपनी चरम सीमा पर थी और दुनिया का सामान जमा करना गवारा ही न था इस लिये यह तलब सरकार के दिल पर बोझ हुई. और तब यह आयत उतरी और हुज़ूर की मुक़द्दस बीबियों को समझाया गया. उस वक़्त हुज़ूर की नौ बीबियाँ थीं. पाँच क़ुरैश से, हज़रत आयशा बिन्ते अबी बक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो, हज़रत हफ़सा बिन्ते उमरे फ़ारूक़, उम्मे हबीबह बिन्ते अबू सुफ़ियान, उम्मे सलमा बिन्ते अबी उमैया, सौदह बिन्ते ज़म्अह और चार बीबियाँ ग़ैर क़ुरैश, ज़ैनब बिन्ते जहश असदियह, मेमूनह बिन्ते हारिस हिलालियह, सफ़ियह बिन्ते हयई बिन अख़्तब खै़बरियह, जवैरियह बिन्हे हारिस मुस्तलिक़ियह (सबसे अल्लाह तआला राज़ी). सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने सबसे सलाह करके आयशा रदियल्लाहो अन्हा को यह आयत सुनाकर इख़्तियार दिया और फ़रमाया कि जल्दी न करो अपने माँ बाप से से सलाह करके जो राय हो उस पर अमल करो. उन्होंने अर्ज़ किया, हुज़ूर के मामले में सलाह कैसी, मैं अल्लाह को और उसके रसूल को और आख़िरत को चाहती हूँ, और बाक़ी बीबियों ने भी यही जवाब दिया. जिस औरत को इख़्तियार दिया जाए वह अगर अपने शौहर को इख़्तियार करे तो तलाक़ वाक़े नहीं होती और अगर अपने नफ़्स को इख़्तियार करे तो हमारे नज़दीक तलाक़े बाइन वाक़े हो जाती है.
तो आओ मैं तुम्हें माल दूँ (2)
(2) जिस औरत के साथ निकाह के बाद सोहबत हुई हो उसको तलाक़ दी जाए तो कुछ सामान देना मुस्तहब है और वह सामान तीन कपड़ों का जोड़ा होता है. यहाँ माल से वही मुराद है. जिस औरत का मेहर निर्धारित न किया गया हो उसको सोहबत से पहले तलाक़ दी तो यह जोड़ा देना वाजिब है.
और अच्छी तरह छोड़ दूं(3) {28}
(3) बग़ैर किसी नुक़सान के.
और अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत का घर चाहती हो तो बेशक अल्लाह ने तुम्हारी नेकी वालियों के लिये बड़ा अज्र तैयार कर रखा है {29} ऐ नबी की बीबियों जो तुममें खुली शर्म के ख़िलाफ़ कोई जुरअत करे (4)
(4) जैसे कि शौहर की फ़रमाँबरदारी में कमी करना और उसके साथ दुर्व्यवहार करना, क्योंकि बदकारी से अल्लाह तआला नबियों की बीबियों को पाक रखता है.
उसपर औरों से दूना अज़ाब होगा (5)और यह अल्लाह को आसान है {30}
(5) क्योंकि जिस शख़्स की फ़ज़ीलत ज़्यादा होती है उससे अगर क़ुसूर वाक़े हो तो वह क़ुसूर भी दूसरों के क़ुसूर से ज़्यादा सख़्त क़रार दिया जाता है. इसीलिये आलिम का गुनाह जाहिल के गुनाह से ज़्यादा बुरा होता है और इसी लिये आज़ादों की सज़ा शरीअत में ग़ुलामों से ज़्यादा मुक़र्रर है. और नबी अलैहिस्सलातो वस्सलाम की बीबियाँ सारे जगत की औरतों से ज़्यादा बुज़ुर्गी रखती हैं इसलिये उनकी थोड़ी सी बात सख़्त पकड़ के क़ाबिल है. “फ़ाहिशा” यानी हया के ख़िलाफ़ खुली जुरअत का शब्द जब मअरिफ़ह होकर आए तो उससे ज़िना और लिवातत मुराद होती है और अगर नकरह ग़ैर मौसूफ़ह होकर लाया जाए तो उससे सारे गुनाह मुराद होते हैं और जब मौसूफ़ होकर आए तो उससे शौहर की नाफ़रमानी और उससे लड़ना झगड़ना मुराद होता है. इस आयत में नकरह मौसूफ़ह है इसीलिये इससे शौहर की इताअत में कमी और उससे दुर्व्यवहार मुराद है जैसा कि हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से नक़्ल किया गया है. (जुमल वगै़रह)
पारा इक्कीस समाप्त
बाईसवाँ पारा – व मैंय-यक़नुत
(सूरए अहज़ाब जारी)
और(6)
(6) ऐ नबी अलैहिस्सलातो वस्सलाम की बीबियो.
जो तुम में फ़रमाँबरदार रहे अल्लाह और रसूल की और अच्छा काम करे हम उसे औरों से दूना सवाब देंगे(7)
(7) यानी अगर औरों को एक नेकी पर दस गुना सवाब देंगे तो तुम्हें बीस गुना, क्योंकि सारे जगत की औरतों में तुम्हें अधिक सम्मान और बुज़ुर्गी हासिल है और तुम्हारे अमल में भी दो क़िस्में हैं एक इताअत की अदा, दूसरे रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को राज़ी रखने की कोशिश और क़नाअत और अच्छे व्यवहार के साथ हुज़ूर को ख़ुश करना.
और हमने उसके लिये इज़्ज़त की रोज़ी तैयार कर रखी है (8){31}
(8) जन्नत में.
ऐ नबी की बीबियों तुम और औरतों की तरह नहीं हो(9)
(9) तुम्हारा दर्जा सबसे ज़्यादा है और तुम्हारा इनाम सबसे बढ़कर. जगत की औरतों में कोई तुम्हारे बराबर की नहीं.
अगर अल्लाह से डरो तो बात में ऐसी नर्मी न करो कि दिल का रोगी कुछ लालच करे(10)
(10) इसमें अदब की तालीम है कि अगर ज़रूरत के हिसाब से किसी ग़ैर मर्द से पर्दे के पीछे से बात करनी पड़े तो कोशिश करो कि लहजे में नज़ाकत न आने पाए और बात में लोच न हो. बात बहुत ही सादगी से की जाए. इज़्ज़त वाली महिलाओ के लिये यही शान की बात है.
हाँ अच्छी बात कहो(11) {32}
(11) दीन और इस्लाम की और नेकी की तालीम और नसीहत व उपदेश की, अगर ज़रूरत पेश आए, मगर बेलोच लहजे से.
और अपने घरों में ठहरी रहो और बेपर्दा न रहो जैसे अगली जाहिलियत की बेपर्दगी(12)
(12) अगली जिहालत से मुराद इस्लाम से पहले का ज़माना है. उस ज़माने में औरतें इतराती हुई निकलती थीं, अपनी सजधज और श्रंगार का इज़हार करती थीं कि अजनबी मर्द देखें, लिबास ऐसे पहनती थीं जिनसे बदन के अंग अच्छी तरह न छुपें और पिछली जिहालत से आख़िरी ज़माना मुराद है जिसमें लोगों के कर्म पहलों की तरह हो जाएंगे.
और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो और अल्लाह और रसूल का हुक्म मानो, अल्लाह तो यही चाहता है ऐ नबी के घर वालों कि तुम से हर नापाकी दूर फ़रमा दे और तुम्हें पाक करके ख़ूब सुथरा कर दे(13){33}
(13) यानी गुनाहों की गन्दगी से तुम प्रदूषित न हो. इस आयत से एहले बैत की फ़ज़ीलत साबित होती है. और एहले बैत में नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म की बीबियाँ और हज़रत ख़ातूने जन्नत बीबी फ़ातिमा ज़हरा और अली मुर्तज़ा और हसनैन करीमैन (यानी सैयदना इमाम हसन और सैयदना इमाम हुसैन) रदियल्लाहो अन्हुम सब दाख़िल हैं. आयतों और हदीसों को जमा करने से यही नतीजा निकलता है और यही हज़रत इमाम अबू मन्सूर मातुरीदी रहमतुल्लाह अलैह से नक़्ल किया गया है. इन आयतों में एहले बैते रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को नसीहत फ़रमाई गई है ताकि वो गुनाहों से बचें और तक़वा और परहेज़गारी के पाबन्द रहें. गुनाहों को नापाकी से और परहेज़गारी को पाकी से उपमा दी गई क्योंकि गुनाह करने वाला उनसे ऐसा ही सना होता है जैसा शरीर गन्दगी से. इस अन्दाज़े कलाम से मक़सद यह है कि समझ वालों को गुनाहों से नफ़रत दिलाई जाए और तक़वा व परहेज़गारी की तरग़ीब दी जाए.
और याद करो जो तुम्हारे घरों में पढ़ी जाती हैं अल्लाह की आयतें और हिकमत(14) बेशक अल्लाह हर बारीकी जानता ख़बरदार है {34}
(14) यानी सुन्नत.
33 सूरए अहज़ाब – पाँचवां रूकू
إِنَّ الْمُسْلِمِينَ وَالْمُسْلِمَاتِ وَالْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ وَالْقَانِتِينَ وَالْقَانِتَاتِ وَالصَّادِقِينَ وَالصَّادِقَاتِ وَالصَّابِرِينَ وَالصَّابِرَاتِ وَالْخَاشِعِينَ وَالْخَاشِعَاتِ وَالْمُتَصَدِّقِينَ وَالْمُتَصَدِّقَاتِ وَالصَّائِمِينَ وَالصَّائِمَاتِ وَالْحَافِظِينَ فُرُوجَهُمْ وَالْحَافِظَاتِ وَالذَّاكِرِينَ اللَّهَ كَثِيرًا وَالذَّاكِرَاتِ أَعَدَّ اللَّهُ لَهُم مَّغْفِرَةً وَأَجْرًا عَظِيمًا
وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ وَلَا مُؤْمِنَةٍ إِذَا قَضَى اللَّهُ وَرَسُولُهُ أَمْرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ الْخِيَرَةُ مِنْ أَمْرِهِمْ ۗ وَمَن يَعْصِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا مُّبِينًا
وَإِذْ تَقُولُ لِلَّذِي أَنْعَمَ اللَّهُ عَلَيْهِ وَأَنْعَمْتَ عَلَيْهِ أَمْسِكْ عَلَيْكَ زَوْجَكَ وَاتَّقِ اللَّهَ وَتُخْفِي فِي نَفْسِكَ مَا اللَّهُ مُبْدِيهِ وَتَخْشَى النَّاسَ وَاللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخْشَاهُ ۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًا زَوَّجْنَاكَهَا لِكَيْ لَا يَكُونَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ حَرَجٌ فِي أَزْوَاجِ أَدْعِيَائِهِمْ إِذَا قَضَوْا مِنْهُنَّ وَطَرًا ۚ وَكَانَ أَمْرُ اللَّهِ مَفْعُولًا
مَّا كَانَ عَلَى النَّبِيِّ مِنْ حَرَجٍ فِيمَا فَرَضَ اللَّهُ لَهُ ۖ سُنَّةَ اللَّهِ فِي الَّذِينَ خَلَوْا مِن قَبْلُ ۚ وَكَانَ أَمْرُ اللَّهِ قَدَرًا مَّقْدُورًا
الَّذِينَ يُبَلِّغُونَ رِسَالَاتِ اللَّهِ وَيَخْشَوْنَهُ وَلَا يَخْشَوْنَ أَحَدًا إِلَّا اللَّهَ ۗ وَكَفَىٰ بِاللَّهِ حَسِيبًا
مَّا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَا أَحَدٍ مِّن رِّجَالِكُمْ وَلَٰكِن رَّسُولَ اللَّهِ وَخَاتَمَ النَّبِيِّينَ ۗ وَكَانَ اللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا
बेशक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें (1)
(1) अस्मा बिन्ते अमीस जब अपने शौहर जअफ़र बिन अबी तालिब के साथ हबशा से वापिस आई तो नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बीबियों से मिलकर उन्हों ने पूछा कि क्या औरतों के बारे में भी कोई आयत उतरी है. उन्होंने फ़रमाया नहीं, तो अस्मा ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ किया कि हुज़ूर औरतें बड़े टोटे में हैं. फ़रमाया, क्यों, अर्ज़ किया उनका ज़िक्र ख़ैर के साथ होता ही नहीं जैसा कि मर्दों का होता है. इसपर यह आयत उतरी और उनके साथ उनकी तारीफ़ फ़रमाई गई और दर्ज़ों में से पहला दर्ज़ा इस्लाम है जो ख़ुदा और रसूल की फ़रमाँबरदारी है. दूसरा ईमान कि वह सही अक़ीदे और ज़ाहिर बातिन का एक सा सच्चा होना है. तीसरा दर्ज़ा ताअत है.
ईमान वाले और ईमान वालियां और फ़रमाँबरदार और फ़रमाँबरदारें और सच्चे और सच्चियां(2)
(2) इसमें चौथे दर्जे का बयान है कि वह नियत की सच्चाई और कहने व करने की सत्यता है. इसके बाद पाँचवें दर्जे सब्र का बयान है कि अल्लाह के आदेशों का पालन करना और जिन बातों से मना किया गया है उनसे दूर रहना, चाहे नफ़्स को कितना ही बुरा लगे. जो काम भी हो अल्लाह की रज़ा के लिये इख़्तियार किया जाए. इसके बाद ख़ुशूअ यानी सच्ची लगन का बयान है जो इबादतों और ताअतों में दिलों और पूरे शरीर के साथ एकाग्रता का नाम है. इसके बाद सातवें दर्जे सदक़े का बयान है जो अल्लाह तआला के अता किये हुए माल में से उसकी राह में फ़र्ज़ या नफ़्ल की सूरत में देना है. फिर आठवें दर्जे रोज़े का बयान है. यह भी फ़र्ज़ और नफ़्ल दोनों को शामिल है. कहा गया है कि जिसने हर हफ़्ते एक दिरहम सदक़ा किया, वह ‘मुसद्दिक़ीन’ (यानी सदक़ा देने वालों) में और जिसने हर माह अय्यामे बैज़ के तीन रोज़े रखे, वह ‘साइमीन’ (यानी रोज़ा रखने वालों) में शुमार किया जाता है. इसके बाद नवें दर्जे इफ़्फ़त यानी पाकीज़गी का बयान है और वह यह है कि अपनी पारसाई को मेहफ़ूज़ रखे और जो हलाल नहीं है, उससे बचे. सब से आख़िर में दसवें दर्जे ज़िक्र की कसरत का बयान है. ज़िक्र में तस्बीह, तहमीद, तहलील, तकबीर, क़ुरआन का पाठ, दीन का इल्म पढ़ना, नमाज़, नसीहत, उपदेश, मीलाद शरीफ़, नअत शरीफ़ पढ़ना, सब दाख़िल हैं. कहा गया है कि बन्दा ज़िक्र करने वालों में तब गिना जाता है जब कि वह खड़े बैठे लेटे हर हाल में अल्लाह का ज़िक्र करे.
और सब्र वाले और सब्र वालियाँ और आजिज़ी करने वाले और आजिज़ी करने वालियां और ख़ैरात करने वाले और ख़ैरात करने वालियां और रोज़े वाले और रोज़े वालियां और अपनी पारसाई निगाह रखने वाले और निगाह रखने वालियां और अल्लाह को बहुत याद करने वाले और याद करने वालियां इन बसके लिये अल्लाह ने बख़्शिश और बड़ा सवाब तैयार कर रखा है {35} और न किसी मुसलमान मर्द न मुसलमान औरत को पहुंचता है कि जब अल्लाह व रसूल कुछ हुक्म फ़रमा दें तो उन्हें अपने मामले का कुछ इख़्तियार रहे(3)
(3) यह आयत ज़ैनब बिन्ते जहश असदियह और उनके भाई अब्दुल्लाह बिन जहश और उनकी वालिदा उमैमह बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब के हक़ में उतरी. उमैमह हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की फुफी थीं. वाक़िआ यह था कि ज़ैद बिन हारिसा जिनको रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म ने आज़ाद किया था और वह हुज़ूर ही की ख़िदमत में रहते थे, हुज़ूर ने ज़ैनब के लिये उनका पयाम दिया. उसको ज़ैनब और उनके भाई ने मन्ज़ूर नहीं किया. इसपर यह आयत उतरी. और हज़रत ज़ैनब और उनके भाई इस हुक्म को सुनकर राज़ी हो गए और हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म ने हज़रत ज़ैद का निकाह उनके साथ कर दिया और हुज़ूर ने उनका मेहर दस दीनार, साठ दिरहम, एक जोड़ा कपड़ा, पचास मुद (एक नाप है) खाना, तीस साअ खजूरें दीं. इस से मालूम हुआ कि आदमी को रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की फ़रमाँबरदारी हर सूरत में वाजिब है और नबी अलैहिस्सलाम के मुक़ाबले में कोई अपने नफ़्स का ख़ुद मुख़्तार नहीं. इस आयत से यह भी साबित हुआ कि अम्र वुजूब यानी अनिवार्यता के लिये होता है. कुछ तफ़सीरों में हज़रत ज़ैद को ग़ुलाम कहा गया है मगर यह भूल से ख़ाली नहीं क्योंकि वह आज़ाद थे.
और जो हुक्म न माने अल्लाह और उसके रसूल का वह बेशक खुली गुमराही बहका {36} और ऐ मेहबूब याद करो जब तुम फ़रमाते थे उससे जिसे अल्लाह ने नेअमत दी(4)
(4) इस्लाम की, जो बड़ी महान नेअमत है.
और तुमने उसे नेअमत दी (5)
(5) आज़ाद फ़रमा कर. इस से मुराद हज़रत ज़ैद बिन हारिसह हैं कि हुज़ूर ने उन्हें आज़ाद किया और उनका पालन पोषण किया.
कि अपनी बीबी अपने पास रहने दे(6)
(6) जब हज़रत ज़ैद का निकाह हज़रत ज़ैनब से हो चुका तो हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास अल्लाह तआला की तरफ़ से वही आई की जै़नब आपकी बीबियों में दाख़िल होंगी, अल्लाह तआला को यही मंज़ूर है. इसकी सूरत यह हुई कि हज़रत ज़ैद और ज़ैनब के बीच जमी नहीं और हज़रत ज़ैद ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से हज़रत जैनब की तेज़ ज़बानी और कड़वे बोलों और नाफ़रमानी और अपने आपको बड़ा समझने की शिकायत की. ऐसा बार बार इत्तिफ़ाक़ हुआ. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत ज़ैद को समझा देते. इसपर ये आयत उतरी.
और अल्लाह से डर(7)
(7) ज़ैनब पर घमण्ड और शौहर को तकलीफ़ पहुंचाने के इल्ज़ाम लगाने में.
और तुम अपने दिल में रखते थे वह जिसे अल्लाह को ज़ाहिर करना मंज़ूर था(8)
(8) यानी आप यह ज़ाहिर नहीं फ़रमाते थे कि ज़ैनब से तुम्हारा निबाह नहीं हो सकेगा और तलाक़ ज़रूर वाक़े होगा. और अल्लाह तआला उन्हें अज़वाजे मुत्तहिहरात में दाख़िल करेगा और अल्लाह तआला को इसका ज़ाहिर करना मंज़ूर था.
और तुम्हें लोगों के तअने का अन्देशा (डर) था(9)
(9) यानी जब हज़रत ज़ैद ने ज़ैनब को तलाक़ दे दी तो आप को लोगों के तअनों का अन्देशा हुआ कि अल्लाह तआला का हुक्म तो है हज़रत ज़ैनब के साथ निकाह करने का और ऐसा करने से लोग तअना देंगे कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ऐसी औरत से निकाह कर लिया जो उनके मुंह बोले बेटे के निकाह में रही थी. इससे मालूम हुआ कि नेक काम में बेजा तअना करने वालों का कुछ अन्देशा न करना चाहिये.
और अल्लाह ज़्यादा सज़ावार है कि उसका ख़ौफ़ रखो(10)
(10) और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सब से ज़्यादा अल्लाह का ख़ौफ़ रखने वाले और सब से ज़्यादा तक़वा वाले हैं, जैसा कि हदीस शरीफ़ में है.
फिर जब ज़ैद की ग़रज़ उससे निकल गई(11)
(11) और हज़रत ज़ैद ने हज़रत ज़ैनब को तलाक़ दे दी और इद्दत गुज़र गई.
तो हमने वह तुम्हारे निकाह में दे दी(12)
(12) हज़रत ज़ैनब की इद्दत गुज़रने के बाद उनके पास हज़रत ज़ैद रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का पयाम लेकर गए और उन्हों ने सर झुका कर भरपूर शर्म और अदब से उन्हें पयाम पहुंचाया. उन्हों ने कहा कि इस मामले में मैं अपनी राय को कुछ दख़्ल नहीं देती, जो मेरे रब को मंज़ूर हो, उस पर राज़ी हूँ. यह कहकर वह अल्लाह की बारगाह में मुतवज्जेह हुई और उन्हों ने नमाज़ शुरू कर दी और यह आयत नाज़िल हुई. हज़रत ज़ैनब को इस निकाह से बहुत ख़ुशी और फ़ख्र हुआ. सैयदे आलम ने इस शादी का वलीमा बड़ी शान से किया.
कि मुसलमानों पर कुछ हर्ज न रहे उनके लेपालकों की बीबियों में जब उनसे उनका काम ख़त्म हो जाए(13)
(13) ताकि यह मालूम हो जाए कि लेपालक की बीबी से निकाह जायज़ है.
और अल्लाह का हुक्म होकर रहना {37} नबी पर कोई हर्ज नहीं उस बात में जो अल्लाह ने उसके लिये मुक़र्रर फ़रमाई(14)
(14) यानी अल्लाह तआला ने जो उनके लिये जायज़ किया और निकाह के बारे में जो वुसअत उन्हें अता फ़रमाई उसपर इक़दाम करने में कुछ हर्ज नहीं.
अल्लाह का दस्तूर (तरीक़ा) चला आ रहा है उनमें जो पहले गुज़र चुके(15)
(15) यानी नबीयों को निकाह के सिलसिले में वुसअतें दी गई कि दूसरों से ज़्यादा औरतें उनके लिये हलाल फ़रमाई गई जैसा कि हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की सौ बीबियाँ और हज़रत सुलैमान की तीस बीबियाँ थीं. यह उनके ख़ास अहकाम हैं उनके अलावा दूसरे को जायज़ नहीं. न कोई इसपर ऐतिराज़ कर सकता है. अल्लाह तआला अपने बन्दों में जिसके लिये जो हुक्म फ़रमाए उस पर किसी को ऐतिराज़ की क्या मजाल. इसमें यहूदियों का रद है जिन्हों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर चार से ज़्यादा निकाह करने पर तअना दिया था. इसमें उन्हें बताया गया कि यह हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिये ख़ास है जैसा कि पहले नबीयों के लिये कई बीबियाँ रखने के ख़ास आदेश थे.
और अल्लाह का काम मुक़र्रर तक़दीर है {38} वो जो अल्लाह के पयाम पहुंचाते और उससे डरते और अल्लाह के सिवा किसी का ख़ौफ़ न करते और अल्लाह बस है हिसाब लेने वाला(16){39}
(16) तो उसी से डरना चाहिये.
मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में किसी के बाप नहीं(17)
(17) तो हज़रत ज़ैद के भी आप हक़ीक़त में बाप नहीं कि उनकी मन्कूहा आपके लिये हलाल न हुई. क़ासिम, तैयबो ताहिर और हज़रत इब्राहीम हुज़ूर के बेटे थे, मगर इस उम्र को न पहुंचे कि उन्हें मर्द कहा जाए. उन्होंने बचपन में वफ़ात पाई.
हाँ अल्लाह के रसूल हैं(18)
(18) और सब रसूल नसीहत करने वाले, शफ़क़त रखने वाले और इज़्ज़त किये जाने के क़ाबिल और उनकी फ़रमाँबरदारी अनिवार्य होने के कारण अपनी उम्मत के बाप कहलाते हैं बल्कि उनके अधिकार सगे बाप के हुक़ूक़ से बहुत ज़्यादा हैं लेकिन इससे उम्मत हक़ीक़ी औलाद नहीं हो जाती और हक़ीक़ी औलाद के तमाम अहकाम विरासत वग़ैरह उसके लिये साबित नहीं होते.
और सब नबियों के पिछले(19)
(19) यानी आख़िरी नबी कि नबुव्वत आप पर ख़त्म हो गई. आपकी नबुव्वत के बाद किसी को नबुव्वत नहीं मिल सकती यहाँ तक कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम उतरेंगे तो अगरचे पहले नबुव्वत पा चुके हैं मगर उतरने के बाद शरीअतें मुहम्मदिया पर चलेंगे और इसी शरीअत पर हुक्म करेंगे और आप ही के क़िबले यानी काबए मुअज़्ज़मह की तरफ़ नमाज़ पढेंगे. हुज़ूर का आख़िरी नबी होना क़तई है, क़ुरआनी आयतें भी साबित करती हैं और बहुत सी सही हदीसें भी. इन सब से साबित है कि हुज़ूर सब से पिछले नबी हैं, आपके बाद किसी और को नबुव्वत मिलना संभव जाने, वह ख़त्मे नबुव्वत का इन्कार करने वाला काफ़िर और इस्लाम से बाहर है.
और अल्लाह सब कुछ जानता है{40}
33 सूरए अहज़ाब – छटा रूकू
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا اللَّهَ ذِكْرًا كَثِيرًا
وَسَبِّحُوهُ بُكْرَةً وَأَصِيلًا
هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ وَمَلَائِكَتُهُ لِيُخْرِجَكُم مِّنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ ۚ وَكَانَ بِالْمُؤْمِنِينَ رَحِيمًا
تَحِيَّتُهُمْ يَوْمَ يَلْقَوْنَهُ سَلَامٌ ۚ وَأَعَدَّ لَهُمْ أَجْرًا كَرِيمًا
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ شَاهِدًا وَمُبَشِّرًا وَنَذِيرًا
وَدَاعِيًا إِلَى اللَّهِ بِإِذْنِهِ وَسِرَاجًا مُّنِيرًا
وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِينَ بِأَنَّ لَهُم مِّنَ اللَّهِ فَضْلًا كَبِيرًا
وَلَا تُطِعِ الْكَافِرِينَ وَالْمُنَافِقِينَ وَدَعْ أَذَاهُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ ۚ وَكَفَىٰ بِاللَّهِ وَكِيلًا
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا نَكَحْتُمُ الْمُؤْمِنَاتِ ثُمَّ طَلَّقْتُمُوهُنَّ مِن قَبْلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ فَمَا لَكُمْ عَلَيْهِنَّ مِنْ عِدَّةٍ تَعْتَدُّونَهَا ۖ فَمَتِّعُوهُنَّ وَسَرِّحُوهُنَّ سَرَاحًا جَمِيلًا
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَحْلَلْنَا لَكَ أَزْوَاجَكَ اللَّاتِي آتَيْتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ مِمَّا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَيْكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّاتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَالَاتِكَ اللَّاتِي هَاجَرْنَ مَعَكَ وَامْرَأَةً مُّؤْمِنَةً إِن وَهَبَتْ نَفْسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنْ أَرَادَ النَّبِيُّ أَن يَسْتَنكِحَهَا خَالِصَةً لَّكَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۗ قَدْ عَلِمْنَا مَا فَرَضْنَا عَلَيْهِمْ فِي أَزْوَاجِهِمْ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ لِكَيْلَا يَكُونَ عَلَيْكَ حَرَجٌ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا
۞ تُرْجِي مَن تَشَاءُ مِنْهُنَّ وَتُؤْوِي إِلَيْكَ مَن تَشَاءُ ۖ وَمَنِ ابْتَغَيْتَ مِمَّنْ عَزَلْتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكَ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَن تَقَرَّ أَعْيُنُهُنَّ وَلَا يَحْزَنَّ وَيَرْضَيْنَ بِمَا آتَيْتَهُنَّ كُلُّهُنَّ ۚ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمْ ۚ وَكَانَ اللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمًا
لَّا يَحِلُّ لَكَ النِّسَاءُ مِن بَعْدُ وَلَا أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنْ أَزْوَاجٍ وَلَوْ أَعْجَبَكَ حُسْنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ ۗ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ رَّقِيبًا
ऐ ईमान वालो अल्लाह को बहुत याद करो {41} और सुबह शाम उसकी पाकी बोलो(1) {42}
(1) क्योंकि सुब्ह और शाम के औक़ात रात दिन के फ़रिश्तों के जमा होने के वक़्त हैं और यह भी कहा गया है कि रात दिन का ज़िक्र करने से ज़िक्र हमेशगी की तरफ़ इशारा किया गया है.
वही है कि दुरूद भेजता है तुम पर वह और उसके फ़रिश्ते(2)
(2) हज़रत अनस बिन मालिक रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि जब आयत “इन्नल्लाहा व मलाइकतहू युसल्लूना अलन नबी” उतरी तो हज़रत सिद्दीक़े अकबर रदियल्लाहो अन्हो ने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, जब आपको अल्लाह तआला कोई फ़ज़्ल और बुज़ुर्गी अता फ़रमाता है तो हम नियाज़मन्दों को भी आपके तुफ़ैल में नवाज़ता है. इसपर अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी.
कि तुम्हें अंधेरियों से उजाले की तरफ़ निकाले(3)
(3) यानी कुफ़्र और गुमराही और ख़ुदा को न पहचानने की अंधेरियों से सच्चाई, हिदायत और अल्लाह की पहचान की रौशनी की तरफ़ हिदायत फ़रमाए.
और वह मुसलमानों पर मेहरबान है {43} उनके लिये मिलते वक़्त की दुआ सलाम है (4)
(4) मिलते वक़्त से मुराद या मौत का वक़्त है या क़ब्रों से निकलने का या जन्नत में दाख़िल होने का. रिवायत है कि हज़रत इज्राईल अलैहिस्सलाम किसी ईमान वाले की रूह उसको सलाम किये बग़ैर नहीं निकालते. हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि जब मलकुल मौत मूमिन की रूह निकालने आते हैं तो कहते हैं कि तेरा रब तुझे सलाम कहता है और यह भी आया है कि मूमिनीन जब क़ब्रों से निकलेंगे तो फ़रिश्ते सलामती की बशारत के तौर पर उन्हें सलाम करेंगे. (जुमल व ख़ज़िन)
और उनके लिये इज़्ज़त का सवाब तैयार कर रखा है{44} ऐ ग़ैब की ख़बरें बताने वाले (नबी) बेशक हमने तुम्हें भेजा हाज़िर नाज़िर(5)
(5) शाहिद का अनुवाद हाज़िर नाज़िर बहुत बेहतरीन अनुवाद है. मुफ़र्रदाते राग़िब में है “अश शुहूदो वश शहादतुल हुज़ूरो मअल मुशाहदते इम्मा बिल बसरे औ बिल बसीरते” यानी शुहूद और शहादत के मानी हैं हाज़िर होना साथ नाज़िर होने के. बसर के साथ हो या बसीरत के साथ. और गवाह को भी इसीलिये शाहिद कहते हैं कि वह अवलोकन या मुशाहिदे के साथ जो इल्म रखता है, उसको बयान करता है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तमाम सृष्टि, सारे जगत के लिये भेजे गए हैं. आपकी रिसालत सार्वजनिक है जैसा कि सूरए फ़ुरक़ान की पहली आयत में बयान हुआ तो हुज़ूरे अनवर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम क़यामत तक होने वाली सारी ख़ल्क़ के शाहिद हैं और उनके अअमाल, अफ़आल और अहवाल, तस्दीक़, तकज़ीब (झुटलाना) हिदायत, गुमराही सब का अवलोकन फ़रमाते हैं. (अबू सऊद व जुमल)
और ख़ुशख़बरी देता और डर सुनाता(6) {45}
(6) यानी ईमानदारों को जन्नत की ख़ुशख़बरी और काफ़िरों को जहन्नम के अज़ाब का डर सुनाता.
और अल्लाह की तरफ़ उसके हुक्म से बुलाता(7)
(7) यानी सृष्टि को अल्लाह की ताक़त की तरफ़ बुलाता.
और चमका देने वाला आफ़ताब (8){46}
(8) सिराज का अनुवाद आफ़ताब या सूरज क़ुरआने करीम के बिलकुल मुताबिक है कि उसमें आफ़ताब को सिराज फ़रमाया गया है जैसा कि सूरए नूह में “वजअलश शम्सा सिराजन” और आख़िर पारे की पहली सूरत में है “वजअलना सिराजौं वहहाजन” और दर हक़ीक़त हज़ारों सूरजों से ज़्यादा रौशनी आपकी नबुव्वत के नूर ने पहुंचाई और कुफ़्र व शिर्क के सख़्त अंधेरों को अपने नूरे हक़ीक़त से उजाला कर दिया और सृष्टि के लिये मअरिफ़त और अल्लाह की वहदानियत तक पहुंचने की राहें रौशन और साफ़ कर दीं और गुमराही की तारीक घाटी में राह खोजने वालों को अपनी हिदायत के नूर से रास्ता दिखाया और अपनी नबुव्वत के नूर से इन्सानों के अन्दर और बाहर और दिल तथा आत्मा को उजला किया. हक़ीक़त में आपका वुजूदे मुबारक ऐसा चमकने वाला सूरज है जिसने हज़ारों सूरज बना दिये इसीलिये उसकी विशेषता में ‘मुनीर’ यानी चमका देने वाला इरशाद फ़रमाया गया.
और ईमान वालों को ख़ुशख़बरी दो कि उनके लिये अल्लाह का बड़ा फ़ज़्ल (कृपा) है {47} और काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों की ख़ुशी न करो और उनकी ईज़ा पर दरगुज़र (क्षमा) फ़रमाओ (9)
(9) जब तक कि इस बारे में अल्लाह तआला की तरफ़ से कोई हुक्म दिया जाए.
और अल्लाह पर भरोसा रखो और अल्लाह बस है कारसाज़ (काम बनाने वाला) {48} ऐ ईमान वालों जब तुम मुसलमान औरतों से निकाह करो फिर उन्हे बे हाथ लगाए छोड़ दो तो तुम्हारे लिये कुछ इद्दत नहीं जिसे गिनो(10)
(10) इस आयत से मालूम हुआ कि अगर औरत को क़ुर्बत या सोहबत से पहले तलाक़ दी तो उसपर इद्दत वाजिब नहीं. ख़िलवते सहीहा यानी औरत के साथ बिल्कुल एकान्त सोहबत के हुक्म में है, तो अगर ख़िलवते सहीहा के बाद तलाक़ दी तो इद्दत वाजिब होगी अगरचे अस्ल सोहबत यानी मुबाशिरत (संभोग) न हुई हो. यह हुक्म ईमानदार औरत और किताबी औरत दोनों को लागू है. लेकिन आयत में मूमिन औरतों का ज़िक्र फ़रमाना इस तरफ़ इशारा है कि निकाह करना ईमान वाली औरत से ही बेहतर है.
तो उन्हें कुछ फ़ायदा दो(11)
(11) यानी अगर उनका मेहर मुक़र्रर हो चुका था तो एकान्त से पहले तलाक देने से शौहर पर आधा मेहर वाजिब होगा और अगर मेहर मुक़र्रर नहीं हुआ था तो एक जोड़ा देना वाजिब है जिसमें तीन कपड़े होते हैं.
और अच्छी तरह से छोड़ दो(12) {49}
(12) अच्छी तरह छोड़ना यह है कि उनके हुक़ुक़ अदा कर दिये जाएं और उनको कोई तकलीफ़ न दी जाए और उन्हें रोका न जाए क्योंकि उनपर इद्दत नहीं है.
ऐ ग़ैब बताने वाले (नबी) हमने तुम्हारे लिये हलाल फ़रमाई तुम्हारी वो बीबियाँ जिन को तुम मेहर दो(13)
(13) मेहर की अदायगी में जल्दी और अक्द में इसका निर्धारित किया जाना अफ़ज़ल है. शर्ते हुल्लत नहीं क्योंकि मेहर को जल्दी देना या उसको मुक़र्रर करना बेहतर है, वाजिब नहीं. (तफ़सीरे अहमदी)
और तुम्हारे हाथ का माल कनीज़ें (दासियाँ) जो अल्लाह ने तुम्हें ग़नीमत (युद्ध के बाद का माल) में दीं (14)
(14) जैसे हज़रत सफ़िया और हज़रत जवैरिया, जिन को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने आज़ाद फ़रमाया और उनसे निकाह किया. ग़नीमत में मिलने का ज़िक्र भी फ़ज़ीलत के लिये है क्योंकि ममलूकात बमिल्के यमीन चाहे ख़रीद से मिल्क में आई हों या हिबा से या विरासत से, वो सब हलाल हैं.
और तुम्हारे चचा की बेटियाँ और फुफियों की बेटियाँ और मामूं की बेटियाँ और ख़ालाओं की बेटियाँ जिन्होंने तुम्हारे साथ हिजरत की(15)
(15) साथ हिजरत करने की क़ैद भी अफ़ज़ल का बयान है क्योंकि बग़ैर साथ हिजरत करने के भी उनमें से हर एक हलाल है और यह भी हो सकता है कि ख़ास हुज़ूर के हक़ औरतों की हुल्लत यानी हलाल होना इस क़ैद के साथ हो कि उम्मे हानी बिन्ते अबी तालिब की रिवायत इस तरफ़ इशारा करती है.
और ईमान वाली औरत अगर वह अपनी जान नबी की नज्र (भेंट) करे अगर नबी उसे निकाह में लाना चाहे(16)
(16) मानी ये हैं कि हम ने आपके लिये उस मूमिन औरत को हलाल किया जो बग़ैर मेहर और निकाह की शर्तों के बिना अपनी जान आपको हिबा करे बशर्ते कि आप उसे निकाह में लाने का इरादा फ़रमाएं. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि इसमें आयन्दा के हुक्म का बयान है क्योंकि आयत उतरने के वक़्त हुज़ूर की बीबियों में से कोई ऐसी न थीं जो हिबा के ज़रिये से सरकार की बीबी बनी हों और जिन ईमान वाली बीबियों ने अपनी जानें हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को नज़्र कर दीं वो मैमूना बिन्ते हारिस और ख़ौलह बिन्हे हकीम और उम्मे शरीक और ज़ैनब बिन्ते ख़ुजैमा हैं. (तफ़सीरे अहमदी)
यह ख़ास तुम्हारे लिये है उम्मत के लिये नहीं(17)
(17) यह बिन मेहर का निकाह ख़ास आपके लिये जायज़ है उम्मत के लिये नहीं. उम्मत पर बहरहाल मेहर वाजिब है चाहे वो मेहर निर्धारित न करें या जान बूझ कर मेहर की नफ़ी करें. निकाह हिबा शब्द के साथ जायज़ है.
हमें मालूम है जो हमने मुसलमानों पर मुक़र्रर (निर्धारित) किया है उनकी बीबियों और उनके हाथ के माल कनीज़ों में(18)
(18) यानी बीबियों के हक़ में जो कुछ मुक़र्रर फ़रमाया है चाहे मेहर और गवाह और बारी का वाजिब होना और चार आज़ाद औरतों तक को निकाह में लाना. इससे मालूम हुआ कि शरअई तौर से मेहर की मात्रा अल्लाह तआला के नज़्दीक मुक़र्रर है और वह दस दिरहम हैं जिससे कम करना मना है जैसा कि हदीस शरीफ़ में है.
यह ख़ुसूसियत तुम्हारी (19)
(19)जो ऊपर बयान की हुई औरतें आपके लिये मात्र हिबा से बग़ैर मेहर के हलाल की गई.
इसलिये कि तुम पर कोई तंगी न हो और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान {50} पीछे हटाओ उनमें से जिसे चाहो(20)
(20) यानी आपको इख़्तियार दिया गया है कि जिस बीबी को चाहें पास रखें और बीबियों में बारी मुक़र्रर करें या न करें. लेकिन इस इख़्तियार के बावुजूद सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तमाम बीबियों के साथ न्याय फ़रमाते और उनकी बारियाँ बराबर रखते सिवाय हज़रत सौदह रदियल्लाहो अन्हा के जिन्हों ने अपनी बारी का दिन हज़रत उम्मुल मूमिनीन आयशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहो अन्हा को दे दिया था और हुज़ूर की ख़िदमत में अर्ज़ किया था कि मेरे लिये यही काफ़ी है कि मेरा हश्र आपकी बीबियों में हो. हज़रत आयशा रदियल्लाहो अन्हा से रिवायत है कि यह आयत उन औरतों के हक़ में उतरी जिन्हों ने अपनी जानें हुज़ूर की नज़्र कर दीं और हुज़ूर को इख़्तियार दिया गया कि उनमें से जिसे चाहें क़ुबूल करें, उसके साथ करम फ़रमाएं और जिसे चाहे इन्कार फ़रमाएं.
और अपने पास जगह दो जिसे चाहो, और जिसे तुम ने किनारे कर दिया था उसे तुम्हारा जी चाहे तो उसमें भी तुम पर कुछ गुनाह नहीं(21)
(21) यानी बीबियों में से आप ने जिसको मअज़ूल या अलग थलग कर दिया हो, आप जब चाहें उसकी तरफ़ तवज्जह फ़रमाए और उसे नवाज़ें, इसका आप को इख़्तियार दिया गया है.
यह अम्र (बात) इस से नज़्दीक़ तर है कि उनकी आँखे ठण्डी हों और ग़म न करें और तुम उन्हे जो कुछ अता फ़रमाओ उस पर वो सब की सब राज़ी रहें(22)
(22) क्योंकि जब वो यह जानेंगी कि यह तफ़वीज़ और यह इख़्तियार आपको अल्लाह तआला की तरफ़ से अता हुआ है तो उनके दिल संतुष्ट हो जाएंगे.
और अल्लाह जानता है जो तुम सब के दिलों में है, और अल्लाह इल्म व हिल्म वाला है {51} उनके बाद(23)
(23) यानी इन नौ बीबियों के बाद जो आपके निकाह में हैं जिन्हें आपने इख़्तियार दिया तो उन्होंने अल्लाह तआला और रसूल को इख़्तियार किया.
और औरतें तुम्हें हलाल नहीं(24)
(24) क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिये बीबियों की गिन्ती नौ है जैसे उम्मत के लिये चार.
और न यह कि उनके इवज़ और बीबियाँ बदलो(25)
(25) यानी उन्हें तलाक़ देकर उनकी जगह दूसरी औरतों से निकाह कर लो. ऐसा भी न करो यह एहतिराम उन बीबियों का इसलिये है कि जब हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन्हें इख़्तियार दिया था तो उन्होंने अल्लाह और रसूल को इख़्तियार किया और दुनिया की आसाइश को ठुकरा दिया चुनांन्चे रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन्हीं पर इक्तिफ़ा फ़रमाया और आख़िर तक यही बीबियाँ हुज़ूर की ख़िदमत में रहीं. हज़रत आयशा और उम्मे सलमा रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि आख़िर में हुज़ूर के लिये हलाल कर दिया गया था कि जितनी औरतों से चाहे निकाह फ़रमाएं. इस सूरत में यह आयत मन्सूख़ यानी स्थगित है और इसे मन्सूख़ करने वाली आयत “इन्ना अहललना लका अज़वाजका” है यानी हमने तुम्हारे लिये हलाल फ़रमाई तुम्हारी वो बीबियाँ जिनको तुम मेहर दो… (सूरए अहज़ाब , आयत 50)
अगरचे तुम्हें उनका हुस्न (सौंदर्य) भाए मगर कनीज़ तुम्हारे हाथ का माल(26)
(26) कि वह तुम्हारे लिये हलाल है और इसके बाद हज़रत मारियह क़िब्तिया हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मिल्क में आईं और उनसे हुज़ूर के बेटे हज़रत इब्राहीम पैदा हुए जिन्होंने छोटी उम्र में वफ़ात पाई.
और अल्लाह हर चीज़ पर निगहबान है {52}
33 सूरए अहज़ाब – सातवाँ रूकू
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَدْخُلُوا بُيُوتَ النَّبِيِّ إِلَّا أَن يُؤْذَنَ لَكُمْ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيْرَ نَاظِرِينَ إِنَاهُ وَلَٰكِنْ إِذَا دُعِيتُمْ فَادْخُلُوا فَإِذَا طَعِمْتُمْ فَانتَشِرُوا وَلَا مُسْتَأْنِسِينَ لِحَدِيثٍ ۚ إِنَّ ذَٰلِكُمْ كَانَ يُؤْذِي النَّبِيَّ فَيَسْتَحْيِي مِنكُمْ ۖ وَاللَّهُ لَا يَسْتَحْيِي مِنَ الْحَقِّ ۚ وَإِذَا سَأَلْتُمُوهُنَّ مَتَاعًا فَاسْأَلُوهُنَّ مِن وَرَاءِ حِجَابٍ ۚ ذَٰلِكُمْ أَطْهَرُ لِقُلُوبِكُمْ وَقُلُوبِهِنَّ ۚ وَمَا كَانَ لَكُمْ أَن تُؤْذُوا رَسُولَ اللَّهِ وَلَا أَن تَنكِحُوا أَزْوَاجَهُ مِن بَعْدِهِ أَبَدًا ۚ إِنَّ ذَٰلِكُمْ كَانَ عِندَ اللَّهِ عَظِيمًا
إِن تُبْدُوا شَيْئًا أَوْ تُخْفُوهُ فَإِنَّ اللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا
لَّا جُنَاحَ عَلَيْهِنَّ فِي آبَائِهِنَّ وَلَا أَبْنَائِهِنَّ وَلَا إِخْوَانِهِنَّ وَلَا أَبْنَاءِ إِخْوَانِهِنَّ وَلَا أَبْنَاءِ أَخَوَاتِهِنَّ وَلَا نِسَائِهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُنَّ ۗ وَاتَّقِينَ اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدًا
إِنَّ اللَّهَ وَمَلَائِكَتَهُ يُصَلُّونَ عَلَى النَّبِيِّ ۚ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا صَلُّوا عَلَيْهِ وَسَلِّمُوا تَسْلِيمًا
إِنَّ الَّذِينَ يُؤْذُونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ لَعَنَهُمُ اللَّهُ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَأَعَدَّ لَهُمْ عَذَابًا مُّهِينًا
وَالَّذِينَ يُؤْذُونَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ بِغَيْرِ مَا اكْتَسَبُوا فَقَدِ احْتَمَلُوا بُهْتَانًا وَإِثْمًا مُّبِينًا
ऐ ईमान वालो नबी के घरों में (1)
(1) इस आयत से मालूम हुआ कि घर मर्द का होता है और इसीलिये उससे इज़ाज़त हासिल करना मुनासिब है. शौहर के घर को औरत का घर भी कहा है. इस लिहाज़ से कि वह उसमें सुकूनत का हक़ रखती है. इसी वजह से आयत “वज़कुरना मा युतला फ़ी बुयूतिकुन्ना” (और याद करो जो तुम्हारे घरों में पढ़ी जाती हैं अल्लाह की आयतें और हिकमत – सूरए अहज़ाब, आयत 34) में घरों की निस्बत औरतों की तरफ़ की गई है. नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मकानात, जिनमें आपकी पाक बीबियों की सुकूनत थी और हुज़ूर की वफ़ात के बाद भी वो अपनी ज़िन्दगी तक उन्हीं में रहीं, वो हुज़ूर की मिल्क थे और हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बीबियों को हिबा नहीं फ़रमाए थे बल्कि रहने की इजाज़त दी थी इसलिये बीबियों की वफ़ात के बाद भी उनके वारिसों को न मिले बल्कि मस्जिद शरीफ़ में दाख़िल कर दिये गए जो वक़्फ़ है और जिसका नफ़ा सारे मुसलमानों के लिये आम है.
न हाज़िर हो जब तक इज़्न न पाओ(2)
(2) इससे मालूम हुआ कि औरतों पर पर्दा लाज़िम है और ग़ैर मर्दों को किसी घर में बेइजाज़त दाख़िल होना जायज़ नहीं. आयत अगरचे ख़ास हुज़ूर की बीबियों के हक़ में आई है लेकिन हुक्म इसका सारी मुसलमान औरतों के लिये आम है. जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत ज़ैनब से निकाह किया और वलीमे की दावत फ़रमाई तो जमाअतें की जमआतें आती थीं और खाने से फ़ारिग़ होकर चली जाती थीं आख़िर में तीन साहब ऐसे थे जो खाने से फ़ारिग़ होकर बैठे रह गए और उन्होंने बात चीत का लम्बा सिलसिला शुरू कर दिया और बहुत देर तक ठहरे रहे. मकान तंग था इस से घर वालों को तकलीफ़ हुई और हर्ज हुआ कि वो उनकी वजह से अपना काम काज न कर सके. रसूले करीम उठे और बीबियों के हुजरों में तशरीफ़ ले गए. और दौरा फ़रमाकर तशरीफ़ लाए. उस वक़्त तक ये लोग अपनी बातों में लगे हुए थे. हुज़ूर फिर वापिस हो गए. यह देखकर वो लोग रवाना हुए तब हुज़ूरे अनवर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम दौलत-सरा में दाख़िल हुए और दरवाज़े पर पर्दा डाल दिया. इसपर यह आयत उतरी. इस से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की भरपूर हया और करम की शान और सदव्यवहार मालूम होता है कि ज़रूरत के बावुजूद सहाबा से यह न फ़रमाया कि अब आप चले जाइये बल्कि जो तरीक़ा इख़्तियार फ़रमाया वह अच्छा अदब और सदव्यवहार सिखाने वाला है.
मसलन खाने के लिये बुलाए जाओ न यूं कि ख़ुद उसके पकने की राह तको(3)
(3) इस से मालूम हुआ कि बग़ैर दावत किसी के यहाँ खाने न जाए.
हाँ जब बुलाए जाओ तो हाज़िर हो और जब खा चुको तो अलग अलग हो जाओ न यह कि बैठे बातों में दिल बहलाओ (4)
(4) कि यह घर वालों की तकलीफ़ और उनके हर्ज का कारण है.
बेशक इसमें नबी को तकलीफ़ होती थी तो वह तुम्हारा लिहाज़ फ़रमाते थे (5)
(5) और उनसे चले जाने के लिये नहीं फ़रमाते थे.
और अल्लाह हक़ (सत्य) फ़रमाने में नहीं शरमाता, और जब तुम उनसे(6)
(6) यानी अपनी पाक बीबियों से.
बरतने की काई चीज़ मांगो तो पर्दे के बाहर से मांगो इस में ज़्यादा सुथराई है तुम्हारे दिलों और उनके दिलों की(7)
(7) कि वसवसों और ख़तरों से अम्न रहता है.
और तुम्हें नहीं पहुंचता कि रसूलुल्लाह को ईज़ा दो(8)
(8) और कोई काम ऐसा करो जो नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मिज़ाज को नागवार हो.
और न यह कि उनके बाद कभी उनकी बीबियों से निकाह करो(9)
(9) क्योंकि जिस औरत से रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम न अक़्द फ़रमाया वह हुज़ूर के सिवा हर शख़्स पर हमेशा के लिये हराम हो गई. इसी तरह वो कनीज़ें जो सरकार की ख़िदमत में रहीं और क़ुर्बत से नवाज़ी गई वो भी इसी तरह सबके लिये हराम हैं.
बेशक यह अल्लाह के नज़्दीक़ बड़ी सख़्त बात है(10){53}
(10) इसमें ऐलान है कि अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बहुत बड़ी अज़मत अता फ़रमाई और आपकी हुर्मत हर हाल में वाजिब की.
अगर तुम कोई बात ज़ाहिर करो या छुपाओ तो बेशक अल्लाह सब कुछ जानता है {54} उनपर मुज़ायक़ा (हर्ज) नहीं(11)
(11) यानी उन बीबियों पर कुछ गुनाह नहीं इसमें कि वो उन लोगों से पर्दा न करें जिन का आयत में आगे ज़िक्र फ़रमाया जाता है. जब पर्दे का हुक्म उतरा तो औरतों के बाप बेटों और क़रीब के रिश्तेदारों ने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में अर्ज़ किया या रसूलल्लाह क्या हम अपनी माओं बेटियों के साथ पर्दे के बाहर से बात किया करें. इसपर यह आयत उतरी.
उनके बाप और बेटों और भाइयों और भतीजों और भान्जों(12)
(12) यानी उन रिश्तेदारों के सामने आने और उनसे बात करने में कोई हर्ज़ नहीं.
और अपने दीन की औरतों (13)
(13) यानी मुसलमान बीबियों के सामने आना जायज़ है और काफ़िर औरतों से पर्दा करना और अपने जिस्म को छुपाना लाज़िम है सिवाय जिस्म के उन हिस्सों के जो घर के काम काज के लिये खोलने ज़रूरी होते हैं (जुमल)
और कनीज़ों में(14)
(14) यहाँ चचा और मामूँ का साफ़ साफ़ ज़िक्र नहीं किया गया क्योंकि वो माँ बाप के हुक्म में हैं.
और अल्लाह से डरती रहो, बेशक हर चीज़ अल्लाह के सामने है {55} बेशक अल्लाह और उसके फ़रिश्ते दुरूद भेजते हैं उस ग़ैब बताने वाले (नबी) पर, ऐ ईमान वालों उनपर दुरूद और ख़ूब सलाम भेजो(15) {56}
(15) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर दुरूद और सलाम भेजना वाजिब है. हर एक मजलिस में आपका ज़िक्र करने वाले पर भी और सुनने वाले पर भी एक बार और इस से ज़्यादा मुस्तहब है. यही भरोसे का क़ौल है और इसी पर सहमति है. और नमाज़ की आख़िरी बैठक में तशहदुद यानी अत्तहियात के बाद दुरूद शरीफ़ पढ़ना सुन्नत है. आपके ताबे करके आप के आल और असहाब और दूसरे मूमिनीन पर भी दुरूद भेजा जा सकता है. यानी दुरूद शरीफ़ में आपके मुबारक नाम के साथ उनको शामिल किया जा सकता है और मुस्तक़िल तौर पर हुज़ूर के सिवा उनमें से किसी पर दुरूद भेजना मकरूह है. दुरूद शरीफ़ में आल व असहाब का ज़िक्र मुतवारिस है. और यह भी कहा गया है कि आल के ज़िक्र के बिना मक़बूल नहीं. दुरूद शरीफ़ अल्लाह तआला की तरफ़ से नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का सम्मान है. उलमा ने अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद के मानी ये बयान किये हैं कि या रब मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बड़ाई अता फ़रमा. दुनिया में उनका दीन बलन्द कर और उनकी दावत ग़ालिब फ़रमाकर और उनकी शरीअत को बक़ा इनायत करके और आख़िरत में उनकी शफ़ाअत क़ुबूल फ़रमाकर और उनका सवाब ज़्यादा करके और अगलों पिछलों पर उनकी बुज़ुर्गी का इज़्हार फ़रमाकर और अंबिया व मुर्सलीन और फ़रिश्तों और सारी सृष्टि पर उनकी शान बलन्द करके. दुरूद शरीफ़ की बहुत बरकतें और महानताएं हैं. हदीस शरीफ़ में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि जब दुरूद भेजने वाला मुझ पर दुरूद भेजता है तो फ़रिश्ते उसके लिये मग़फिरत की दुआ करते हैं. मुस्लिम की हदीस शरीफ़ में है जो मुझ पर एक बार दुरूद भेजता है अल्लाह तआला उसपर दसबार भेजता है. तिरमिज़ी की हदीस शरीफ़ में है बख़ील है वह जिसके सामने मेरा ज़िक्र किया जाए और वह दुरूद न भेजे.
बेशक जो तकलीफ़ देते हैं अल्लाह और उसके रसूल को उनपर अल्लाह की लअनत है दुनिया और आख़िरत में(16)
(16) वो तकलीफ़ देने वाले काफ़िर हैं जो अल्लाह की शान में ऐसी बातें कहते हैं जिनसे वो पाक है और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को झुटलाते हैं. उनपर दोनो जगत में लअनत.
और अल्लाह ने उनके लिये ज़िल्लत का अज़ाब तैयार कर रखा है(17){57}
(17)आख़िरत में.
और जो ईमान वाले मर्दों और औरतों को बे किये सताते हैं उन्हों ने बोहतान और खुला गुनाह अपने सर लिया (18){58}
(18) यह आयत उन मुनाफ़िक़ों के हक़ में उतरी जो हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो को कष्ट देते थे और उनको बुरा भला कहते थे. हज़रत फ़ुज़ैल ने फ़रमाया कि कुत्ते और सुअर को भी नाहक़ कष्ट देना हलाल नहीं तो ईमान वाले मर्दों औरतों को तकलीफ़ देना किस क़द्र बदतरीन जुर्म है.
33 सूरए अहज़ाब – आठवाँ रूकू
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ قُل لِّأَزْوَاجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَاءِ الْمُؤْمِنِينَ يُدْنِينَ عَلَيْهِنَّ مِن جَلَابِيبِهِنَّ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَن يُعْرَفْنَ فَلَا يُؤْذَيْنَ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا
۞ لَّئِن لَّمْ يَنتَهِ الْمُنَافِقُونَ وَالَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ وَالْمُرْجِفُونَ فِي الْمَدِينَةِ لَنُغْرِيَنَّكَ بِهِمْ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُونَكَ فِيهَا إِلَّا قَلِيلًا
مَّلْعُونِينَ ۖ أَيْنَمَا ثُقِفُوا أُخِذُوا وَقُتِّلُوا تَقْتِيلًا
سُنَّةَ اللَّهِ فِي الَّذِينَ خَلَوْا مِن قَبْلُ ۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ اللَّهِ تَبْدِيلًا
يَسْأَلُكَ النَّاسُ عَنِ السَّاعَةِ ۖ قُلْ إِنَّمَا عِلْمُهَا عِندَ اللَّهِ ۚ وَمَا يُدْرِيكَ لَعَلَّ السَّاعَةَ تَكُونُ قَرِيبًا
إِنَّ اللَّهَ لَعَنَ الْكَافِرِينَ وَأَعَدَّ لَهُمْ سَعِيرًا
خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ۖ لَّا يَجِدُونَ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا
يَوْمَ تُقَلَّبُ وُجُوهُهُمْ فِي النَّارِ يَقُولُونَ يَا لَيْتَنَا أَطَعْنَا اللَّهَ وَأَطَعْنَا الرَّسُولَا
وَقَالُوا رَبَّنَا إِنَّا أَطَعْنَا سَادَتَنَا وَكُبَرَاءَنَا فَأَضَلُّونَا السَّبِيلَا
رَبَّنَا آتِهِمْ ضِعْفَيْنِ مِنَ الْعَذَابِ وَالْعَنْهُمْ لَعْنًا كَبِيرًا
ऐ नबी अपनी बीबियों और बेटियों और मुसलमानों की औरतों से फ़रमा दो कि अपनी चादरों का एक हिस्सा अपने मुंह पर डाले रहें(1)
(1) और सर और चेहरे को छुपाएं, जब किसी आवश्यकता के लिये उनको निकलना हो.
यह इससे नज़्दीक तर है कि उनकी पहचान हो(2)
(2) कि ये आज़ाद औरतें हैं.
तो सताई न जाएं(3)
(3) और मुनाफ़िक़ लोग उनके पीछे न पड़े. मुनाफ़िक़ों की यह आदत थी कि वो दासियों को छेड़ा करते थे इसलिये आज़ाद औरतों को हुक्म दिया कि वो चादर से बदन ढाँप कर सर और चेहरे को छुपाकर दासियों से अपनी हालत अलग बना लें.
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है{59} अगर बाज़ न आए मुनाफ़िक़ (दोग़ले) (4)
(4) अपनी दोहरी प्रवृति से.
और जिनके दिलों में रोग है(5)
(5) और जो बुरे ख़याल रखते हैं यानी बुरा काम करते हैं वो अगर अपनी बदकारी से बाज़ न आए—
और मदीने में झूट उड़ाने वाले(6)
(6) जो इस्लामी लश्करों के बारे में झूटी ख़बरें उड़ाया करते थे और यह मशहूर किया करते थे कि मुसलमानों को पराजय हो गई, या वो क़त्ल कर डाले गए, या दुश्मन चढ़ा चला आ रहा है. और इससे उनका उद्देश मुसलमानों का दिल तोड़ना और उनको परेशानी में डालना होता था. उन लोगों के बारे में इरशाद फ़रमाया जाता है कि अगर वो इन हरकतों से बाज़ न आए.
तो ज़रूर हम तुम्हें उन पर शह देंगे(7)
(7) और तुम्हें उनपर क़ब्ज़ा दे देंगे.
फिर वो मदीने में तुम्हारे पास न रहेंगे मगर थोड़े दिन (8){60}
(8) फिर मदीनए तैय्यिबह उनसे ख़ाली करा लिया जाएगा और वहाँ से निकाल दिये जाएंगे.
फटकारे हुए जहाँ कहीं मिलें पकड़े जाएं और गिन गिन कर क़त्ल किये जाएं {61} अल्लाह का दस्तूर (तरीक़ा) चला आता है उन लोगों में जो पहले गुज़र गए(9)
(9) यानी पहली उम्मतों के मुनाफ़िक़ लोग, जो ऐसी हरकतें करते थे, उनके लिये भी अल्लाह का तरीक़ा यही रहा कि जहाँ पाएं जाएं, मार डाले जाएं.
और तुम अल्लाह का दस्तूर हरगिज़ बदलता न पाओगे {62} लोग तुम से क़यामत को पूछते हैं(10)
(10) कि कब क़यामत होगी. मुश्रिक लोग हंसी उड़ाने के अन्दाज़ में रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से क़यामत का वक़्त पूछा करते थे गोया कि उन्हें बहुत जल्दी है और यहूदी इसको आज़माइश के तौर पर पूछते थे क्योंकि तौरात में इसका इल्म छूपाकर रखा गया था तो अल्लाह तआला ने अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हुक्म फ़रमाया.
तुम फ़रमाओ उसका इल्म तो अल्लाह ही के पास है, और तुम क्या जानो शायद क़यामत पास ही हो(11) {63}
(11) इसमें जल्दी करने वालों को चेतावनी और यहूदियों को चुप कराना और उनकी ज़बान बन्द करना है.
बेशक अल्लाह ने काफ़िरों पर लअनत फ़रमाई और उनके लिये भड़कती आग तैयार कर रखी है{64} उसमें हमेशा रहेंगे, उसमें से कोई हिमायत पाएंगे न मददगार (12) {65}
(12) जो उन्हें अज़ाब से बचा सके.
जिस दिन उनके मुंह उलट उलट कर आग में तले जाएंगे कहते होंगे हाय किसी तरह हमने अल्लाह का हुक्म माना होता और रसूल का हुक्म माना होता(13){66}
(13) दुनिया में, तो हम आज इस अज़ाब में न जकड़े गए होते.
और कहेंगे ऐ हमारे रब हम अपने सरदारों और अपने बड़ों के कहने पर चले(14)
(14) यानी क़ौम के सरदारों में और बड़ी उम्र के लोगों और अपनी जमाअत के आलिमों के, उन्होंने हमें कुफ़्र की तलक़ीन की.
तो उन्होंने हमें राह से बहका दिया {67} ऐ रब हमारे उन्हें आग का दूना अज़ा दे(15)और उनपर बड़ी लअनत कर{68}
(15) क्योंक वो ख़ुद भी गुमराह हुए और उन्होंने दूसरों को भी गुमराह किया.
33 सूरए अहज़ाब – नवाँ रूकू
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ آذَوْا مُوسَىٰ فَبَرَّأَهُ اللَّهُ مِمَّا قَالُوا ۚ وَكَانَ عِندَ اللَّهِ وَجِيهًا
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَقُولُوا قَوْلًا سَدِيدًا
يُصْلِحْ لَكُمْ أَعْمَالَكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ ۗ وَمَن يُطِعِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَقَدْ فَازَ فَوْزًا عَظِيمًا
إِنَّا عَرَضْنَا الْأَمَانَةَ عَلَى السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَالْجِبَالِ فَأَبَيْنَ أَن يَحْمِلْنَهَا وَأَشْفَقْنَ مِنْهَا وَحَمَلَهَا الْإِنسَانُ ۖ إِنَّهُ كَانَ ظَلُومًا جَهُولًا
لِّيُعَذِّبَ اللَّهُ الْمُنَافِقِينَ وَالْمُنَافِقَاتِ وَالْمُشْرِكِينَ وَالْمُشْرِكَاتِ وَيَتُوبَ اللَّهُ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا
ऐ ईमान वालो(1)
(1) नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का अदब और आदर करो और कोई ऐसा काम न करना जो उनके दुख का कारण हो, और—
उन जैसे न होना जिन्हों ने मूसा को सताया(2)
(2) यानी उन बनी इस्राईल की तरह न होना जो नंगे नहाते थे. और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर तअना करते थे कि हज़रत हमारे साथ क्यों नहीं नहाते. उन्हें सफ़ेद दाग़ वग़ैरह की कोई बीमारी जान पड़ती है.
तो अल्लाह ने उसे बरी फ़रमा दिया उस बात से जो उन्होंने कही(3)
(3) इस तरह कि जब एक दिन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने नहाने के लिये एक एकान्त की जगह में पत्थर पर कपड़े उतार कर रखे और नहाना शुरू किया, तो पत्थर आपके कपड़े ले भागा. आप कपड़े लेने के लिये उसकी तरफ़ बढ़े तो बनी इस्राईल ने देख लिया कि बदने मुबारक पर कोई दाग़ और कोई ऐब नहीं है.
और मूसा अल्लाह के यहाँ आबरू वाला है(4) {69}
(4) शान वाले, बुज़ुर्गी वाले और दुआ की क़ुबूलियत वाले.
ऐ ईमान वालो अल्लाह से डरो और सीधी बात कहो (5){70}
(5) यानी सच्ची और दुरूस्त, हक़ और इन्साफ़ की, और अपनी ज़बान और बोल की हिफ़ाज़त रखो. यह भलाइयों की जड़ है. ऐसा करोगे तो अल्लाह तआला तुमपर करम फ़रमाएगा. और—
तुम्हारे अअमाल (कर्म) तुम्हारे लिये संवार देगा (6)
(6) तुम्हें नेकियों की रूचि देगा और तुम्हारी फ़रमाँबरदारीयाँ क़ुबूल फ़रमाएगा.
और तुम्हारे, गुनाह बख़्श देगा, और जो अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करे उसने बड़ी कामयाबी पाई {71} बेशक हमने अमानत पेश फ़रमाई (7)
(7) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि अमानत से मुराद फ़रमाँबरदारी और कर्तव्य निष्ठा है. जिन्हें अल्लाह तआला ने अपने बन्दों पर पेश किया, उन्हें आसमानों और ज़मीनों और पहाड़ों पर पेश किया था कि अगर वो उन्हें अदा करेंगे तो सवाब दिये जाएंगे, नहीं अदा करेंगे तो अज़ाब किये जाएंगे.हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि अमानत नमाज़ें अदा करना, ज़कात देना, रमज़ान के रोज़े रखना, ख़ानए काबा का हज, सच बोलना, नाप तौल में और लोगों के साथ व्यवहार में इन्साफ़ करना है. कुछ ने कहा कि अमानत से मुराद वो तमाम चीज़ें हैं जिनका हुक्म दिया गया है और जिनसे मना फ़रमाया गया है. हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस ने फ़रमाया कि तमाम अंग, कान हाथ और पाँव वग़ैरह सब अमानत हैं. उसका ईमान ही क्या जो अमानतदार न हो. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि अमानत से मुराद लोगों के हुक़ूक़ और एहदों को पूरा करना है. तो हर ईमान वाले पर फ़र्ज़ है कि न किसी मूमिन की ख़यानत करे न काफ़िर से किया गया एहद तोड़े, न कम न ज़्यादा. अल्लाह तआला ने यह अमानत आसमानों ज़मीनों और पहाड़ों पर पेश फ़रमाई फिर उनसे फ़रमाया क्या तुम इन अमानतों को उनकी जिम्मेदारियों के साथ उठाओगे. उन्होंने अर्ज़ किया ज़िम्मेदारी क्या है. फ़रमाया यह कि अगर तुम उन्हें अच्छी तरह अदा करो तो तुम्हें इनाम दिया जाएगा. उन्होंने अर्ज़ किया नहीं ऐ रब, हम तेरे हुक्म के मुतीअ हैं न सवाब चाहें न अज़ाब और उनका यह अर्ज़ करना ख़ौफ़ और दहशत की वजह से था. और अमानत पेश करके उन्हें इख़्तियार दिया गया था कि अपने क़ुव्वत और हिम्मत पाएं तो उठाएं वरना मजबूरी ज़ाहिर कर दें, उसका उठाना लाज़िम नहीं किया गया था और अगर लाज़िम किया जाता तो वो इन्कार न करते.
आसमानों और ज़मीन और पहाड़ों पर तो उन्होंने उसके उठाने से इन्कार किया और उससे डर गए(8)
(8) कि अगर अदा न कर सके तो अज़ाब किये जाएंगे. तो अल्लाह तआला ने वह अमानत हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के सामने पेश की और फ़रमाया कि मैं ने आसमानों और ज़मीनों और पहाड़ों पर पेश की थी वो न उठा सके तो क्या तू इसको ज़िम्मेदारी के साथ उठा सकेगा. हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने इक़रार किया.
और आदमी ने उठा ली, बेशक वह अपनी जान को मशक़्क़त (परिश्रम) में डालने वाला बड़ा नादान है {72} ताकि अल्लाह अज़ाब दे मुनाफ़िक़ (दोग़ले) मर्दों और मुनाफ़िक़ औरतों और मुश्रिक मर्दो और मुश्रिक औरतों को (9)
(9) कहा गया है कि मानी ये हैं कि हमने अमानत पेश की ताकि मुनाफ़िक़ों की दोहरी प्रवृत्ति, मुश्रिकों का शिर्क ज़ाहिर हो और अल्लाह तआला उन्हें अज़ाब फ़रमाए और ईमान वाले, जो अमानत के अदा करने वाले हैं उनके ईमान का इज़हार हो और अल्लाह तआला उनकी तौबह क़ुबूल फ़रमाए और उनपर रहमत और मग़फ़िरत करे, अगरचे उनसे कुछ ताअतों में कुछ कमी भी हुई हो.(ख़ाज़िन)
और अल्लाह तौबह क़ुबूल फ़रमाए मुसलमान मर्दों और मुसलमान औरतों की और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है{73}