42 सूरए शूरा – पहला रूकू
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ حم
عسق
كَذَٰلِكَ يُوحِي إِلَيْكَ وَإِلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِكَ اللَّهُ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ
لَهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۖ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ
تَكَادُ السَّمَاوَاتُ يَتَفَطَّرْنَ مِن فَوْقِهِنَّ ۚ وَالْمَلَائِكَةُ يُسَبِّحُونَ بِحَمْدِ رَبِّهِمْ وَيَسْتَغْفِرُونَ لِمَن فِي الْأَرْضِ ۗ أَلَا إِنَّ اللَّهَ هُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ
وَالَّذِينَ اتَّخَذُوا مِن دُونِهِ أَوْلِيَاءَ اللَّهُ حَفِيظٌ عَلَيْهِمْ وَمَا أَنتَ عَلَيْهِم بِوَكِيلٍ
وَكَذَٰلِكَ أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ قُرْآنًا عَرَبِيًّا لِّتُنذِرَ أُمَّ الْقُرَىٰ وَمَنْ حَوْلَهَا وَتُنذِرَ يَوْمَ الْجَمْعِ لَا رَيْبَ فِيهِ ۚ فَرِيقٌ فِي الْجَنَّةِ وَفَرِيقٌ فِي السَّعِيرِ
وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ لَجَعَلَهُمْ أُمَّةً وَاحِدَةً وَلَٰكِن يُدْخِلُ مَن يَشَاءُ فِي رَحْمَتِهِ ۚ وَالظَّالِمُونَ مَا لَهُم مِّن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ
أَمِ اتَّخَذُوا مِن دُونِهِ أَوْلِيَاءَ ۖ فَاللَّهُ هُوَ الْوَلِيُّ وَهُوَ يُحْيِي الْمَوْتَىٰ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
सूरए शूरा मक्का में उतरी, इसमें 53 आयतें, 5 रूकू हैं.
-पहला रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए शुरा जमहूर के नज़्दीक मक्की सूरत है और हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा के एक क़ौल में इसकी चार आयतें मदीनए तैय्यिबह में उतरीं जिनमें पहली “कुल ला असअलुकुम अलैहे अजरन” है. इस सूरत में पाँच रूकू, त्रिपन आयतें, आठ सौ कलिमें और तीन हज़ार पाँच सौ अठासी अक्षर हैं.
हा-मीम {1} ऐन सीन क़ाफ़ {2} यूंही वही फ़रमाता है तुम्हारी तरफ़(2)
(2) ग़ैबी ख़बरें. (ख़ाज़िन)
और तुमसे अगलों की तरफ़(3)
(3) नबियों से वही फ़रमा चुका.
अल्लाह इज़्ज़त व हिकमत वाला {3} उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, और वही बलन्दी व अज़मत वाला है{4} क़रीब होता है कि आसमान अपने ऊपर से शक़ हो जाएं (4)
(4) अल्लाह तआला की महानता और उसकी ऊंची शान से.
और फ़रिश्ते अपने रब की तारीफ़ के साथ उसकी पाकी बोलते और ज़मीन वालों के लिये माफ़ी मांगते हैं, (5)
(5) यानी ईमानदारों के लिये, क्योंकि काफ़िर इस लायक़ नहीं हैं कि फ़रिश्ते उनके लिये माफ़ी चाहे. यह हो सकता है कि काफ़िरों के लिये यह दुआ करें कि उन्हें ईमान देकर उनकी मग़फ़िरत फ़रमा.
सुन लो बेशक अल्लाह ही बख़्शने वाला मेहरबान है {5} और जिन्होंने अल्लाह के सिवा और वाली बना रखे हैं(6)
(6) यानी बुत, जिनको वो पूजते और मअबूद समझते हैं.
वो अल्लाह की निगाह में हैं (7)
(7) उनकी कहनी और करनी उसके सामने हैं और वह उन्हें बदला देगा.
और तुम उनके ज़िम्मेदार नहीं(8){6}
(8) तुम से उनके कर्मों की पकड़ नहीं की जाएगी.
और यूंही हमने तुम्हारी तरफ़ अरबी क़ुरआन वही भेजा कि तुम डराओ सब शहरों की अस्ल मक्का वालों को और जितने उसके गिर्द हैं(9)
(9) यानी सारे जगत के लोग उन सब को.
और तुम डराओ इकट्ठे होने के दिन से जिसमें कुछ शक नहीं(10)
(10) यानी क़यामत के दिन से डराओ जिसमें अल्लाह तआला अगले पिछलों और आसमान व ज़मीन वालों सब को जमा फ़रमाएगा और इस इकट्ठा होने के बाद फिर सब बिखर जाएंगे.
एक गिरोह जन्नत में है और एक गिरोह दोज़ख़ में {7} और अल्लाह चाहता तो उन सब को एक दीन पर कर देता लेकिन अल्लाह अपनी रहमत में लेता है जिसे चाहे (11)
(11) उसको इस्लाम की तौफ़ीक़ देता है.
और ज़ालिमों का न कोई दोस्त न मददगार(12) {8}
(12) यानी काफ़िरों को कोई अज़ाब से बचाने वाला नहीं.
क्या अल्लाह के सिवा और वाली ठहरा लिये हैं (13)
(13) यानी काफ़िरों ने अल्लाह तआला को छोड़कर बुतों को अपना वाली बना लिया है, यह ग़लत है.
तो अल्लाह ही वाली है और वह मुर्दे जिलाएगा और वह सब कुछ कर सकता है (14) {9}
(14) तो उसी को वाली बनाना सज़ावार है.
42 सूरए शूरा – दूसरा रूकू
وَمَا اخْتَلَفْتُمْ فِيهِ مِن شَيْءٍ فَحُكْمُهُ إِلَى اللَّهِ ۚ ذَٰلِكُمُ اللَّهُ رَبِّي عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَإِلَيْهِ أُنِيبُ
فَاطِرُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ جَعَلَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا وَمِنَ الْأَنْعَامِ أَزْوَاجًا ۖ يَذْرَؤُكُمْ فِيهِ ۚ لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ ۖ وَهُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ
لَهُ مَقَالِيدُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَن يَشَاءُ وَيَقْدِرُ ۚ إِنَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ
۞ شَرَعَ لَكُم مِّنَ الدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِ نُوحًا وَالَّذِي أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ وَمَا وَصَّيْنَا بِهِ إِبْرَاهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَىٰ ۖ أَنْ أَقِيمُوا الدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُوا فِيهِ ۚ كَبُرَ عَلَى الْمُشْرِكِينَ مَا تَدْعُوهُمْ إِلَيْهِ ۚ اللَّهُ يَجْتَبِي إِلَيْهِ مَن يَشَاءُ وَيَهْدِي إِلَيْهِ مَن يُنِيبُ
وَمَا تَفَرَّقُوا إِلَّا مِن بَعْدِ مَا جَاءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًا بَيْنَهُمْ ۚ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰ أَجَلٍ مُّسَمًّى لَّقُضِيَ بَيْنَهُمْ ۚ وَإِنَّ الَّذِينَ أُورِثُوا الْكِتَابَ مِن بَعْدِهِمْ لَفِي شَكٍّ مِّنْهُ مُرِيبٍ
فَلِذَٰلِكَ فَادْعُ ۖ وَاسْتَقِمْ كَمَا أُمِرْتَ ۖ وَلَا تَتَّبِعْ أَهْوَاءَهُمْ ۖ وَقُلْ آمَنتُ بِمَا أَنزَلَ اللَّهُ مِن كِتَابٍ ۖ وَأُمِرْتُ لِأَعْدِلَ بَيْنَكُمُ ۖ اللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ ۖ لَنَا أَعْمَالُنَا وَلَكُمْ أَعْمَالُكُمْ ۖ لَا حُجَّةَ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ ۖ اللَّهُ يَجْمَعُ بَيْنَنَا ۖ وَإِلَيْهِ الْمَصِيرُ
وَالَّذِينَ يُحَاجُّونَ فِي اللَّهِ مِن بَعْدِ مَا اسْتُجِيبَ لَهُ حُجَّتُهُمْ دَاحِضَةٌ عِندَ رَبِّهِمْ وَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ وَلَهُمْ عَذَابٌ شَدِيدٌ
اللَّهُ الَّذِي أَنزَلَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ وَالْمِيزَانَ ۗ وَمَا يُدْرِيكَ لَعَلَّ السَّاعَةَ قَرِيبٌ
يَسْتَعْجِلُ بِهَا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِهَا ۖ وَالَّذِينَ آمَنُوا مُشْفِقُونَ مِنْهَا وَيَعْلَمُونَ أَنَّهَا الْحَقُّ ۗ أَلَا إِنَّ الَّذِينَ يُمَارُونَ فِي السَّاعَةِ لَفِي ضَلَالٍ بَعِيدٍ
اللَّهُ لَطِيفٌ بِعِبَادِهِ يَرْزُقُ مَن يَشَاءُ ۖ وَهُوَ الْقَوِيُّ الْعَزِيزُ
तुम जिस बात में(1)
(1) दीन की बातों में से, काफ़िरों के साथ.
इख़्तिलाफ़ करो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के सुपुर्द है (2)
(2) क़यामत के रोज़ तुम्हारे बीच फ़ैसला फ़रमाएगा, तुम उनसे कहो.
यह है अल्लाह मेरा रब मैं ने उसपर भरोसा किया और मैं उसकी तरफ़ रूजू लाता हूँ (3){10}
(3) हर बात हर काम में.
आसमानों और ज़मीन का बनाने वाला, तुम्हारे लिये तुम्हीं में से (4)
(4) यानी तुम्हारी जिन्स में से.
जोड़े बनाए और नर मादा चौपाए, इससे (5)
(5) यानी इस जोड़ी से. (ख़ाज़िन)
तुम्हारी नस्ल फैलाता है, उस जैसा कोई नहीं और वही सुनता देखता है{11} उसी के लिये हैं आसमानों और ज़मीन की कुंजियां(6)
(6) मुराद यह है कि आसमान ज़मीन के सारे ख़जानों की कुंजियाँ चाहे मेंह के ख़ज़ाने हो या रिज़्क़ के.
रोज़ी वसीअ करता है जिस के लिये चाहे और तंग फ़रमाता है(7)
(7) जिसके लिये चाहे. वह मालिक है. रिज़्क़ की कुंजियाँ उसके दस्ते क़ुदरत में हैं.
बेशक वह सब कुछ जानता है {12} तुम्हारे लिये दीन की वह राह डाली जिसका हुक्म उसने नूह को दिया(8)
(8) नूह अलैहिस्सलाम शरीअत वाले नबियों में सबसे पहले नबी हैं.
और जो हमने तुम्हारी तरफ़ वही की(9)
(9) ऐ नबियों के सरदार मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम.
और जिसका हुक्म हमने इब्राहीम और मूसा और ईसा को दिया(10)
(10) मानी ये हैं कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम से आप तक ऐ सैयदे अम्बिया जितने नबी हुए सबके लिये हमने दीन की एक ही राह निर्धारित की है जिसमें वो सब सहमत हैं. वह राह यह है.
कि दीन ठीक रखो(11)
(11) दीन से मुराद इस्लाम है. मानी ये हैं कि अल्लाह तौहीद और उसकी फ़रमाँबरदारी और उसपर उसके रसूलों पर और उसकी किताबों पर और बदले के दिन पर और बाक़ी दीन की तमाम ज़रूरतों पर ईमान लाना वाजिब करे, कि ये बातें सारे नबियों की उम्मतों के लिये एक सी ज़रूरी हैं.
और उसमें फूट न डालो(12)
(12) हज़रत अली मु्र्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि जमाअत रहमत और फ़ुर्क़त अज़ाब है. ख़ुलासा यह है कि दीन के उसूलों में तमाम मुसलमान चाहे वो किसी एहद या किसी उम्मत के हों, एक बराबर हैं उनमें कोई मतभेद या विरोध नहीं, अलबत्ता आदेशों में उम्मतें अपने हालों और विशेषताओं के ऐतिबार से अलग अलग हैं. चुनांन्चे अल्लाह तआला ने फ़रमाया “लिकुल्लिन जअलना मिनकुम शिरअतौं व मिन्हाजन” यानी हमने सबके लिये एक एक शरीअत और रास्ता रखा. (सूरए माइदह, आयत 48)
मुश्रिकों पर बहुत ही भारी है वह (13)
(13)यानी बुतों को छोड़ना और तौहीद इख़्तियार करना.
जिसकी तरफ़ तुम उन्हें बुलाते हो, और अल्लाह अपने क़रीब के लिये चुन लेता है जिसे चाहे(14)
(14) अपने बन्दों में से उसी को तौफ़ीक़ देता है.
और अपनी तरफ़ राह देता है उसे जो रूजू लाए (15) {13}
(15) और उसकी इताअत क़ुबूल करे.
और उन्होंने फूट न डाली मगर बाद इसके कि उन्हें इल्म आ चुका था(16)
(16) यानी एहले किताब ने अपने नबियों के बाद जो दीन में इख़्तिलाफ़ डाला कि किसी ने तौहीद इख़्तियार की, कोई काफ़िर हो गया. वो इससे पहले जान चुके थे कि इस तरह इख़्तिलाफ़ करना और सम्प्रदायों में बट जाना गुमराही है, फिर भी उन्होंने यह सब कुछ किया.
आपस के हसद से(17)
(17) और रियासत और नाहक़ की हुकूमत के शौक़ में.
और अगर तुम्हारे रब की एक बात न गुज़र चुकी होती (18)
(18) अज़ाब में देरी फ़रमाने की.
एक निश्चित मीआद तक (19)
(19) यानी क़यामत के दिन तक.
तो कब का उनमें फैसला कर दिया होता(20)
(20) काफ़िरों पर, दुनिया में अज़ाब उतार कर.
और बेशक वो जो उनके बाद किताब के वारिस हुए (21)
(21) यानी यहूदी और ईसाई.
वो उससे एक धोखा डालने वाले शक में (22){14}
(22) यानी अपनी किताब पर मज़बूत ईमान नहीं रखते. या ये मानी हैं कि वो क़ुरआन की तरफ़ से या सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तरफ़ से शक में पड़े हैं.
तो उसी लिये बुलाओ (23)
(23) यानी उन काफ़िरों के इस इख़्तिलाफ़ और बिख़र जाने की वजह से उन्हें तौहीद और मिल्लते हनीफ़िया पर सहमत होने की दावत दी.
और डटे रहो (24)
(24) दीन पर और दीन की दावत देने पर.
जैसा तुम्हें हुक्म हुआ है, और उनकी ख़्वाहिशों पर न चलो, और कहो कि मैं ईमान लाया उसपर जो कोई किताब अल्लाह ने उतारी(25)
(25) यानी अल्लाह तआला की तमाम किताबों पर क्योंकि विरोधी कुछ पर ईमान लाते थे और कुछ से इन्कार करते थे.
और मुझे हुक्म है कि मैं तुम में इन्साफ़ करूं (26)
(26) सारी चीज़ों में, और सारे हालात में, और हर फ़ैसले में.
अल्लाह हमारा तुम्हारा सब का रब है(27)
(27) और हम सब उसके बन्दे.
हमारे लिये हमारा अमल और तुम्हारे लिये तुम्हारा किया(28)
(28) हर एक अपने अमल की जज़ा पाएगा.
कोई हुज्जत नहीं हममें और तुममें (29)
(29) क्योंकि सच्चाई ज़ाहिर हो चुकी.
अल्लाह हम सब को जमा करेगा(30)
(30) क़यामत के दिन.
और उसी की तरफ़ फिरना है {15} और वो जो अल्लाह के बारे में झगड़ते हैं बाद इसके कि मुसलमान उसकी दावत क़ुबूल कर चुके हैं(31)
(31) मुराद उन झगड़ने वालों से यहूदी हैं. वो चाहते थे कि मुसलमानों को फिर कुफ़्र की तरफ़ लौटाएं. इसलिये झगड़ा करते थे और कहते थे कि हमारा दीन पुराना, हमारी किताब पुरानी, नबी पहले, हम तुमसे बेहतर हैं.
उनकी दलील मेहज़ बेसबात है उनके रब के पास और उनपर ग़ज़ब है(32)
(32) उनके कुफ़्र के कारण.
और उनके लिये सख़्त अज़ाब है(33) {16}
(33) आख़िरत में.
अल्लाह है जिसने हक़ के साथ किताब उतारी (34)
(34) यानी क़ुरआने पाक, जो तरह तरह की दलीलों और आदेशों पर आधारित है.
और इन्साफ़ की तराज़ू (35)
(35) यानी उसने अपनी उतारी हुई किताबों में न्याय का निर्देश दिया है. कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा है कि मीज़ान से मुराद सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की पवित्र ज़ात है.
और तुम क्या जानो शायद क़यामत क़रीब ही हो(36) {17}
(36) नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने क़यामत का ज़िक्र फ़रमाया तो मुश्रिकों ने झुटलाने के अन्दाज़ में कहा कि क़यामत कब होगी. इसके जवाब में यह आयत उतरी.
इसकी जल्दी मचाते रहे हैं वो जो उस पर ईमान नहीं रखते(37)
(37)बेशुमार एहसान करता है, नेकियों पर भी और बदियों पर भी, यहाँ तक कि बन्दे गुनाहों में मश्ग़ूल रहते हैं और वह उन्हें भूख़ से हलाक नहीं करता.
और जिन्हें उसपर ईमान है वो उसे से डर रहे हैं और जानते हैं कि बेशक वह हक़ है, सुनते हो बेशक जो क़यामत में शक करते हैं ज़रूर दूर की गुमराही में हैं {18} अल्लाह अपने बन्दों पर लुत्फ़ (कृपा) फ़रमाता है (38)
(38) और ऐश की फ़राख़ी अता फ़रमाता है, मूमिन को भी और काफ़िर को भी, अपनी हिकमत के तकाज़े के मुताबिक़. हदीस शरीफ़ में है अल्लाह तआला फ़रमाता है मेरे कुछ बन्दे ऐसे हैं कि तवनगरी उनकी क़ुव्वत और ईमान का कारण है, अगर मैं उन्हें फ़कीर मोहताज़ कर दूं तो उनके अक़ीदे फ़ासिद हो जाएं और कुछ बन्दे ऐसे हैं कि तंगी और मोहताजी उनके ईमान की क़ुव्वत का कारण हैं, अगर मैं उन्हें ग़नी मालदार कर दूं तो उनके अक़ीदे ख़राब हो जाएं.
जिसे चाहे रोज़ी देता है (39)और वही क़ुव्वत व इज़्ज़त वाला है {19}
42 सूरए शूरा – तीसरा रूकू
مَن كَانَ يُرِيدُ حَرْثَ الْآخِرَةِ نَزِدْ لَهُ فِي حَرْثِهِ ۖ وَمَن كَانَ يُرِيدُ حَرْثَ الدُّنْيَا نُؤْتِهِ مِنْهَا وَمَا لَهُ فِي الْآخِرَةِ مِن نَّصِيبٍ
أَمْ لَهُمْ شُرَكَاءُ شَرَعُوا لَهُم مِّنَ الدِّينِ مَا لَمْ يَأْذَن بِهِ اللَّهُ ۚ وَلَوْلَا كَلِمَةُ الْفَصْلِ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ ۗ وَإِنَّ الظَّالِمِينَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ
تَرَى الظَّالِمِينَ مُشْفِقِينَ مِمَّا كَسَبُوا وَهُوَ وَاقِعٌ بِهِمْ ۗ وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فِي رَوْضَاتِ الْجَنَّاتِ ۖ لَهُم مَّا يَشَاءُونَ عِندَ رَبِّهِمْ ۚ ذَٰلِكَ هُوَ الْفَضْلُ الْكَبِيرُ
ذَٰلِكَ الَّذِي يُبَشِّرُ اللَّهُ عِبَادَهُ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ ۗ قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَىٰ ۗ وَمَن يَقْتَرِفْ حَسَنَةً نَّزِدْ لَهُ فِيهَا حُسْنًا ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ شَكُورٌ
أَمْ يَقُولُونَ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ كَذِبًا ۖ فَإِن يَشَإِ اللَّهُ يَخْتِمْ عَلَىٰ قَلْبِكَ ۗ وَيَمْحُ اللَّهُ الْبَاطِلَ وَيُحِقُّ الْحَقَّ بِكَلِمَاتِهِ ۚ إِنَّهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ
وَهُوَ الَّذِي يَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهِ وَيَعْفُو عَنِ السَّيِّئَاتِ وَيَعْلَمُ مَا تَفْعَلُونَ
وَيَسْتَجِيبُ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضْلِهِ ۚ وَالْكَافِرُونَ لَهُمْ عَذَابٌ شَدِيدٌ
۞ وَلَوْ بَسَطَ اللَّهُ الرِّزْقَ لِعِبَادِهِ لَبَغَوْا فِي الْأَرْضِ وَلَٰكِن يُنَزِّلُ بِقَدَرٍ مَّا يَشَاءُ ۚ إِنَّهُ بِعِبَادِهِ خَبِيرٌ بَصِيرٌ
وَهُوَ الَّذِي يُنَزِّلُ الْغَيْثَ مِن بَعْدِ مَا قَنَطُوا وَيَنشُرُ رَحْمَتَهُ ۚ وَهُوَ الْوَلِيُّ الْحَمِيدُ
وَمِنْ آيَاتِهِ خَلْقُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَمَا بَثَّ فِيهِمَا مِن دَابَّةٍ ۚ وَهُوَ عَلَىٰ جَمْعِهِمْ إِذَا يَشَاءُ قَدِيرٌ
जो आख़िरत की खेती चाहे(1)
(1) यानी जिसको अपने कर्मों से आख़िरत का नफ़ा चाहिये.
हम उसके लिये उसकी खेती बढ़ाएं(2)
(2) उसको नेकियों की तौफ़ीक़ देकर और उनके लिये ख़ैरात और ताअतों की राहें सरल करके और उसकी नेकियों का सवाब बढाकर.
और जो दुनिया की खेती चाहे(3)
(3) यानी जिसका अमल केवल दुनिया हासिल करने के लिये हो और वह आख़िरत पर ईमान न रखता हो. (मदारिक)
हम उसे उसमें से कुछ देंगे(4)
(4) यानी दुनिया में जितना उसके लिये मुक़द्दर किया है.
और आख़िरत में उसका कुछ हिस्सा नहीं (5){20}
(5) क्योंकि उसने आख़िरत के लिये अमल किया ही नहीं.
या उनके लिये कुछ शरीक हैं(6)
(6) मानी ये हैं कि क्या मक्के के काफ़िर उस दिन को क़ुबूल करते हैं जो अल्लाह तआला ने उनके लिये मुक़र्रर फ़रमाया या उनके कुछ ऐसे साथी हैं शैतान वग़ैरह.
जिन्हों ने उनके लिये(7)
(7) कुफ़्री दीनों में से.
वह दीन निकाल दिया है(8)
(8) जो शिर्क और दोबारा उठाए जाने के इनकार पर आधारित है.
कि अल्लाह ने उसकी इजाज़त न दी(9)
(9) यानी वह अल्लाह के दीन के ख़िलाफ़ है.
और अगर एक फ़ैसले का वादा न होता(10)
(10) और जज़ा के लिये क़यामत का दिन निश्चित न फ़रमा दिया गया होता.
तो यहीं उनमें फ़ैसला कर दिया जाता(11)
(11) और दुनिया ही में झुटलाने वालों को अज़ाब में जकड़ दिया जाता.
और बेशक ज़ालिमों के लिये दर्दनाक अज़ाब है(12) {21}
(12) आख़िरत में, और ज़ालिमों से मुराद यहाँ काफ़िर हैं.
तुम ज़ालिमों को देखोगे कि अपनी कमाइयों से सहमे हुए होंगे(13)
(13) यानी कुफ़्र और बुरे कर्मों से जो उन्होंने दुनिया में कमाए थे, इस अन्देशे से कि अब उनकी सज़ा मिलने वाली है.
और वो उनपर पड़ कर रहेगी(14)
(14) ज़रूर उनसे किसी तरह बच नहीं सकते. डरें या न डरें.
और जो ईमान लाए और अच्छे काम किये वो जन्नत की फुलवारियों में हैं, उनके लिये उनके रब के पास है जो चाहें यही बड़ा फ़ज़्ल है {22} यह है वह जिसकी ख़ुशख़बरी देता है अल्लाह अपने बन्दों को जो ईमान लाए और अच्छे काम किये, तुम फ़रमाओ मैं इस (15)
(15) रिसालत की तबलीग़ और हिदायत व उपदेश.
पर तुम से कुछ उजरत नहीं मांगता(16)
(16) और सारे नबियों का यही तरीक़ा है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि जब नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह तशरीफ़ फ़रमा हुए और अन्सार ने देखा कि हुज़ूर अलैहिस्सलातो वस्सलाम के ज़िम्मे ख़र्चे बहुत हैं और माल कुछ भी नहीं है तो उन्होने आपस में सलाह की और हुज़ूर के अधिकार और एहसान याद करके हुज़ूर की ख़िदमत में पेश करने के लिये बहुत सा माल जमा किया और उसको लेकर ख़िदमते अक़दस में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया कि हुज़ूर की बदौलत हमें हिदायत हुई, हम ने गुमराही से निजात पाई. हम देखते हैं कि हुज़ूर के ख़र्चे बहुत ज़्यादा हैं इसलिये हम ये माल सरकार की ख़िदमत में भेंट के लिये लाए हैं, क़ुबूल फ़रमाकर हमारी इज़्ज़त बढ़ाई जाए. इस पर यह आयत उतरी और हुज़ूर ने वो माल वापस फ़रमा दिये.
मगर क़राबत की महब्बत, (17)
(17) तुम पर लाज़िम है, क्योंकि मुसलामनों के बीच भाईचारा, प्रेम वाजिब है जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया “अल मूमिनूना वलमूमिनातो बअदुहुम औलियाओ बअदिन” यानी और मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें एक दूसरे के रफ़ीक़ हैं. (सूरए तौबह, आयत 71) और हदीस शरीफ़ में है कि मुसलमान एक इमारत की तरह है जिसका हर एक हिस्सा दूसरे हिस्से को क़ुव्वत और मदद पहुंचाता है. जब मुसलमानों में आपस में एक दूसरे के साथ महब्बत वाजिब हुई तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ किस क़द्र महब्बत फ़र्ज़ होगी. मानी ये हैं कि मैं हिदायत और उपदेश पर कुछ वेतन नहीं चाहता लेकिन रिश्तेदारी के हक़ तो तुम पर वाजिब हैं, उनका लिहाज़ करो और मेरे रिश्तेदार तुम्हारे भी रिश्तेदार है, उन्हें तकलीफ़ न दो. हज़रत सईद बिन जुबैर से रिवायत है कि रिश्तेदारो से मुराद हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की आले पाक है. (बुख़ारी) रिश्तेदारों से कौन कौन मुराद हैं इसमें कई क़ौल हैं. एक तो यह कि मुराद इससे हज़रत अली व हज़रत फ़ातिमा व हज़रत इमामे हसन और हज़रत इमामे हुसैन रदियल्लाहो अन्हुम हैं. एक क़ौल यह है कि आले अली, और आले अक़ील व आले जअफ़र व आले अब्बास मुराद हैं. और एक क़ौल यह है कि हुज़ूर के वो रिश्तेदार मुराद हैं जिन पर सदक़ा हराम है और वो बनी हाशिम और बनी मुत्तिलब हैं. हुज़ूर की पाक पवित्र बीबियाँ हुज़ूर के एहले बैत में दाख़िल हैं. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की महब्बत और हुज़ूर के रिश्तेदारों की महब्बत दीन के फ़र्ज़ों में से है. (जुमल व ख़ाज़िन वग़ैरह)
और जो नेक काम करे (18)
(18) यहाँ नेक काम से मुराद या रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की आले पाक से महब्बत है, या तमाम नेक काम.
हम उसके लिये उसमें और ख़ूबी बढ़ाएं, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला क़द्र फ़रमाने वाला है{23} या (19)
(19) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की निस्बत, मक्के के काफ़िर.
ये कहते हैं कि उन्होंने अल्लाह पर झूट बांध लिया(20)
(20) नबुव्वत का दावा करके, या क़ुरआने करीम को अल्लाह की किताब बताकर.
और अल्लाह चाहे तो तुम्हारे दिल पर अपनी रहमत व हिफ़ाज़त की मोहर फ़रमा दे(21)
(21) कि आपको उनके बुरा भला कहने से तकलीफ़ न हो.
और मिटाता है बातिल को(22)
(22) जो काफ़िर कहते हैं.
और हक़ को साबित फ़रमाता है अपनी बातों से (23)
(23) जो अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर उतारीं, चुनांन्वे ऐसा ही किया कि उनके बातिल को मिटाया और इस्लाम के कलिमे को ग़ालिब किया.
बेशक वह दिलों की बातें जानता है {24} और वही है जो अपने बन्दों की तौबह क़ुबूल फ़रमाता है और गुनाहों से दरगुज़र (क्षमा) फ़रमाता है(24)
(24) तोबह हर एक गुनाह से वाजिब है और तौबह की हक़ीक़त यह है कि आदमी बुराई और गुनाह से बाज़ आए और जो गुनाह उससे हो उस पर शर्मिन्दा हो और हमेशा गुनाह से दूर रहने का पक्का निश्चय करे और अगर गुनाह में किसी बन्दे का हक़ मारा गया था तो उसकी बहाली की कोशिश करे.
और जानता है जो कुछ तुम करते हो{25} और दुआ क़ुबूल फ़रमाता है उनकी जो ईमान लाए और अच्छे काम किये और उन्हें अपने फ़ज़्ल से और इनआम देता है (25)
(25) यानी जितना दुआ मांगने वाले ने तलब किया था उससे ज़्यादा अता फ़रमाता है.
और काफ़िरों के लिये सख़्त अज़ाब है {26} और अगर अल्लाह अपने सब बन्दों का रिज़्क़ वसीअ कर देता तो ज़रूर ज़मीन में फ़साद फैलाते(26)
(26) घमण्ड में गिरफ़तार है.
लेकिन वह अन्दाज़े से उतारता है जितना चाहे, बेशक वह अपने बन्दों से ख़बरदार है(27){27}
(27) जिसके लिये जितना उसकी हिकमत का तक़ाज़ा है, उसको उतना अता फ़रमाता है.
उन्हें देखता है और वही है कि मेंह उतारता है उनके नाउम्मीद होने पर और अपनी रहमत फैलाता है(28)
(28) और मेंह (वर्षा) से नफ़ा देता है. और क़हत को दफ़ा फ़रमाता है.
और वही काम बनाने वाला सब ख़ूबियों सराहा {28} और उसकी निशानियों से है आसमानों और ज़मीन की पैदायश और जो चलने वाले उनमें फैलाए, और वह उनके इकट्ठा करने पर (29) जब चाहे क़ादिर है {29}
(29) हश्र के लिये
42 सूरए शूरा – चौथा रूकू
وَمَا أَصَابَكُم مِّن مُّصِيبَةٍ فَبِمَا كَسَبَتْ أَيْدِيكُمْ وَيَعْفُو عَن كَثِيرٍ
وَمَا أَنتُم بِمُعْجِزِينَ فِي الْأَرْضِ ۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ اللَّهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ
وَمِنْ آيَاتِهِ الْجَوَارِ فِي الْبَحْرِ كَالْأَعْلَامِ
إِن يَشَأْ يُسْكِنِ الرِّيحَ فَيَظْلَلْنَ رَوَاكِدَ عَلَىٰ ظَهْرِهِ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ لِّكُلِّ صَبَّارٍ شَكُورٍ
أَوْ يُوبِقْهُنَّ بِمَا كَسَبُوا وَيَعْفُ عَن كَثِيرٍ
وَيَعْلَمَ الَّذِينَ يُجَادِلُونَ فِي آيَاتِنَا مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٍ
فَمَا أُوتِيتُم مِّن شَيْءٍ فَمَتَاعُ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۖ وَمَا عِندَ اللَّهِ خَيْرٌ وَأَبْقَىٰ لِلَّذِينَ آمَنُوا وَعَلَىٰ رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ
وَالَّذِينَ يَجْتَنِبُونَ كَبَائِرَ الْإِثْمِ وَالْفَوَاحِشَ وَإِذَا مَا غَضِبُوا هُمْ يَغْفِرُونَ
وَالَّذِينَ اسْتَجَابُوا لِرَبِّهِمْ وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَأَمْرُهُمْ شُورَىٰ بَيْنَهُمْ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ
وَالَّذِينَ إِذَا أَصَابَهُمُ الْبَغْيُ هُمْ يَنتَصِرُونَ
وَجَزَاءُ سَيِّئَةٍ سَيِّئَةٌ مِّثْلُهَا ۖ فَمَنْ عَفَا وَأَصْلَحَ فَأَجْرُهُ عَلَى اللَّهِ ۚ إِنَّهُ لَا يُحِبُّ الظَّالِمِينَ
وَلَمَنِ انتَصَرَ بَعْدَ ظُلْمِهِ فَأُولَٰئِكَ مَا عَلَيْهِم مِّن سَبِيلٍ
إِنَّمَا السَّبِيلُ عَلَى الَّذِينَ يَظْلِمُونَ النَّاسَ وَيَبْغُونَ فِي الْأَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۚ أُولَٰئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ
وَلَمَن صَبَرَ وَغَفَرَ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمِنْ عَزْمِ الْأُمُورِ
और तुम्हें जो मुसीबत पहुंची वह इसके कारण से है जो तुम्हारे हाथों ने कमाया(1)
(1) यह ख़िताब आक़िल बालिग़ मूमिनों से हैं जिनसे गुनाह सरज़द होते हैं. मुराद यह है कि दुनिया में जो तकलीफ़ें और मुसीबतें ईमान वालों को पहुंचती हैं, अक्सर उनका कारण उनके गुनाह होते हैं. उन तकलीफ़ों को अल्लाह तआला उनके गुनाहों का कफ़्फ़ारा कर देता है और कभी ईमान वाले की तकलीफ़ उसके दर्जों की बलन्दी के लिये होती है. जैसा कि बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में आया है. नबी जो गुनाहों से पाक होते हैं और छोटे बच्चे जो नासमझ होते हैं इस आयत के घेरे में नहीं आते. कुछ गुमराह फ़िर्के जो आवागवन को मानते हैं इस आयत से साबित करने की कोशिश करते हैं कि छोटे बच्चों को जो तकलीफ़ पहुंचती है इस आयत से साबित होता है कि वह उनके गुनाहों का नतीजा हो और अभी तक उनसे कोई गुनाह हुआ नहीं तो लाज़िम आया कि इस ज़िन्दगी से पहले कोई और ज़िन्दगी हो जिसमें गुनाह हों. यह बात बातिल है क्योंकि यह कलाम बच्चों से कहा ही नहीं गया है. जैसा आम तौर पर सारा संबोधन आक़िल बालिग़ से होता है. इसलिये आवागवन वालों की दलील झूठी हु्ई.
और बहुत कुछ तो माफ़ फ़रमा देता है {30} और तुम ज़मीन में क़ाबू से नहीं निकल सकते(2)
(2) जो मुसीबतें तुम्हारे लिये लिखी जा चुकी हैं उनसे कहीं भाग नहीं सकते. बच नहीं सकते.
और न अल्लाह के मुक़ाबले तुम्हारा कोई दोस्त न मददगार (3) {31}
(3) कि उसकी मर्ज़ी के विरूद्ध तुम्हें मुसीबत और तकलीफ़ से बचा सके.
और उसकी निशानियों से हैं (4)
(4) बड़ी बड़ी किश्तियाँ.
दरिया में चलने वालियां जैसे पहाड़ियां {32} वह चाहे तो हवा थमा दे (5)
(5) जो किश्तियों को चलाती है.
कि उसकी पीठ पर(6)
(6) यानी दरिया के ऊपर.
ठहरी रह जाएं (7)
(7) चलने न पाएं.
बेशक इसमें ज़रूर निशानियां हैं हर बड़े सब्र करने शुक्र करने वाले को(8){33}
(8) सब्र और शुक्र वालों से मुराद सच्चा ईमान वाला है जो सख़्ती और तकलीफ़ में सब्र करता है और राहत व ख़ुशहाली में शुक्र.
या उन्हें तबाह कर दे(9)
(9) यानी किश्तियों को डुबा दे.
लोगों के गुनाहों के कारण(10)
(10) जो उसमें सवार हैं.
और बहुत कुछ माफ़ फ़रमा दे(11) {34}
(11) गुनाहों में से कि उनपर अज़ाब न करे.
और जान जाएं वो जो हमारी आयतों में झगड़ते हैं कि उन्हें (12)
(12) हमारे अज़ाब से.
कहीं भागने की जगह नहीं {35} तुम्हें जो कुछ मिला है (13)
(13) दुनियावी माल असबाब.
वह जीती दुनिया में बरतने का है (14)
(14) सिर्फ़ कुछ रोज़, उसको हमेशगी नहीं.
और वह जो अल्लाह के पास है(15)
(15) यानी सवाब देने वाला.
बेहतर है और ज़्यादा बाक़ी रहने वाला उनके लिये जो ईमान लाए और अपने रब पर भरोसा करते हैं(16) {36}
(16) यह आयत हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो के हक़ में उतरी जब आपने कुल माल सदक़ा कर दिया और उसपर अरब के लोगों ने आपको बुरा भला कहा.
और वो जो बड़े बड़े गुनाहों और बेहयाइयों से बचते हैं और जब ग़ुस्सा आए माफ़ कर देते हैं {37} और वो जिन्होंने अपने रब का हुक्म माना (17)
(17) यह आयत अन्सार के हक़ में उतरी जिन्होंने अपने रब की दावत क़ुबूल करके ईमान और फ़रमाँबरदारी को अपनाया.
और नमाज़ क़ायम रखी (18)
(18) उसपर डटे रहे.
और उनका काम उनके आपस की सलाह से है (19)
(19) वो जल्दी और अहंकार में फ़ैसले नहीं करते. हज़रत हसन रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया. जो क़ौम मशवरा करती है वह सही राह पर पहुचंती है.
और हमारे दिये से कुछ हमारी राह में ख़र्च करते हैं {38} और वो कि जब उन्हें बग़ावत पंहुचे बदला लेते हैं(20){39}
(20) यानी जब उनपर कोई ज़ुल्म करे तो इन्साफ़ से बदला लेते हैं और बदले में हद से आगे नहीं बढ़ते. इब्ने ज़ैद का क़ौल है कि मूमिन दो तरह के हैं, एक जो ज़ुल्म को माफ़ करते हैं. पहली आयत में उनका ज़ि क्र फ़रमाया गया. दूसरे वो जो ज़ालिम से बदला लेते हैं. उनका इस आयत में ज़ि क्र है. अता ने कहा कि ये वो मूमिनीन हैं जिन्हें काफ़िरों ने मक्कए मुकर्रमा से नि काला और उनपर ज़ुल्म किया. फिर अल्लाह तआला ने उन्हें उस सरज़मीन पर क़ब्ज़ा दिया और उन्हों ने ज़ालिमों से बदला लिया.
और बुराई का बदला उसी की बराबर बुराई है(21)
(21) मानी ये हैं कि बदला बराबर का होना चाहिये उसमें ज़ियादती या अन्याय न हो. और बदले को बुराई कहना मजाज़ है कि देखने में एक सो होने के कारण कहा जाता है और जिसको वह बदला दिया जाए उसे बुरा मालूम होता है और बदले को बुराई के साथ ताबीर करने में यह भी इशारा है कि अगरचे बदला लेना जायज़ है लेकिन माफ़ कर देना उससे बेहतर है.
तो जिसने माफ़ किया और काम संवारा तो उसका अज्र अल्लाह पर है, बेशक वह दोस्त नहीं रखता ज़ालिमों को (22){40}
(22) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि ज़ालिमों से वो मुराद हैं जो ज़ुल्म की शुरूआत करे.
और बेशक जिसने अपनी मज़लूमी पर बदला लिया उनपर कुछ मुअख़िज़े की राह नहीं{41} मुआख़िज़ा तो उन्हीं पर है जो (23)
(23) शुरू में.
लोगों पर ज़ुल्म करते हैं और ज़मीन में नाहक़ सरकशी फैलाते हैं(24)
(24) घमण्ड और गुनाहों का शि कार होकर.
उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है {42} और बेशक जिसने सब्र किया (25)
(25) ज़ुल्म और तकलीफ़ पर, और बदला न लिया.
और बख़्श दिया तो वह ज़रूर हिम्मत के काम हैं {43}
42 सूरए शूरा – पांचवाँ रूकू
وَمَن يُضْلِلِ اللَّهُ فَمَا لَهُ مِن وَلِيٍّ مِّن بَعْدِهِ ۗ وَتَرَى الظَّالِمِينَ لَمَّا رَأَوُا الْعَذَابَ يَقُولُونَ هَلْ إِلَىٰ مَرَدٍّ مِّن سَبِيلٍ
وَتَرَاهُمْ يُعْرَضُونَ عَلَيْهَا خَاشِعِينَ مِنَ الذُّلِّ يَنظُرُونَ مِن طَرْفٍ خَفِيٍّ ۗ وَقَالَ الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ الْخَاسِرِينَ الَّذِينَ خَسِرُوا أَنفُسَهُمْ وَأَهْلِيهِمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ ۗ أَلَا إِنَّ الظَّالِمِينَ فِي عَذَابٍ مُّقِيمٍ
وَمَا كَانَ لَهُم مِّنْ أَوْلِيَاءَ يَنصُرُونَهُم مِّن دُونِ اللَّهِ ۗ وَمَن يُضْلِلِ اللَّهُ فَمَا لَهُ مِن سَبِيلٍ
اسْتَجِيبُوا لِرَبِّكُم مِّن قَبْلِ أَن يَأْتِيَ يَوْمٌ لَّا مَرَدَّ لَهُ مِنَ اللَّهِ ۚ مَا لَكُم مِّن مَّلْجَإٍ يَوْمَئِذٍ وَمَا لَكُم مِّن نَّكِيرٍ
فَإِنْ أَعْرَضُوا فَمَا أَرْسَلْنَاكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا ۖ إِنْ عَلَيْكَ إِلَّا الْبَلَاغُ ۗ وَإِنَّا إِذَا أَذَقْنَا الْإِنسَانَ مِنَّا رَحْمَةً فَرِحَ بِهَا ۖ وَإِن تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيهِمْ فَإِنَّ الْإِنسَانَ كَفُورٌ
لِّلَّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ ۚ يَهَبُ لِمَن يَشَاءُ إِنَاثًا وَيَهَبُ لِمَن يَشَاءُ الذُّكُورَ
أَوْ يُزَوِّجُهُمْ ذُكْرَانًا وَإِنَاثًا ۖ وَيَجْعَلُ مَن يَشَاءُ عَقِيمًا ۚ إِنَّهُ عَلِيمٌ قَدِيرٌ
۞ وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُكَلِّمَهُ اللَّهُ إِلَّا وَحْيًا أَوْ مِن وَرَاءِ حِجَابٍ أَوْ يُرْسِلَ رَسُولًا فَيُوحِيَ بِإِذْنِهِ مَا يَشَاءُ ۚ إِنَّهُ عَلِيٌّ حَكِيمٌ
وَكَذَٰلِكَ أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ رُوحًا مِّنْ أَمْرِنَا ۚ مَا كُنتَ تَدْرِي مَا الْكِتَابُ وَلَا الْإِيمَانُ وَلَٰكِن جَعَلْنَاهُ نُورًا نَّهْدِي بِهِ مَن نَّشَاءُ مِنْ عِبَادِنَا ۚ وَإِنَّكَ لَتَهْدِي إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ
صِرَاطِ اللَّهِ الَّذِي لَهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۗ أَلَا إِلَى اللَّهِ تَصِيرُ الْأُمُورُ
और जिसे अल्लाह गुमराह करे उसका कोई दोस्त नहीं अल्लाह के मुक़ाबिल(1)
(1) कि उसे अज़ाब से बचा सके.
और तुम ज़ालिमों को देखोगे कि जब अज़ाब देखेंगे(2)
(2) क़यामत के दिन.
कहेंगे क्या वापस जाने का कोई रास्ता है(3) {44}
(3) यानी दुनिया में, ताकि वहाँ जाकर ईमान ले आएं.
और तुम उन्हें देखोगे कि आग पर पेश किये जाते हैं ज़िल्लत से दबे लचे छुपी निगाहों देखते हैं(4)
(4) यानी ज़िल्लत और ख़ौफ़ के कारण आग को ऐसी तेज़ नज़रों से देखेंगे जैसे कोई क़त्ल होने वाला अपने क़त्ल के वक़्त जल्लाद की तलवार तेज़ निगाह से देखता है.
और ईमान वाले कहेंगे बेशक हार में वो हैं जो अपनी जानें और अपने घर वाले हार बैठे क़यामत के दिन(5)
(5) जानों का हारना तो यह है कि वो कुफ़्र इख़्तियार करके जहन्नम के हमेशगी के अज़ाब में गिरफ़्तार हुए और घर वालों का हारना यह है कि ईमान लाने की सूरत में जन्नत की जो हूरें उनके लिये रखी गई थीं, उनसे मेहरूम हो गए.
सुनते हो बेशक ज़ालिम (6)
(6) यानी काफ़िर.
हमेशा के अज़ाब में हैं {45} और उनके कोई दोस्त न हुए कि अल्लाह के मुक़ाबिल उनकी मदद करते(7)
(7) और उनके अज़ाब से बचा सकते.
और जिसे अल्लाह गुमराह करे उसके लिये कहीं रास्ता नहीं (8){46}
(8) ख़ैर का, न वो दुनिया में हक़ तक पहुंच सके, न आख़िरत में जन्नत तक.
अपने रब का हुक्म मानो(9)
(9) और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की फ़रमाँबरदारी करके तौहीद और अल्लाह की इबादत इख़्तियार करे.
उस दिन के आने से पहले जो अल्लाह की तरफ़ से टलने वाला नहीं(10)
(10) इससे मुराद या मौत का दिन है, या क़यामत का.
उस दिन तुम्हें कोई पनाह न होगी और न तुम्हें इन्कार करते बने(11) {47}
(11) अपने गुनाहों का, यानी उस दिन कोई रिहाई की सूरत नहीं. न अज़ाब से बच सकते हो न अपने बुरे कर्मों का इन्कार कर सकते हो जो तुम्हारे आमाल नामों में दर्ज हैं.
तो अगर वो मुंह फेरें(12)
(12) ईमान लाने और फ़रमाँबरदारी करने से.
तो हमने तुम्हें उनपर निगहबान बनाकर नहीं भेजा(13)
(13) कि तुम पर उनके कर्मों की हिफ़ाज़त अनिवार्य हो.
तुम पर तो नहीं मगर पहुंचा देना(14)
(14)और वह तुमने अदा कर दिया.
और जब हम आदमी को अपनी तरफ़ से किसी रहमत का मज़ा देते हैं उस पर ख़ुश हो जाता है, (15)
(15) चाहे वह दौलत और जायदाद हो या सेहत व आफ़ियत या अम्न व सलामती या शान व शौकत.
और अगर उन्हें कोई बुराई पहुंचे (16)
(16) या और कोई मुसीबत और बला जैसे दुष्काल, बीमारी, ग़रीबी वग़ैरह सामने आए.
बदला उसका जो उनके हाथों ने आगे भेजा(17)
(17) यानी उनकी नाफ़रमानियों और गुमराहियों के कारण.
तो इन्सान बड़ नाशुक्रा है (18) {48}
(18) नेअमतों को भूल जाता है.
अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन की सल्तनत (19)
(19) जैसे चाहता है, उपयोग में लाता है, कोई दख़्ल देने और ऐतिराज़ करने की मजाल नहीं रखता.
पैदा करता है जो चाहे, जिसे चाहे बेटियां अता करे(20)
(20) बेटा न दे.
और जिसे चाहे बेटे दे(21){49}
(21) बेटी न दे.
या दोनों मिला दे बेटे और बेटियाँ, और जिसे चाहे बांझ कर दे(22)
(22) कि उसके औलाद ही नहो. वह मालिक है अपनी नेअमत को जिस तरह चाहे तक़सीम करे, जिसे जो चाहे दे, नबियों में भी ये सूरतें पाई जाती हैं. हज़रत लूत और हज़रत शूऐब अलैहिस्सलाम के सिर्फ़ बेटियाँ थीं, कोई बेटा न था और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सिर्फ़ बेटे थे, कोई बेटी हुई ही नहीं. और नबियों के सरदार अल्लाह के हबीब मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अल्लाह तआला ने चार बेटे अता फ़रमाए और चार बेटियाँ. और हज़रत यहया और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के कोई औलाद ही नहीं.
बेशक वह इल्म व क़ुदरत वाला है {50} और किसी आदमी को नहीं पहुंचता कि अल्लाह उससे कलाम फ़रमाए मगर वही के तौर पर (23)
(23) यानी बेवास्ता उसके दिल में इल्क़ा फ़रमाकर और इल्हाम करके, जागते में या सपने में, इसमें वही की प्राप्ति कानों के माध्यम यानी सुनने के बग़ैर है और आयत में इल्ला वहयन से यही मुराद है. इसमें यह क़ैद नहीं कि इस हाल में सुनने वाला बोलने वाले को देखता हो या न देखता हो. मुजाहिद ने नक़्ल किया कि अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के सीने में ज़बूर की वही फ़रमाई और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को बेटे के ज़िब्ह की ख़्वाब में वही फ़रमाई. और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से मेअराज में इसी तरह की वही फ़रमाई. जिसका “फ़ औहा इला अब्दिही मा औहा” में बयान है. यह सब इसी क़िस्म में दाख़िल हैं. नबियों के ख़्वाब सच्चे होते हैं जैसा कि हदीस शरीफ़ में आया है कि अम्बिया के ख़्वाब वही हैं. (तफ़सीर अबू सऊद व कबीर व मदारिक व ज़रक़ानी अलल मवाहिब वगै़रह)
या यूं कि वह बशर महानता के पर्दे के उधर हो (24)
(24) यानी रसूल पर्दे के पीछे से उसका कलाम सुने. वही के इस तरीक़े में भी कोई वास्ता नहीं मगर सुनने वाले को इस हाल में बोलने वाले का दर्शन नहीं होता. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम इसी तरह के कलाम से बुज़ुर्गी दिये गए. यहूदियों ने हुज़ूर पुरनूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा था कि अगर आप नबी हैं तो अल्लाह तआला से कलाम करते वक़्त उसको क्यों नहीं देखते जैसा कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम देखते थे. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने जवाब दिया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम नहीं देखते थे और अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी. अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसके लिये कोई ऐसा पर्दा हो जैसा जिस्मानियात के लिये होता है. इस पर्दे से मुराद सुनने वाले का दुनिया में दर्शन से मेहजूब होना है.
या कोई फ़रिश्ता भेजे कि वह उसके हुक्म से वही करे जो वह चाहे(25)
(25) वही के इस तरीक़े में रसूल की तरफ़ फ़रिश्ते की वसातत है.
बेशक वह बलन्दी व हिकमत (बोध) वाला है {51} और यूंही हमने तुम्हें वही भेजी(26)
(26) ऐ नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम.
एक जाँफ़ज़ा चीज़(27)
(27) यानी क़ुरआने पाक, जो दिलों में ज़िन्दगी पैदा करता है.
अपने हुक्म से, इससे पहले न तुम किताब जानते थे न शरीअत के आदेशों की तफ़सील हाँ हमने उसे (28)
(28) यानी दीने इस्लाम.
नूर किया जिससे हम राह दिखाते हैं अपने बन्दों से जिसे चाहते हैं, और बेशक तुम ज़रूर सीधी राह बताते हो(29) {52}
(29)
अल्लाह की राह(30) कि उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में, सुनते हो सब काम अल्लाह ही की तरफ़ फिरते हैं {53}
(30) जो अल्लाह तआला ने अपने बन्दों के लिये मुक़र्रर फ़रमाई.