Namaz Ki Sharte
नमाज के तरीके के अंदर हम नमाज की शर्तों का जिक्र करेंगे जो के 6 शर्तें है, अगर इसमें से 1 भी Namaz Ki Sharte छूट जाती है तो इसके बगैर नमाज मुकम्मल होगी नहीं, आपको नमाज फिर से दोहरा नि होगी, यहां पर हम 6 शर्तों का मुकम्मल तरीके से बयान करेंगे, जो नमाज के लिए बेहद जरूरी है।
अब जानते हैं नमाज़ की शर्ते
- तहारत : यानी बदन का पाक होना
- सत्रे औरत : यानी बदन का वह हिस्सा जिसका ढकना फर्ज है
- इस्तिकबाले किब्ला : यानी किबले की तरफ मुह होना
- वक़्त : यानी नमाज़ का टाइम होना
- नियत : यानी नमाज़ का इरादा करना
- तकबीरे तहर्री मा : यानी “अल्लाहु अकबर” केहना
Namaz Ki Sharte 1: Taharat
नमाज़ की पहली शर्त: तहारत
तहारत यानी नमाज़ी के बदन का हदसे अकबर व असग़र और नजासते हकीकिया कद्रे माने से यानी नजासत की वह मिकदार जिसके लगे रहने से नमाज़ न हो उससे पाक होना।
उसके कपड़े और उस जगह का जिस पर नमाज़ पढ़ी नजासते हकीकिया कुद्रे माने से पाक होना (मोतून) हदसे अकबर यानी वो काम जिनसे गुस्ल फर्ज हो जाए और हदसे असगर यानी वो काम जिनसे वुजू जाता रहता है और उनसे पाक होने का तरीका गुस्ल का तरीका और वुजू का तरीका दोनों वेबसाइट पर मौजूद हैं आप वहां से मालूमात ले सकते हैं।
इस पहली शर्तें नमाज का मतलब यह है कि इस कद्र नजासत से पाक होना है, कि बगैर पाक किये नमाज होगी ही नहीं मसलन ननासते गलीना यानी दलदार नजासत दिरहम से ज़्यादा और नजासते खफीफा कपड़े या बदन के उस हिस्से की चौथाई से ज्यादा जिस में लगी हो इसका नाम कद्रे माने है और अगर इससे कम है तो इस का ज़ाइल करना सुन्नत है।
मसअला :- किसी शख्स ने अपने को बे-वुजू गुमान किया और उसी हालत में नमाज़ पढ़ ली बाद को ज़ाहिर हुआ कि बे-वुजू न था नमाज न हुई। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- मुसल्ली अगर ऐसी चीज़ को उठाए हो कि उसकी हरकत से वह भी हरकत करें अगर उसमें नजासत कद्रे मानेअ हो तो नमाज जाइज नहीं मसलन चाँदनी का एक सिरा ओढ़कर नमाज़ पढ़ी और दूसरे सिरे में नजासत है अगर रुकू व सुजूद व कियाम व कादा में उसकी हरकत से उस नजासत की जगह तक हरकत पहुँचती है तो नमाज़ न होगी वर्ना हो जायेगी।
यूँही अगर गोद में इतना छोटा बच्चा लेकर नमाज पढ़ी कि खुद उसकी गोद में अपनी ताकत से न रुक सके बल्कि उसके रोकने से थमा हुआ हो और उसका बदन या कपड़ा बकद्रे माने नमाज़ नापाक है तो नमाज़ न होगी कि यही उसे उठाये हुए है और अगर वह अपनी ताकत से रुका हुआ है उसके रोकने का मुहताज नहीं तो नमाज़ हो जायेगी कि अब यह उसे उठाये हुये नहीं फिर भी बे-जरूरत कराहत से खाली नहीं अगर्चे उसके बदन और कपड़ों पर नजासत भी न हो। (दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी, रजा)
मसअला :- अगर नजासत कद्रे माने से कम है जब भी मकरूह है फिर नजासते ग़लीज़ा दिरहम के बराबर है तो मकरूहे तहर्री मी और उससे कम तो खिलाफे सुन्नत। (दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी)
मसअला :- छत, खेमा, शामियाने का ऊपरी हिस्सा अगर नजिस हो और मुसल्ली के सर से खड़े होने में लगे जब भी नमाज़ न होगी (रद्दल मुहतार) यानी अगर शामियाने वगैरह की नजिस जगह बक़द्रे मानेअ नमाजी के सर को बक़द्रे अदाये रुक्न लगे यानी इतनी देर जितनी देर तीन बार सुव्हानल्लाह कहने में लगे मतलब यह है कि अगर कद्रे माने नजासत से छुआ और फौरन हटा दिया कि इतना वक्त न होने पाया कि जितनी देर में तीन बार सुव्हानल्लाह कह ले तो नमाज हो जाएगी और अगर तीन तस्बीह के बराबर या ज्यादा देर की तो नमाज़ न होगी। (रजा)
मसअला :- अगर नमाज़ी का कपड़ा या बदन नमाज के दरमियान में बकद्रे मानेअ नापाक हो गया और तीन तस्बीह का वक्फा हुआ नमाज़ न हुई और अगर नमाज शुरू करते वक्त कपड़ा नापाक था या किसी नापाक चीज़ को लिये हुए था और उसी हालत में शुरू कर ली और ‘अल्लाहु अकबर’ कहने के बाद जुदा किया तो नमाज़ मुनअकिद ही न हुई यानी शुरू ही नहीं हुई। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- मुसल्ली का बदन जुनुब या हैज़ व निफास वाली औरत के बदन से मिला रहा या उन्होंने उसकी गोद में सर रखा तो नमाज़ हो जायेगी।( दुर्रे मुख्तार )
मसअला :- मुसल्ली के बदन पर नजिस कबूतर बैठा नमाज़ हो जायेगी। (बहर)
मसअला :- जिस जगह नमाज पढ़े उसके पाक होने से मुराद सज्दे व कदम रखने की जगह का पाक होना है जिस चीज पर नमाज पढ़ता हो उसके सब हिस्से का पाक होना सेहते नमाज़ के लिए शर्त नहीं। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- मुसल्ली के एक पाँव के नीच दिरहम से ज्यादा नजासत हो नमाज़ न होगी। यूँही अगर दोनों पाँव के नीचे थोड़ी-थोड़ी नजासत है कि जमा करने से एक दिरहम हो जायेगी और अगर एक कदम की जगह पाक थी और दूसरा कदम जहाँ रखेगा नापाक है उसने इस पौव को उठाकर नमाज पढ़ी हो गई। हाँ बे-जरूरत एक पाँव पर खड़े होकर नमाज़ पढ़ना मकरूह है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- पेशानी पाक जगह है और नाक नजिस जगह तो नमाज हो जायेगी कि नाक दिरहम से कम जगह पर लगती है और बिला जरूरत यह भी मकरूह । (रद्दल मुहतार)
मसअला :- सजदे में हाथ या घुटना नजिस जगह होने से सही मजहब में नमाज़ न होगी (रद्दल मुहतार) और अगर हाथ नजिस जगह हो और हाथ पर सजदा किया तो बिलइजमा यानी सब के नज़दीक नमाज़ न होगी। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- आस्तीन के नीचे नजासत है और उसी आस्तीन पर सजदा किया नमाज़ न होगी (रद्दल मुहतार) अगर्चे नजासत हाथ के नीचे न हो बल्कि चौड़ी आस्तीन के खाली हिस्से के नीचे हो यानी आस्तीन फासिल (आड़, रोक) न समझी जायेगी अगर्चे कपड़ा मोटा हो कि उसके बदन की ताबे है बखिलाफ और मोटे कपड़े के कि नजिस जगह बिछाकर पढ़ी और उसकी रंगत या बू महसूस न हो तो नमाज़ हो जायेगी कि यह कपड़ा नजासत व मुसल्ली में फासिल (रोक) हो जायेगा कि बदने मुसल्ली का तावे नहीं यूँही अगर चौड़ी आस्तीन का खाली हिस्सा सजदा करने में नजासत की जगह पड़े और वहाँ न हाथ हो न पेशानी तो नमाज हो जायेगी अगर्चे आस्तीन बारीक हो कि अब उस नजासत को बदने मुसल्ली से कोई ताल्लुक नहीं। (रजा)
मसअला :- अगर सजदा करने में दामन वगैरा नजिस जमीन पर पड़ते हो तो मुजिर नहीं (नमाज़ में नुकसान नहीं)। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर नजिस जगह पर इतना बारीक कपड़ा बिछा कर नमाज़ पढ़ी जो सत्र के काम में नहीं आ सकता यानी उसके नीचे की चीज झलकती हो नमाज़ न हुई और अगर शीशे पर नमाज़ पढ़ी और उसके नीचे नजासत है अगर्चे नुमायाँ (जाहिर) हो नमाज हो गई। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर सजदा करने में दामन वगैरा नजिस जमीन पर पड़ते हों तो मुजिर नहीं (नमाज़ में नुकसान नहीं) । (रहुल मुहतार)
मसअला :- अगर नजिस जगह पर इतना बारीक कपड़ा बिछा कर नमाज पढ़ी जो सत्र के काम में नहीं आ सकता यानी उसके नीचे की चीज झलकती हो नमाज़ न हुई और अगर शीशे पर नमाज़ पढ़ी और उसके नीचे नजासत है अगर्चे नुमायाँ (जाहिर) हो नमाज़ हो गई। (रद्दल मुहतार)
Namaz Ki Sharte 2: Satre Aurat
नमाज़ की दूसरी शर्त : सत्रे औरत
सत्रे औरत यानी बदन का वह हिस्सा जिसका छुपाना फर्ज है उसको छुपाना है।
अल्लाह तआला फ़रमाता है :
तर्जमा : हर नमाज के वक्त कपड़े पहनो ।
तर्जमा : औरतें जीनत यानी जीनत की जगहों को ज़ाहिर न करें मगर वह कि ज़ाहिर हैं। ( कि उनके खुले रहने पर जाइज़ होने की वजह से आदत पड़ी हुई है )
हदीस में है जिस को इब्ने अदी ने कामिल में इब्ने उमर रदियल्लाहु तआला अन्हुमा से रिवायत किया कि फरमाते हैं सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम जब नमाज़ पढ़ो तहबंद बांध लो और चादर ओढ़ लो और यहूदियों की मुशाबहत न करो और अबू दाऊद व तिर्मिज़ी व हाकिम व इब्ने खुज़ैमा उम्मुल मोमिनीन सिद्दीका रदियल्लाहु तआला अन्हा से रावी कि फरमाते हैं सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम बालिग़ औरत की नमाज़ बगैर दुपट्टे के अल्लाह तआला कबूल नहीं फ़रमाता — अबू दाऊद ने रिवायत की कि उम्मुल मोमिनीन उम्मे सलमा रदियल्लाहु तआला अन्हा ने अर्ज की क्या बगैर इज़ार यानी बिला पाजामा वग़ैरह पहने सिर्फ कुर्ते और दुपट्टे में औरत नमाज़ पढ़ सकती है। इरशाद फ़रमाया जब कुर्ता पूरा हो कि पुश्ते कदम को छिपा ले — और दार कुतनी बरिवायते अम्र इब्ने शुऐब अन अबीहे अन जद्देही रावी कि फरमाते हैं सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम नाफ के नीचे से घुटने तक औरत है — और तिर्मिजी ने अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद रदियल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत की फरमाते हैं सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम औरत औरत है यानी छुपाने की चीज़ है जब निकलती है शैतान उसकी तरफ झांकता है।
मसअला :- सत्रे औरत हर हाल में वाजिब यानी फर्ज है ख़्वाह नमाज़ में हो या नहीं, तन्हा हो या किसी के सामने बिला किसी सही गरज के तन्हाई में भी खोलना जाइज़ नहीं और लोगों के सामने या नमाज़ में तो सत्र बिलइजमा फर्ज है यहाँ तक कि अगर अंधेरे मकान में नमाज पढ़ी अगर्चे वहाँ कोई न हो और उसके पास इतना पाक कपड़ा मौजूद है कि सत्र का काम दे और नंगे पढ़ी बिलइजमा नमाज़ न होगी मगर औरत के लिये तन्हाई में जबकि नमाज़ में न हो तो सारा बदन छुपाना वाजिब नहीं बल्कि सिर्फ नाफ से घुटने तक और महारिम के सामने पेट और पीठ का छुपाना भी वाजिब है और गैर महरम के सामने और नमाज़ के लिये अगर्चे तन्हा अंधेरी कोठरी में हो तमाम बदन सिवा पाँच उज्च के जिसका बयान आयेगा छुपाना फर्ज है बल्कि जवान औरत को ग़ैर मर्दो के सामने मुँह खोलना भी मना है। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- इतना बारीक कपड़ा जिससे बदन चमकता हो सत्र के लिए काफी नहीं उससे नमाज पढ़ी तो न हुई (आलमगीरी) — यूँही अगर चादर में से औरत के बालों की सियाही चमके नमाज़ न होगी (रजा) — बाज़ लोग बारीक साड़ियाँ और तहबंद बांधकर नमाज़ पढ़ते हैं कि रान चमकती है उनकी नमाज़ें नहीं होतीं और ऐसा कपड़ा पहनना जिससे सत्रे औरत न हो सके अलावा नमाज़ के भी हराम है।
मसअला :- दबीज़ (मोटा) कपड़ा जिससे बदन का रंग न चमकता हो मगर बदन से बिल्कुल ऐसा चिपका हुआ है कि देखने से उज्च की हैअत (बनावट) मालूम होती है ऐसे कपड़े से नमाज़ हो जायेगी मगर उस उज्व की तरफ दूसरों को निगाह करना जाइज़ नहीं ( रद्दल मुहतार) — और ऐसा कपड़ा लोगों के सामने पहनना भी मना है और औरतों के लिए बदर्जा औला यानी और ज्यादा मुमानअत (मना है)। बाज़ औरतें जो बहुत चुस्त पाजामे पहनती हैं इस मसअले से सबक लें।
मसअला :- नमाज़ में सत्र के लिए पाक कपड़ा होना जरूरी है यानी इतना नजिस न हो जिससे नमाज़ न हो सके तो अगर पाक कपड़े पर कुदरत है और नापाक पहनकर नमाज़ पढ़ी नमाज़ न हुई। (आलमगीरी)
मसअला :- इसके इल्म में कपड़ा नापाक है और उसमें नमाज पढ़ी फिर मालूम हुआ कि पाक था नमाज़ न हुई। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- ग़ैर नमाज़ में (यानी जब नमाज में न हो) नजिस कपड़ा पहना तो हरज नहीं अगर्चे पाक कपड़ा मौजूद हो और जो दूसरा नहीं तो उसी को पहनना वाजिब है (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार) — यह उस वक़्त है कि उसकी नजासत खुश्क हो छूट कर बदन को न लगे वर्ना पाक कपड़ा होते हुए ऐसा कपड़ा पहनना मुतलकन मना है कि बिला वजह बदन नापाक करना है। (रजा)
मसअला :- मर्द के लिए नाक के नीचे से घुटनों के नीचे तक औरत है यानी उसका छुपाना फर्ज है नाफ उसमें दाखिल नहीं और घुटने दाखिल हैं (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार) — इस ज़माने में बहुतेरे ऐसे हैं कि तहबंद या पाजामा इस तरह पहनते हैं कि पेडू का कुछ हिस्सा खुला रहता है अगर कुर्ते वगैरह से इस तरह छुपा हो कि जिल्द (चमड़े) की रंगत न चमके तो खैर वर्ना हराम है और नमाज़ में चौथाई की मिकदार खुला रहा तो नमाज़ न होगी और बाज बेबाक ऐसे हैं कि लोगों के सामने घुटने बल्कि रान तक खोले रहते हैं यह भी हराम है और इसकी आदत है तो फासिक है।
मसअला :- आज़ाद औरतों और हिजड़ों के लिए सारा बदन औरत है सिया मुँह की टकली और हथेलियों और पाँव के तलवों के, उसके सर के लटके हुए बाल और गर्दन और कलाईयाँ भी औरत हैं उनका छुपाना भी फर्ज है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- इतना बारीक दुपट्टा जिससे बाल की सियाही चमके औरत ने ओढ़ कर नमाज़ पढ़ी न होगी जब तक कि उस पर कोई ऐसी चीज न ओढ़े जिससे बाल वगैरह का रंग छुप जाए। (आलमगीरी)
मसअला :- बांदी के लिए सारा पेट और पीठ और दोनों पहलू और नाफ से घुटनों से नीचे तक औरत है खुन्सा मुश्किल रकीक (गुलाम) हो तो उसका भी यही हुक्म है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- बांदी सर खोले नमाज पढ़ रही थी, नमाज के दरमियान ही में मालिक ने उसे आज़ाद कर दिया अगर फौरन अमले कलील यानी एक हाथ से उसने सर छिपा लिया नमाज़ हो गई वर्ना नहीं ख़्वाह उसे अपने आज़ाद होने का इल्म हुआ या नहीं, हाँ अगर उसके पास कोई ऐसी चीज़ ही न थी जिससे सर छिपाये तो हो गई। (दुर्रेमुख्तार, आलमगीरी)
मसअला :- जिन आज़ा का सत्र फर्ज़ है उनमें कोई उज्व चौथाई से कम खुल गया नमाज़ हो गई और अगर चौथाई उज्व खुल गया और फौरन छुपा लिया जब भी हो गई — और अगर बकद्र एक रुक्न यानी तीन मर्तबा सुव्हानल्लाह कहने के खुला रहा या बिलक़स्द खोला (यानी जानबूझ कर ) अगर्चे फौरन छिपा लिया नमाज़ जाती रही। (आलमगीरी रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर नमाज शुरू करते वक़्त उज़्व की चौथाई खुली है यानी उसी हालत पर अल्लाहु अकबर कह लिया तो नमाज शुरू ही न हुई। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर चन्द आज़ा में कुछ कुछ खुला रहा, हर एक उस उज़्व की चौथाई से कम है मगर मजमूआ उनका उन खुले हुए आज़ा में जो सबसे छोटा है उसकी चौथाई की बराबर है नमाज़ न हुई मसलन औरत के कान का नवाँ हिस्सा और पिंडली का नवाँ हिस्सा खुला रहा तो मजमूआ दोनों का कान की चौथाई की कद्र ज़रूर है नमाज़ जाती रही। (आलमगीरी)
मसअला :- औरते गलीज़ यानी कुब्ल व दुबुर (पाख़ाने और पेशाब का मकाम) और उनके आस पास की जगह और औरते खफीफा कि उनके अलावा और आजाए औरत हैं। इस हुक्म में सब बराबर हैं गिलजत व खिफ्फत बा एतिबारे हुरमते नज़र के है यानी ज्यादती और कमी देखने के एतिबार से हराम है कि गलीजा की तरफ देखना ज्यादा हराम है कि अगर किसी को घुटना खोले हुए देखे तो नरमी के साथ मना करे अगर बाज़ न आये तो उससे झगड़ा न करे और अगर रान खोले हुए है तो सख्ती से मना करे और बाज़ न आया तो मारे नहीं और अगर औरते ग़लीज़ा खोले हुए है तो जो मारने पर कादिर हो मसलन बाप या हाकिम वह मारे। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- सत्र के लिये यह जरूरी नहीं कि अपनी निगाह भी उन आज़ा पर न पड़े तो अगर किसी ने सिर्फ लम्बा कुर्ता पहना और उसका गिरेबान खुला हुआ है कि अगर गिरेबान से नज़र करे तो आजा दिखाई देते हैं नमाज़ हो जायेगी अगर्चे बिलकस्द (जानबूझ कर ) उधर नज़र करना मकरूहे तहर्रीमी है। (दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी)
मसअला :- औरों से सत्र फर्ज़ होने के यह मअना हैं कि इधर उधर से न देख सकें तो मआज अल्लाह अगर किसी शरीर ने नीचे झुक कर आज़ा को देख लिया तो नमाज़ न गई। (आलमगीरी)
मसअला :- मर्द में आजाए औरत नौ हैं आठ अल्लामा इब्राहीम हलबी व अल्लामा शामी व अल्लामा तहतावी वग़ैरहुम ने गिने ।
1. ज़कर (लिंग) मआ अपने सब अज्जा हशफा (सुपारी) व कस्बा (ज़कर की गिरह या उसकी लम्बाई) व कलफा (जकर का चमड़ा) के। 2. अंडकोष (फोते) यह दोनों मिलकर एक उज़्व हैं। इनमें फक्त एक की चौथाई खुलना मुफसिदे नमाज़ नहीं 3. दुबुर यानी पाखाना का मकाम 4 व 5. हर एक सुरीन (चूतड़) जुदा औरत है। 6 व 7. हर रान जुदा औरत है चढ्ढे यानी रान के ऊपर के जोड़ से घुटने तक रान हैं, घुटना भी इसमें दाखिल है अलग उज़्व नहीं तो अगर पूरा घुटना बल्कि दोनों खुल जायें नमाज़ हो जायेगी कि दोनों मिलकर भी एक रान की चौथाई को नहीं पहुँचते। 8. नाफ के नीचे से उज्वे तनासुल (लिंग) की जड़ तक और उसके सीध में पुश्त (पीठ) और दोनों करवटों की जानिब सब मिलकर एक औरत है। आला हज़रत रदियल्लाहु तआला अन्हु (जो कि अपने वक़्त के मुजद्दिदे आज़म हैं) ने यह तहकीक फ़रमाई कि दुबुर व अंडकोष के दरमियान की जगह भी एक मुस्तकिल औरत है और उन आज़ा का शुमार और उनके तमाम अहकाम को चार शेरों में जमा फ़रमाया।
चार शेरों का तर्जमा
तर्जमा : मर्द की शर्मगाह नौ हैं नाक के नीचे से जानू के नीचे तक इनमें से जिसका चौथाई एक रुक्न यानी तीन बार सुब्हानल्लाह के मिकदार खुल जाये या खोल दे नमाज़ न होगी। जकर, खुसिया दोनों इर्द गिर्द उसके दोनों चूतड़ और पिछली शर्मगाह के नीचे और नाफ के नीचे हर तरफ से ।
मसअला :- आज़ाद औरतों के लिये अलावा पाँच उज्व कि जिनका बयान गुज़रा सारा बदन औरत है और वह तीस आजा पर मुशतमिल कि उनमें जिसकी चौथाई खुल जाये नमाज का वही हुक्म है जो ऊपर बयान हुआ । सर यानी पेशानी के ऊपर से शुरू गर्दन तक और एक कान से दूसरे कान तक यानी आदतन जितनी जगह पर बाल जमते हैं। 2. बाल जो लटकते हों। 3 व 4. दोनों कान। 5. गर्दन इसमें गला भी दाखिल है। 6 व 7. दोनों शाने 8 व 9. दोनों बाजू इनमें कोहनियाँ भी दाखिल हैं। 10 व 11. दोनों कलाईयाँ यानी कोहनी के बाद से गट्टों के नीचे तक। 12. सीना यानी गले के जोड़ से दोनों पिस्तान की हद नीचे तक यानी जहाँ पिस्तान की हद ख़त्म होती है। 13 व 14. दोनों हाथों की पुश्त । 15 व 16. दोनों पिस्तानें जबकि अच्छी तरह उठ चुकी हों अगर बिल्कुल न उठी हों या ख़फीफ उभरी हों कि सीने से जुदा उज्ब की हैयत न पैदा हुई हो तो सीने की ताबे हैं, जुदा उज्च नहीं और पहली सूरत में भी उनके दरमियान की जगह सीने ही में दाखिल है, जुदा उज्व नहीं। 17. पेट यानी सीने की हद (सीने की हद जो ऊपर जिक्र की गई) से नाफ के निचले हिस्से तक यानी नाफ का भी पेट में शुमार है 18. पीठ यानी पीछे की जानिब सीने के मुकाबिल से कमर तक 19. दोनों शानों के बीच में जो जगह है बगल के नीचे सीने की हद नीचे तक दोनों करवटों में जो जगह है उसका अगला हिस्सा सीने में और पिछला शानों या पीठ में शामिल है और उसके बाद से दोनों करवटों में कमर तक जो जगह है उसका अगला हिस्सा पेट में और पिछला पीठ में दाखिल है 20 व 21. दोनों सुरीन 22 व 23. फुर्ज व दुबुर 24 व 25. दोनों रानें घुटने भी इन्हीं में शामिल हैं। 26. नोफ के नीचे पेडू और उससे मिली हुई जो जगह है और उनके मुकाबिल पुश्त की जानिब सब मिलकर एक औरत है। 27 व 28. दोनों पिंडलियाँ टखनों समेत 29 व 30. दोनों तलवे और बाज़ उलमा ने पुश्ते दस्त और तलवों को औरत में दाखिल नहीं किया।
मसअला :- औरत का चेहरा अगर्चे औरत नहीं मगर फितने की वजह से ग़ैर महरम के सामने मुँह खोलना मना है यूंही उसकी तरफ नज़र करना गैर महरम के लिए जाइज़ नहीं और छूना तो और ज्यादा मना है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अगर किसी मर्द के पास सत्र के लिये जाइज़ कपड़ा न हो और रेशमी कपड़ा है तो फर्ज है कि उसी से सत्र करे और उसी में नमाज़ पढ़े अलबत्ता और कपड़ा होते हुए मर्द को रेशमी कपड़ा पहनना हराम है और उसमें नमाज़ मकरूहे तहर्रीमी (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- कोई शख़्से बरहना (नंगा शख्स ) अगर अपना सारा जिस्म सर समेत किसी एक कपड़े में छिपा कर नमाज पढ़े नमाज़ न होगी और अगर सर उससे बाहर निकाल ले हो जायेगी। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- किसी के पास बिल्कुल कपड़ा नहीं तो बैठकर नमाज पढ़े दिन हो या रात, घर में हो या मैदान में ख्वाह वैसे बैठे जैसे नमाज़ में बैठते हैं यानी मर्द मदों की तरह और औरत औरतों की तरह या पांव फैला कर और औरते गलीजा पर हाथ रखकर और यह बेहतर है और रुकू व सुजूद की जगह इशारा करे और यह इशारा रुकू व सुजूद से उसके लिये अफजल है और यह बैठकर पढ़ना खड़े होकर पढ़ने से अफज़ल ख़्वाह कियाम में रुकू व सुजूद के लिये इशारा करे या रुकू व सुजूद करे। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- ऐसा शख्स बरहना (नंगा) नमाज़ पढ़ रहा था किसी ने आरियतन (यानी थोड़ी देर के लिए) उसको कपड़ा दे दिया या मुबाह (जाइज) कर दिया नमाज़ जाती रही कपड़ा पहनकर सिरे से पढ़े। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर कपड़ा देने का किसी ने वादा किया तो आखिर वक़्त तक इन्तेज़ार करे जब देखे कि नमाज़ जाती रहेगी तो बरहना ही पढ़ ले। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर दूसरे के पास कपड़ा है और ग़ालिब गुमान है कि मांगने से दे देगा तो मांगना वाजिब है। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर कपड़ा मोल मिलता है और इसके पास दाम हाजते अस्लिया से जाइद हैं तो अगर इतने दाम मांगता हो जो अन्दाजा करने वालों के अन्दाजे से बाहर न हो तो खरीदना वाजिब (रद्दल मुहतार) यूँही अगर उधार देने पर राज़ी हो जब भी खरीदना वाजिब होना चाहिये।
मसअला :- अगर उसके पास कपड़ा ऐसा है कि पूरा नजिस है तो नमाज में उसे न पहने और अगर एक चौथाई पाक है तो वाजिब है कि उसे पहनकर पढ़े बरहना जाइज़ नहीं। यह सब उस वक्त है कि ऐसी चीज़ नहीं कि कपड़ा पाक कर सके या उसकी नजासत क़द्रे माने से कम कर सके वर्ना वाजिब होगा कि पाक करे या तकलीले नजासत यानी नजासत को कम करे। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- चन्द शख़्स बरहना हैं तो तन्हा तन्हा दूर दूर नमाजें पढ़ें और अगर जमाअत की तो इमाम बीच में खड़ा हो (आलमगीरी)
मसअला :- अगर बरहना शख्स को चटाई या बिछौना मिल जाये तो उसी से सत्र करे नंगा न पढ़े यूँही घास या पत्तों से सत्र कर सकता है तो यही करे। (आलमगीरी)
मसअला :- अगर पूरे सत्र के लिये कपड़ा नहीं और इतना है कि बाज़ आज़ा का सत्र हो जायेगा तो उससे सत्र वाजिब है और उस कपड़े से औरते गलीजा यानी कुब्ल दुबुर (अगली पिछली शर्मगाह) को छुपाये और इतना हो कि एक ही को छुपा सकता है तो एक ही को छिपाये। . (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- जिसने ऐसी मजबूरी में बरहना नमाज पढ़ी तो बादे नमाज़ कपड़ा मिलने पर इआदा नहीं नमाज हो गई। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अगर सत्र का कपड़ा या उसके पाक करने की चीज़ न मिलना बन्दों की जानिब से हो तो नमाज़ पढ़े फिर बाद में लौटाए। (दुर्रे मुख्तार)
Namaz Ki Sharte 3: Istikabaale Kibla
नमाज़ की तीसरी शर्त : इस्तिकबाले किब्ला
इस्तिकबाले किब्ला यानी नमाज़ में किब्ला यानी काबा की तरफ मुँह करना है।
अल्लाह तआला फरमाता है :-
तर्जमा : बेवकूफ़ लोग कहेंगे कि जिस किब्ले पर मुसलमान लोग थे उन्हें किस चीज़ ने उससे फेर दिया। तुम फरमा दो अल्लाह ही के लिए मशरिक व मग़रिब है जिसे चाहता है सीधे रास्ते की तरफ हिदायत फ़रमाता है।
हुजूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने सोलह या सत्रह महीने तक बैतुल मुकद्दस की तरफ नमाज़ पढ़ी और हुजूर को पसन्द यह था कि काबा किब्ला हो इस पर यह आयते करीमा नाज़िल हुई-
तर्जमा : जिस किब्ले पर तुम पहले थे हम ने फिर वही इसलिए मुकर्रर किया कि रसूल की इत्तिबा करने वाले उन से मुतमय्यिज़ (अलग-अलग) हो जायें। जो एड़ियों के बल लौट जाते हैं और बेशक यह शाक है मगर उन पर जिन को अल्लाह ने हिदायत की और अल्लाह तुम्हारा ईमान जाए न करेगा बेशक अल्लाह लोगों पर बड़ा मेहरबान रहम वाला है। ऐ महबूब आसमान की तरफ तुम्हारा बार बार मुँह उठाना हम देखते हैं तो ज़रूर हम तुम्हें उसी किब्ले की तरफ फेर देगें जिसे तुम पसन्द करते हो तो अपना मुँह (नमाज़ में) मस्जिदे हराम की तरफ फेरो और ऐ मुसलमानो! तुम जहाँ कहीं हो उसी की तरफ (नमाज़ में) मुँह करो और बेशक जिन्हें किताब दी गई वह ज़रूर जानते है कि वही हक है उनके रब की तरफ से और अल्लाह उनके कोतकों से ग्राफिल नहीं।
मसअला :- नमाज़ अल्लाह ही के लिये पढ़ी जाये और उसी के लिये सजदा हो न कि काबा को — अगर किसी ने मआज अल्लाह काबे के लिये सजदा किया हराम व गुनाहे कबीरा किया और अगर इबादते काबा की नियत की जब तो खुला काफिर है कि गैरे ख़ुदा की इबादत कुफ्र है। (दुर्रे मुख़्तार व इफादाते रजविया)
मसअला :- इस्तिकबाले किब्ला आम है कि बिऐनिही काबए मुअज्ज़मा की तरफ यानी ठीक काबए मुअज्ज़मा की तरफ मुँह हो जैसे मक्का मुकर्रमा वालों के लिये या उस जेहत (दिशा) को मुँह जैसे औरों के लिये (दुर्रे मुख्तार) यानी तहकीक यह है कि जो ऐने काबा की सम्ते ख़ास तहकीक कर सकता है अगर्चे काबा आड़ में हो जैसे मक्का मुअज्जमा के मकानों में जबकि मसलन छत पर चढ़कर काबा को देख सकते हैं तो ऐने काबा की तरफ मुँह करना फर्ज है जेहत काफी नहीं और जिसे यह तहकीक नामुमकिन हो अगर्चे ख़ास मक्का मुअज्जमा में हो उसके लिये जेहते काबा को मुँह करना काफी है।(इफादाते रजविया)
मसअला :- काबए मुअज्ज़मा के अन्दर नमाज़ पढ़ी तो जिस रुख चाहे पढ़े काबा की छत पर भी नमाज़ हो जायेगी मगर उसकी छत पर चढ़ना मना है। (गुनिया वगैरह )
मसअला :- अगर सिर्फ हतीम की तरफ मुँह किया कि काबा मुअज्जमा मुहाज़ात में न आया नमाज़ न हुई। (गुनिया)
मसअला :- जेहते काबा को मुँह होने के यह मना हैं कि मुँह की सतह का कोई जुज्व काबे की सम्त में वाकेअ हो तो अगर किब्ला से कुछ फिरा हुआ है मगर मुँह का कोई जुज्व काबे के मुवाजह (मुकाबिल) में है नमाज़ हो जायेगी इसकी मिकदार 45 डिग्री रखी गई है तो अगर 45 डिग्री से जाइद मुँह फिरा हुआ है इस्तिकबाल न पाया गया नमाज़ न हुई। मसलन ख ग एक रेखा है क अ इस पर लम्ब है और फर्ज करो कि काबए मुअज्जमा ठोक बिन्दु क के मुहाजी है दोनों लम्बों को आधा आधा करते हुए रेखायें अ च और अ छ खींची तो यह कोण 45-45 डिग्री के हुये कि लम्ब 90 डिग्री है अब जो शख्स मकामे अ पर खड़ा है अगर बिन्दु क की तरफ मुँह करे तो ऐने काबा को मुँह है और अगर दाहिने बायें च या छ की तरफ झुके तो जब तक च क या छ क के अन्दर है जेहते काबा में है और और जब छ से बढ़कर ग या च से गुजर कर ख की तरफ कुछ भी करीब होगा तो अब जेहत से निकल गया नमाज़ न होगी। (दुर्रे मुख्तार, इफादाते रजविया)
मसअला :- बनाई गई उस इमारते काबा का नाम किब्ला नहीं बल्कि वह फज़ा है उस बुनियाद की महाज़ात में सातों ज़मीन से अर्श तक किब्ला ही है तो अगर वह इमारत वहाँ से उठाकर दूसरी जगह रख दी जाये और अब उस इमारत की तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़ी, न होगी या काबए मुअज्जमा किसी वली की जियारत को गया और उस फ़ज़ा की तरफ नमाज़ पढ़ी हो गई। यूंही अगर बलन्द पहाड़ पर या कुँए के अन्दर नमाज पढ़ी और क़िब्ले की तरफ मुँह किया नमाज हो गई कि फजा की तरफ तवज्जोह पाई गई चाहे इमारत की तरफ न हो। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- जो शख्स इस्तिकबाले किब्ला से आजिज़ हो मसलन मरीज है उसमें इतनी कुव्वत नहीं कि उधर रुख बदले और वहाँ कोई ऐसा नहीं जो मुतवज्जेह कर दे या उसके पास अपना या अमानत का माल है जिसके चोरी जाने का सही अन्देशा हो या कश्ती के तख़्ते पर बहता जा रहा है और सही अन्देशा है कि इस्तिकबाल करे तो डूब जायेगा या शरीर जानवर पर सवार है कि उतरने नहीं देता या उतर तो जायेगा मगर बे मददगार सवार न होने देगा या यह बूढ़ा है कि फिर खुद सवार न हो सकेगा और ऐसा कोई नहीं जो सवार करा दे तो इन सब सूरतों में जिस रुख नमाज़ पढ़ सके पढ़ ले और उसका इआदा यानी लौटाना भी नहीं, ही सवारी के रोकने पर कादिर हो तो रोक कर पढ़े और मुमकिन हो तो किब्ले को मुँह करे वर्ना जैसे भी हो सके और अगर रोकने में काफिला निगाह से छुप जायेगा तो सवारी ठहराना भी जरूरी नहीं यूंही रवानी में पढ़े। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- चलती कश्ती में नमाज़ पढ़े तो तकबीरे तहर्रीमा के वक्त किब्ले को मुँह करे और जैसे घूमती जाए यह भी किब्ले को मुँह फेरता रहे अगर्चे नफ़्ल नमाज हो । (गुनिया)
मसअला :- मुसल्ली के पास माल है और अन्देशा सही है कि इस्तिकबाले क़िब्ला करेगा तो चोरी हो जायेगा, ऐसी हालत में कोई ऐसा शख़्स मिल गया जो हिफाज़त करे अगर्चे बाउजरते मिस्ल (आम तौर पर आदमी उस काम की जो उजरत ले उसे उजरते मिस्ल कहते हैं) इस्तिकबाल फर्ज़ है। (रद्दल मुहतार) यानी जबकि वह उजरत हाजते असलिया से जाइद इसके पास हो या मुहाफिज़ (हिफाजत करने वाला) आइन्दा लेने पर राजी हो और अगर वह नकद मांगता है और उसके पास नहीं या है मगर हाजते असलिया से जाइद नहीं या है मगर वह उजरते मिस्ल से बहुत ज्यादा मांगता है तो उस वक्त हिफाजत के लिए उसे मुलाज़िम रखना ज़रूरी नहीं यूंही पढ़े। (इफादाते रजविया)
मसअला :- कोई शख़्स कैद में है और वह लोग उसे इस्तिकबाल से मानेअ हैं यानी किसी मजबूरी के सबब इस्तिकबाल नहीं कर पा रहा तो जैसे भी हो सके नमाज़ पढ़ ले फिर जब मौका मिले वक्त में या बाद में तो उस नमाज़ को दोहरा ले। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर किसी शख्स को किसी जगह किब्ले की शनाख्त न हो, न कोई ऐसा मुसलमान है जो बता दे न यहाँ मस्जिदें व मेहराबें हैं, न चाँद सूरज सितारे निकले हों या हों मगर उसको इतना इल्म नहीं कि उन से मालूम कर सके तो ऐसे के लिये हुक्म है तहर्री करे (यानी सोधे जिधर क़िब्ला होना दिल में जमे उधर हो मुँह करे) उसके हक में वही किब्ला है। (आम्मए कुतुब)
मसअला :- तहर्री करके नमाज़ पढ़ी बाद को मालूम हुआ कि किब्ले की तरफ नमाज नहीं पड़ी हो गई लौटाने को हाजत नहीं। (तनवीरुल अबसार )
मसअला :- ऐसा शख्स अगर बे-तहर्री किसी तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़े नमाज़ न हुई अगर्चे वाकई में किब्ले ही की तरफ मुँह किया हो. हो अगर किब्ले की तरफ मुँह होना नमाज के बाद यकीन के साथ मालूम हुआ, हो गई और अगर बादे नमाज उस तरफ किब्ला होना गुम्मान हो यकीन न हो या नमाज के बीच में उसको क़िब्ला होना मालूम हुआ अगर्चे यकीन के साथ तो नमाज़ न हुई (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर सोचा और दिल में किसी तरफ किब्ला होना साबित हुआ अगर उसके खिलाफ दूसरी तरफ उसने मुँह किया नमाज़ न हुई अगर्चे वाकई में यही क़िब्ला था जिधर मुँह किया अगर्चे बाद को यकीन के साथ उसी का क़िब्ला होना मालूम हो। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अगर कोई जानने वाला मौजूद है उससे दरयाफ्त नहीं किया खुद गौर करके किसी तरफ को पढ़ ली तो अगर किब्ले ही की तरफ मुँह था हो गई वर्ना नहीं। (रद्दल मुहतार) –
मसअला :- जानने वाले से पूछा उसने नहीं बताया उसने तहर्री करके नमाज़ पढ़ ली अब नमाज़ के बाद उसने बताया नमाज़ हो गई दोहराने की हाजत नहीं। (गुनिया)
मसअला :- अगर मस्जिदें और मेहराबें वहाँ हैं मगर उनका एतिबार न किया बल्कि अपनी राय से एक तरफ को मुतवज्जेह हो लिया या तारे वग़ैरा मौजूद हैं और उसको इल्म है कि उनके ज़रिये से मालूम करे और न किया बल्कि सोचकर पढ़ ली दोनों सूरतों में न हुई अगर खिलाफे जेहत यानी किब्ले के रुख के ख़िलाफ़ की तरफ पढ़ी। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- एक शख्स तहर्री करके एक तरफ पढ़ रहा है तो दूसरे को उसका इत्तेबा जाइज़ नहीं बल्कि इसे भी तहर्री का हुक्म है अगर उसका इत्तिबा किया तहर्री न की इस दूसरे की नमाज़ न हुई। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर तहर्री करके नमाज़ पढ़ रहा था और नमाज़ के दरमियान में अगर्चे सजदर सहव में राय बदल गई या ग़लती मालूम हुई तो फर्ज है कि फौरन घूम जाये और पहले जो पढ़ चुका है उसमें खराबी न आयेगी इसी तरह अगर चारों रकअतें चार दिशाओं में पढ़ी जाइज़ है और अगर फौरन न फिरा यहाँ तक कि एक रुक्न यानी तीन बार सुब्हानल्लाह कहने का वक्फा हुआ नमाज़ न हुई। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- नाबीना (अन्धा) गैर किब्ले की तरफ नमाज पढ़ रहा था कोई बीना (अंखियारा) आया उसने अन्धे को सीधा करके उसकी इक्तिदा की तो अगर वहाँ कोई शख्स ऐसा था जिससे किब्ले का हाल नाबीना दरयाफ़्त कर सकता था मगर न पूछा दोनों की नमाजें न हुई और अगर कोई ऐसा न था तो नाबीना की हो गई और मुक्तदी की न हुई। (खानिया, हिन्दिया, गुनिया, रद्दल मुहतार)
मसअला :- तहर्री करके गैरे किब्ला को नमाज़ पढ़ रहा था बाद को उसे अपनी राय की गलती मालूम हुई और किब्ले की तरफ फिर गया तो जिस दूसरे शख्स को उसकी पहली हालत मालूम हो अगर यह भी उसी किस्म का है कि इसने भी पहले वही तहर्री की थी और अब इसको भी गलती मालूम हुई तो उसकी इक्तिदा कर सकता है वर्ना नहीं। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर इमाम तहर्री करके ठीक जेहत में पहले ही से पढ़ रहा है तो अगर्चे मुकतदी तहर्री करने वालों में न हो उसकी इक्तिदा कर सकता है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अगर इमाम व मुक्तदी एक ही जेहत को तहर्री करके नमाज़ पढ़ रहे थे और इमाम ने नमाज पूरी कर ली और सलाम फेर दिया अब मसबूक (जिसकी शुरू की रकअत छूटी हो) व लाहिक (जिसकी बीच की रकअत छूटी हो) की राय बदल गई तो मसबूक घूम जाये और लाहिक सिरे से पढ़े। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अगर पहले एक तरफ को राय हुई और नमाज शुरू की फिर दूसरी तरफ को राय पलटी फिर वह पलट गया फिर तीसरी या चौथी बार वही राय हुई जो पहली मर्तबा थी तो उसी तरफ फिर जाये सिरे से पढ़ने की हाजत नहीं। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- तहर्री करके एक रकअत पढ़ी दूसरी में राय बदल गई अब याद आया कि पहली रकअत का एक सजदा रह गया था तो सिरे से नमाज़ पढ़े। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अंधेरी रात है चन्द शख़्सों ने जमाअत से तहर्री करके मुख्तलिफ जेहतों में नमाज़ पढ़ी मगर नमाज के दरमियान में यह मालूम न हुआ कि इसकी जेहत इमाम की जेहत के खिलाफ है न मुक्तदी इमाम से आगे है नमाज़ हो गई और अगर बादे नमाज़ मालूम हुआ कि इमाम के खिलाफ इसकी जेहत थी कुछ हरज नहीं और अगर इमाम के आगे होना मालूम हो नमाज़ में या बाद को तो नमाज़ न हुई। (दुर्रे मुख़्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- मुसल्ली ने किब्ले से बिला उज़्र कसदन बिना किसी मजबूरी के जानबूझ कर सीना फेर दिया अगर्चे फौरन ही किब्ले की तरफ हो गया नमाज़ फासिद हो गई और अगर बिला कुस्द फिर गया। और बकद्र तीन तस्बीह के वक्फा न हुआ तो हो गई। (मुनिया, बहर)
मसअला :- अगर सिर्फ मुँह किब्ले से फेरा तो उस पर वाजिब है। कि फौरन किब्ले की तरफ मुँह करे और नमाज़ न जायेगी मगर बिला उज़्र मकरूह है। (मुनिया, बहर)
Namaz Ki Sharte 4: Time
नमाज़ की चौथी शर्त : वक़्त
कोई भी नमाज़ पढने के लिए नमाज़ का वक़्त होना ज़रूरी है. वक्त से पहले कोई भी नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती और वक़्त के बाद पढ़ी गयी नमाज़ कज़ा नमाज़ मानी जाएगी।
अल्लाह तआला फरमाता है :-
तर्जमा : बेशक नमाज़ ईमान वालों पर फ़र्ज़ है वक्त बांधा हुआ।
तर्जमा : अल्लाह की तस्बीह करो जिस वक्त तुम्हें शाम हो (नमाज़े मगरिब व इशा) और जिस वक्त सुबह हो ( नमाज़े फज्र) और उसी की हम्द है आसमानों और जमीन में और पिछले पहर को (नमाज़े अस्र ) और जब तुम्हें दिन ढले (नमाज़े जोहर)
नमाज़ के वक़्त की अहादीस
हदीस न. 1 :- तबरानो औसत में अबू हुरैरह रदियल्लाहु तआला अन्हु से रावी कि हुजूर फ़रमाते हैं मेरी उम्मत हमेशा फितरत यानी दीने हक पर रहेगी जब तक फज्र को उजाले में पढ़ेगी।
हदीस न. 2 :- इमाम अहमद व तिर्मिज़ी अबू हुरैरह रदियल्लाहु तआला अन्हु से रावी कि हुजूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं नमाज़ के लिये अव्वल व आखिर है अव्वल वक्त जोहर का उस वक्त है कि आफताब ढल जाए और आखिर उस वक्त कि अस्र का वक्त आ जाए और आखिर वक़्त अस्र का उस वक्त कि सूरज पीला हो जाए और अव्वल वक्त मग़रिब का उस वक्त कि सूरज डूब जाए और उसका आखिर वक्त जब शफक डूब जाए और अव्वल वक़्त इशा का जब शफ़क़ डूब जाए और आखिर वक्त जब आधी रात हो जाए (यानी वक्ते मुबाह बिला कराहत)
हदीस न. 3 :- इमाम अहमद अबू हुरैरह रदियल्लाहु तआला अन्हु से रावी कि फरमाते हैं सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम अगर यह बात न होती कि मेरी उम्मत पर मशक्कत हो जायेगी तो मैं उनको हुक्म फरमा देता कि हर वुजू के साथ मिस्वाक करें — और इशा की नमाज़ तिहाई या आधी रात तक मुअख़बर कर देता कि रब तबारक व तआला आसमान पर ख़ास तजल्लीए रहमत फ़रमाता है और सुबह तक फ़रमाता रहता है। कि है कोई साइल कि उसे दूँ है कोई मगफिरत चाहने वाला कि उसकी मगफिरत करूँ, है कोई दुआ करने वाला कि कबूल करूँ ।
नमाज़ के मकरूह वक्तों का बयान
तुलू व गुरुब व निस्फुन्नहार इन तीनों वक़्तों में कोई नमाज़ जाइज़ नहीं न फर्ज़ न वाजिब न नफ्ल न अदा न कज़ा, यूँही सजदए तिलावत व सजदए सहव भी नाजाइज है। अलबत्ता उस रोज़ अगर अस्र की नमाज़ नहीं पढ़ी तो अगर्चे आफताब डूबता हो पढ़ ले मगर इतनी ताख़ीर करना हराम है।
हदीस में इसको मुनाफिक की नमाज़ फरमाया। तुलू से मुराद आफताब का किनारा ज़ाहिर होने से उस वक्त तक है कि उस पर निगाह चौधयाने लगे जिसकी मिकदार किनारा चमकने से बीस मिनट तक है — और वह वक्त से कि आफ़ताब पर निगाह ठहरने लगे डूबने तक गुरूब है यह वक्त भी बीस मिनट है। निस्फुन्नहार से मुराद निस्फुन्नहार शरई में निम्फुन्नहार हकीकी यानी आफताब ढलने तक है। निस्फुन्नहारे शरई जिसको जहवए कुबरा कहते हैं उस वक्त से निस्फुन्नहारे हकीकी यानी आफताब ढलने तक है यानी तूलूए फज्र से गुरूब आफताब तक आज जो वक्त है उसके बराबर दो हिस्से करें। इसके निकालने का तरीका यह है कि आज जो तुलूए फज्र से गुरूबे आफ़ताब तक वक़्त है उसके दो बराबर बराबर हिस्से किए जायें, पहले हिस्से के ख़त्म पर निस्फुन्नहार शरई की शुरूआत है और उसी वक़्त से आफताब ढलने तक वक्ते इस्तेया (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार, आलमगीरी, फतावा रजविया)
नोट : यहां पर मुक्तसर मसअला बयान किए गए हैं मुकम्मल मसअला लिखना मुमकिन नहीं है मेरे लिए आप अगर चाहे तो आप बहारे शरीअत या किसी और हदीस की किताब से Namaz Ka Tarika मुकम्मल पढ़ सकते हैं, इसके लिए मैंने यहां पर किताब की लिंक दिया है जिससे आप किताब को खरीद कर नमाज के तमाम मसाइल और हदीसे पढ़ सकते हैं। Amazon
Namaz Ki Sharte 5: Niyat
नमाज़ की पांचवी शर्त : नियत
अल्लाह तआला फरमाता है :-
तर्जमा : उन्हें तो यही हुक्म हुआ कि अल्लाह ही की इबादत करें उसी के लिये दीन को ख़ालिस रखते हुए।
हुजूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं:-
तर्जमा : आमाल का मदार नियत पर है और हर शख़्स के लिये वह है जो उसने नियत की।
इस हदीस को बुख़ारी व मुस्लिम और दीगर मुहद्दिसीन ने अमीरुल मोमिनीन उमर इब्ने ख़त्ताब रदियल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत किया।
मसअला :- नियत दिल के पक्के इरादे को कहते हैं महज़ (सिर्फ) जानना नियत नहीं जब तक कि इरादा न हो। (तनवीरुल अबसार)
मसअला :- नियत में ज़बान का एतिबार नहीं यानी अगर दिल में मसलन जोहर का इरादा किया और ज़बान से लफ्ज़े अस्र निकला जोहर की नमाज़ हो गई। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- नियत का अदना (सबसे कम) दर्जा यह है कि अगर उस वक्त कोई पूछे कौन सी नमाज़ पढ़ता है तो फौरन बिला देर किए बता दे अगर हालत ऐसी है कि सोचकर बतायेगा तो नमाज़ न होगी। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- ज़बान से कह लेना मुस्तहब है और इसमें कुछ अरबी की तख़सीस नहीं फारसी वग़ैरा में भी हो सकती है और तलफ्फुज में माजी का सीगा हो (यानी भूत काल (Past tense) में हो) मसलन नवैत या नियत की मैंने। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- बेहतर यह है कि अल्लाहु अकबर कहते वक्त नियत हाजिर हो ।(मुनिया)
मसअला :- तकबीर से पहले नियत की और शुरू नमाज और नियत के दरमियान कोई अम्रे अजनबी (नमाज़ के खिलाफ कोई काम) मसलन खाना पीना कलाम वग़ैरा वह काम जो नमाज से गैर मुतअल्लिक हैं फासिल न हों नमाज़ हो जायगी अगर्चे तहर्रीमा के वक्त नियत हाज़िर न हो। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- वुजू से पहले नियत की तो वुजू करना फासिले अजनबी नहीं नमाज हो जायेगी यानी ऐसा करने से नमाज में फ़र्क न आएगा, यूँही वजू के बाद नियत की उसके बाद नमाज के लिये चलना पाया गया नमाज़ हो जायेगी और यह चलना फासिले अजनबी नहीं। (गुनिया)
मसअला :- अगर शुरू के बाद नियत पाई गई उसका एतिबार नहीं यहाँ तक की अगर तकबीरे तहर्रीमा में अल्लाहु कहने के बाद अकबर से पहले नियत की नमाज़ न होगी। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार )
मसअला :- सही यह है कि नफल व सुन्नत व तरावीह में मुतलकन नमाज़ की नियत काफी है मगर एहतियात यह है कि तरावीह में तरावीह या सुन्नते वक्त या कियामुल्लैल की नियत करे और बाकी सुन्नतों में सुन्नत या नबी सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की मुताबेअत (पैरवी) की नियत करे इसलिए कि बाज़ मशाइख सुन्नतों में मुतलकन नियत को नाकाफी करार देते हैं (मुनिया)
मसअला :- नफ़्ल नमाज़ के लिये मुतलकन नमाज़ की नियत काफी है अगर्चे नफ़्ल नियत में न हो।(दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- फ़र्ज़ नमाज में नियते फर्ज़ भी जरूर है मुतलकन नमाज़ या नफल वग़ैरा की नियत काफी नहीं। अगर फर्जियत जानता ही न हो मसलन पाँचों वक्त नमाज़ पढ़ता है मगर उनकी फर्जियत इल्म में नहीं नमाज़ न होगी और उस पर उन तमाम नमाजों की कज़ा फर्ज है मगर जब इमाम के पीछे हो और यह नियत करे कि इमाम जो नमाज़ पढ़ता है वही मैं भी पढ़ता हूँ तो यह नमाज़ हो जायेगी और अगर जानता हो मगर फर्ज़ को गैरे फर्ज़ से अलग न किया तो दो सूरतें हैं अगर सब में फर्ज ही की नियत करता है तो नमाज़ हो जायेगी मगर जिन फ़ज़ों से पेशतर (पहले) सुन्नतें हैं अगर सुन्नतें पढ़ चुका है तो इमामत नहीं कर सकता कि सुन्नतें ब-नियते फर्ज़ पढ़ने से इसका फर्ज साकित हो चुका मसलन जोहर के पेशतर चार रकअत सुन्नते ब- नियते फर्ज़ पढ़े तो अब फर्ज नमाज़ में इमामत नहीं कर सकता कि यह फर्ज़ पढ़ चुका — दूसरी सूरत यह कि नियते फर्ज किसी में न की तो नमाज़ फर्ज अदा न हुई। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- फर्ज में यह भी जरूर है कि उस खास नमाज़ मसलन जोहर या अस की नियत करे या मसलन आज के जोहर या फर्ज वक्त की नियत वक्त में करे मगर जुमे में फर्ज वक्त की नियत काफी नहीं खुसूसियते जुमा की नियत जरूरी है। (तनवीरुल अबसार)
मसअला :- अगर वक्ते नमाज़ खत्म हो चुका और उसने फर्ज़े वक्त की नियत की तो फर्ज़ न हुए ख़्वाह वक्त का जाता रहना उसके इल्म में हो या नहीं। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- नमाज़े फर्ज में यह नियत कि आज के फर्ज़ पढ़ता हूँ काफी नहीं जबकि किसी नमाज के मुअय्यन (खास करना) न किया मसलन आज की जोहर या आज की इशा। (रहुल महतार )
मसअला :- औला यह है कि यह नियत करे आज की फलाँ नमाज कि अगर्चे वक्ते खारिज हो गया हो नमाज़ हो जायेगी खुसूसन उसके लिये जिसे वक्त ख़ारिज होने में शक हो। (दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी)
मसअला :- अगर किसी ने उस दिन को दूसरा दिन गुमान कर लिया मसलन वह दिन पीर का है और इसने उसे मंगल समझकर मंगल की जोहर की नियत की बाद को मालूम हुआ कि पीर था नमाज़ हो जायेगी (गुनिया) यानी जबकि आज का दिन नियत में हो कि इस तअय्युन के बाद पीर या मंगल की तखसीस बेकार है और उसमें गलती मुजिर नहीं। हाँ अगर सिर्फ दिन के नाम ही से नियत की और आज के दिन का इरादा न किया मसलन मंगल की जोहर पढ़ता हूँ तो नमाज़ न होगी अगर्चे वह दिन मंगल ही का हो कि मंगल बहुत हैं । इफादाते रजविया)
मसअला :- नियत में रकआत की तादाद की जरूरत नहीं अलबत्ता अफजल है तो अगर तादादे रकआत में ख़ता वाकेअ हुई मसलन तीन रकअतें जोहर या चार रकअतें मगरिब की नियत की तो नमाज़ हो जायेगी। (दुर्रे मुख़्तार रद्दल मुहतार)
मसअला :- फर्ज कज़ा हो गये हों तो उनमें दिन का तअय्युन और तअय्युने नमाज़ जरूरी है। मसलन फुला दिन की फुला नमाज़ मुतलकन जोहर वग़ैरा या मुतलकन नमाज़ कजा नियत में होना काफी नहीं।(दुर्रे मुख़्तार)
मसअला :- अगर उसके जिम्मे एक ही नमाज कज़ा हो तो दिन मुअय्यन करने की हाजत नहीं मसलन मेरे जिम्में जो फुला नमाज़ है काफी है।(रद्दल मुहतार)
मसअला :- अगर किसी के ज़िम्मे बहुत सी नमाजें हैं और दिन तारीख भी याद न हो तो उसके लिये आसान तरीका नियत का यह है कि सब में पहली या सब में पिछली फुला नमाज़ जो मेरे ज़िम्मे है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- किसी के जिम्मे इतवार की नमाज़ थी मगर उसका गुमान हुआ कि हफ्ते की है और उसकी नियत से नमाज़ पढ़ी बाद को मालूम हुआ कि इतवार की थी अदा न हुई। (गुनिया)
मसअला :- कज़ा या अदा की नियत की कुछ हाजत नहीं अगर कज़ा ब-नियते अदा पढ़ी या अदा ब-नियते कज़ा तो नमाज़ हो गई यानी मसलन वक्ते जोहर बाकी है और इसने गुमान किया कि वक़्त जाता रहा और उस दिन की नमाज़ जोहर ब-नियते कज़ा पढ़ी या वक्त जाता रहा और उस ने गुमान किया कि बाकी है और यह ब-नियते अदा पढ़ी हो गई और यूँ न किया बल्कि वक़्त बाकी है और इसने जोहर की कज़ा पढ़ी मगर उस दिन की जोहर की नियत न की तो न हुई यूंही उसके ज़िम्मे किसी दिन की नमाज़े जोहर थी और ब-नियते अदा पढ़ी न हुई । (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- मुक्तदी को इक्तिदा की नियत भी जरूरी है और इमाम को नियते इमामत मुक्तदी की नमाज़ सही होने के लिये जरूरी नहीं यहाँ तक कि अगर इमाम ने यह इरादा कर लिया कि मैं फुलों का इमाम नहीं हूँ और उसने इसकी इक्तिदा की नमाज़ हो गई मगर इमाम ने इमामत की नियत न की तो सवाब जमाअत न पाएगा और सवाब जमाअत हासिल होने के लिये मुक्तदी की शिरकत से पेशतर नियत कर लेना जरूरी नहीं बल्कि वक्ते शिरकत भी नियत कर सकता है। (आलमगीरी, दुर्रेमुख्तार)
मसअला :- एक सूरत में इमाम को नियते इमामत बिल इत्तेफाक जरूरी है कि मुकतदी औरत हो और वह किसी मर्द के मुहाज़ी (बराबर) खड़ी हो जाये और वह नमाज़े जनाजा न हो तो इस सूरत में अगर इमाम ने औरतों की इमामत की नियत न की तो उस औरत की नमाज़ न हुई (दुर्रेमुख्तार) और इमाम की यह नियत शुरू नमाज़ के वक्त जरूरी है बाद को अगर नियत कर भी ले सेहते इक्तिदाए जन ( औरत की इक्तिदा के सही होने) के लिये काफी नहीं यानी बाद में नियत करना ठीक नहीं। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- जनाजे में तो मुतलकन ख़्वाह मर्द के मुहाज़ी हो या न हो औरतों की इमामत की नियत बिलइत्तिफाक जरूरी नहीं और ज्यादा सही यह है कि जुमा व ईदैन में भी हाजत नहीं बाकी नमाजों में अगर मुहाजी मर्द के न हुई तो औरत की नमाज़ हो जायेगी अगचे इमाम ने औरतों की इमामत की नियत न की हो। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- मुक्तदी ने अगर सिर्फ नमाज़े इमाम या फर्जे इमाम की नियत की और इक्तिदा का इरादा न किया नमाज़ न हुई। (आलमगीरी)
मसअला :- मुक्तदी ने इक्तिदा की नियत से यह नियत की कि जो नमाज़ इमाम की वही नमाज़ मेरी तो जाइज़ है। (आलमगीरी)
मसअला :- मुकतदी ने यह नियत की कि वह नमाज शुरू करता हूँ जो इस इमाम की नमाज है अगर इमाम नमाज शुरू कर चुका है जब तो जाहिर कि इस नियत से इक्तिदा सही है और अगर इमाम ने अब तक नमाज शुरू न की तो दो सूरते हैं अगर मुकतदी के इल्म में हो कि इमाम ने अभी नमाज शुरू न की तो शुरू करने के बाद वही पहली नियत काफी है और अगर उसके गुमान में है कि शुरू कर ली और वाकई में शुरू न की हो तो वह नियत काफी नहीं। (आलमगीरी)
मसअला :- मुक्तदी ने नियते इक्तिदा की मगर फ़र्जो में फ़र्ज मुतअय्यन न की तो फ़र्ज अदा न हुआ (गुनिया) यानी जब तक यह नियत न हो कि नमाज़े इमाम में उसका मुक्तदी होता हूँ।
मसअला :- जुमे में ब-नियते इक्तिदा नमाजे इमाम की नियत की जोहर या जुमे की नियत न की नमाज़ हो गई ख़्वाह इमाम ने जुमा पढ़ा हो या जोहर और अगर ब-नियते इक्तिदा जोहर की नियत को और इमाम की नमाज़ जुमा थी तो न जुमा हुआ न जोहर। (आलमगीरी)
मसअला :- मुक्तदी ने इमाम को कादा में पाया और यह मालूम न हो कि कादा ऊला है या अख़ीरा और इस नियत से इक्तिदा को कि अगर यह कादा ऊला है तो मैंने इक्तिदा की वर्ना नहीं तो अगर्चे कादा ऊला हो इक्तिदा सही न हुई और अगर इस नियत से इक्तिदा कि कादा ऊला है तो मैंने फर्ज़ में इक्तिदा की वर्ना नफ़्ल में तो इस इक्तिदा से फ़र्ज़ अदा न होगा अगर्चे कादा ऊला हो। (आलमगीरी)
मसअला :- यूंही अगर इमाम को नमाज़ में पाया और यह नहीं मालूम कि इशा पड़ता है या तरावीह और यूँ इक्तिदा की कि अगर फर्ज है तो इक्तिदा की, तरावीह है तो नहीं तो इशा हो ख़्वाह तरावीह इक्तिदा सही न हुई। (आलमगीरी) उसको यह चाहिये कि फर्ज की नियत करे कि अगर फर्ज की जमाअत थी तो फर्ज वर्ना नफल हो जायेंगे। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- इमाम जिस वक़्त जाए इमामत (इमामत की जगह) पर गया उस वक्त मुक्तदी ने नियते इक्तिदा कर ली अगर्चे ब-वक्ते तकबीर नियत हाजिर न हो इक्तिदा सही है बशर्ते कि इस दरमियान में कोई अमल मुनाफिये नमाज (यानी जिससे नमाज़ जाती रहे) न पाया गया हो। (गुनिया)
मसअला :- नियते इक्तिदा में यह इल्म जरूर नहीं कि इमाम कौन है जैद हे या अम्र और अगर यह नियत की कि इस इमाम के पीछे और इसके इल्म में वह जैद है बाद को मालूम हुआ कि अम्र है इक्तिदा सही है और अगर इस शख्स की नियत न की बल्कि यह कि जैद की इक्तदा करता हूँ बाद को मालूम हुआ कि अम्र है तो नियत सही नहीं। (आलमगीरी, गुनिया)
मसअला :- जमाअते कसीर हो तो मुक्तदी को चाहिये कि नियते इक्तिदा में इमाम का तअय्युन न करे यूँही जनाज़े में यह नियत न करे कि फुलाँ मय्यत की नमाज़ । (आलमगीरी)
नमाज़े जनाज़े की यह नियत है नमाज़ अल्लाह के लिये और दुआ इस मय्यत के लिये । (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- मुक्तदी को शुबहा हो कि मय्यत मर्द है या औरत तो यह कह ले कि इमाम के साथ नमाज़ पढ़ता हूँ जिस पर इमाम नमाज़ पढ़ता है। (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- अगर मर्द की नियत की बाद को औरत होना मालूम हुआ या बिलअक्स (यानी इसका उल्टा) जाइज़ न हुई बशर्ते कि मौजूदा जनाज़ा की तरफ इशारा न हो यूंही अगर ज़ैद की नियत की बाद को उसका अम्र होना मालूम हुआ सही नहीं और अगर यूँ नियत की कि इस जनाज़े की और इसके इल्म में वह जैद है बाद को मालूम हुआ कि अम्र है तो हो गई (दुर्रे मुख्तार रद्दल मुहतार) यूंही अगर इसके इल्म में वह मर्द है बाद को औरत होना मालूम हुआ या बिलअक्स तो जाइज़ हो जायेगी जबकि इस मय्यत पर नमाज़ नियत में है। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- चन्द जनाज़े एक साथ पढ़े तो उनकी तादाद मालूम होना जरूरी नहीं और अगर उसने तादाद मुअय्यन कर ली और उससे जाइद थे तो किसी जनाज़े की न हुई (दुर्रे मुख्तार) यानी जबकि नियत में इशारा न हो सिर्फ इतना हो कि दस मय्यतों की नमाज़ और वह थे ग्यारह तो किसी पर न हुई और अगर नियत में इशारा था मसलन इन दस मय्यतों पर नमाज़ और वह हों बीस तो सब की हो गई यह अहकाम इमामे नमाज़े जनाजा के हैं और मुक्तदी के भी अगर उसने यह नियत न की हो कि जिन पर इमाम पढ़ता है उन के जनाजे की नमाज़ कि इस सूरत में अगर उसने उन को दस समझा और वह हैं ज़्यादा तो इसको नमाज भी सब पर हो जायेगी। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- नमाज़े वाजिब में वाजिब की नियत करे और उसे मुअय्यन भी करे मसलन नमाज़े ईदुल फित्र, ईदे अज़हा, नज़र, नमाज़ बादे तवाफ, या नफ़्ल जिस को कसदन फासिद किया हो कि उसकी कज़ा भी वाजिब हो जाती है यूंही सजदए तिलावत में नियत का तअय्युन ज़रूरी है मगर जबकि नमाज में फौरन किया जाये और सजदए शुक्र अगर्चे नफ़्ल है मगर इसमें भी नियत का तअय्युन जरूरी है यानी यह नियत कि शुक्र का सजदा करता हूँ और सजदए सहव को दुरें मुख़्तार में लिखा कि इसमें नियत का तअय्युन जरूरी नहीं मगर नहरूल फाइक में ज़रूरी समझी और यही जाहिर तर है यानी ज्यादा सही मालूम होता है (रद्दल मुहतार) और नज़े बहुत सी हों तो उनमें भी हर एक की अलग तअय्युन ज़रूरी है और वित्र में फक्त वित्र को नियत काफी है अगर्चे उसके साथ नियते वुजूब न हो हाँ नियते वाजिब औला है अलबत्ता अगर नियत अदमे वुजूब है (यानी वाजिब न मानकर) तो काफी नहीं। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- यह नियत कि मुँह मेरा किब्ले की तरफ है शर्त नहीं हाँ यह ज़रूरी है कि किब्ला से एराज़ (फिरने) की नियत न हो। (दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
मसअला :- नमाज़ ब-नियते फर्ज़ शुरू की फिर दरमियाने नमाज़ में यह गुमान किया कि नफ़्ल है और ब-नियते नफ़्ल नमाज़ पूरी की तो फर्ज अदा हुए और अगर ब-नियते नफ़्ल शुरू की और दरमियान में फ़र्ज़ का गुमान किया और उसी गुमान के साथ पूरी की तो नफ़्ल हुई। (आलमगीरी)
मसअला :- एक नमाज शुरू करने के बाद दूसरी की नियत की तो अगर तकबीरे जदीद (यानी एक दूसरी तकबीर) के साथ है तो पहली जाती रही और दूसरी शुरू हो गई वर्ना वही पहली है ख़्वाह दोनों फर्ज हों या पहली फर्ज़ दूसरी नफ़्ल या पहली नफ़्ल दूसरी फर्ज (आलमगीरी, गुनिया) यह उस वक़्त में है कि दोबारा नियत जुबान से न करे वर्ना पहली बहरहाल जाती रही। (हिन्दया)
मसअला :- जोहर की एक रकअत के बाद फिर ब-नियत उसी जोहर के तकबीर कही तो यह वही नमाज है और पहली रकअत भी शुमार होगी लिहाजा अगर कादा अख़ीरा किया तो हो गई वर्ना नहीं हाँ अगर ज़बान से भी नियत का लफ्ज़ कहा तो पहली नमाज़ जाती रही और वह रकअत शुमार नहीं। (आलमगीरी, गुनिया)
मसअला :- अगर दिल में नमाज़ तोड़ने की नियत की मगर ज़बान से कुछ न कहा तो वह बदस्तूर नमाज में है (दुरे मुख्तार) जब तक कोई नमाज़ को तोड़ने वाली बात न करे।
मसअला :- दो नमाजों की एक साथ नियत की इसमें चन्द सूरतें हैं
- 1- उनमें एक फर्ज़ ऐन है दूसरी जनाज़ा तो फर्ज की नियत हुई।
- 2- और दोनों फर्जे ऐन हैं तो एक अगर वक़्ती है और दूसरी का वक्त नहीं आया तो वक़्ती हुई।
- 3- और एक वक्ती है दूसरी कजा और वक्त में वुसअत नहीं जब भी वक्ती हुई।
- 4- और वक्त में वुसअत है तो कोई न हुई।
- 5- और दोनों कज़ा हों तो साहिबे तरतीब के लिये पहली हुई।
- 6- और साहिबे तरतीब नहीं तो दोनों बातिल ।
- 7- और एक फ़र्ज़ दूसरी नफ़्ल तो फर्ज हुए।
- 8- और दोनों नफ़्ल हैं तो दोनों हुये।
- 9- और एक नफ़्ल दूसरी नमाज़े जनाज़ा तो नफ्ल की नियत रही।
(दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार, गुनिया)
मसअला :- नमाज़ ख़ालिसन लिल्लाह यानी ख़ास अल्लाह के लिए शुरू की फिर मआज़ अल्लाह रिया की मिलावट हो गई तो शुरू का एतिबार किया जायेगा। (दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी)
मसअला :- पूरा रिया यह है कि लोगों के सामने है इस वजह से पढ़ ली वर्ना पढ़ता ही नहीं और अगर यह सूरत है कि तन्हाई में पढ़ता तो मगर अच्छी न पढ़ता और लोगों के सामने खूबी के साथ पढ़ता है तो उसको असल नमाज़ का सवाब मिलेगा और उस खूबी का सवाब नहीं। (दुर्रे मुख्तार, आलमगीरी) और यहाँ रिया पाई गई अज़ाब बहरहाल है।
मसअला :-नमाज खुलूस के साथ पढ़ रहा था लोगों को देखकर यह ख्याल हुआ कि रिया की मुदाखलत हो जायेगी या शुरू करना चाहता था कि रिया की मुदाखलत का अन्देशा हुआ तो इस की वजह से तर्क ने करे नमाज पढ़े और इस्तिगफार करे। दुर्रे मुख्तार, रद्दल मुहतार)
Namaz Ki Sharte 6: Takbeere Tehrima
नमाज़ की छठी शर्त : तकबीरे तहर्रीमा
अल्लाह तआला फरमाता है :-
तर्जमा : अपने रब का नाम लेकर नमाज़ पढ़ी।
और अहादीस इस बारे में बहुत हैं कि हुजूर अकदस सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ‘अल्लाहु अकबर’ से नमाज शुरू फरमाते।
मसअला :- नमाज़े जनाज़ा में तकबीरे तहर्रीमा रुक्न है बाकी नमाज़ों में शर्त । (दुर्रे मुख्तार)
मसअला :- गैरे जनाज़ा में अगर कोई नजासत लिये हुए तहर्रीमा बांधे और ‘अल्लाहु अकबर’ ख़त्म करने से पेश्तर फेंक दे नमाज़ शुरू हो जायेगी यूंही तहर्रीमा के शुरू में सत्र खुला हुआ था या क़िब्ले से मुनहरिफ था या आफताब खते निस्फुन्नहार पर था और तकबीर से फारिग होने से पहले अमले कलील के साथ सत्र छिपा लिया या किब्ला को मुँह कर लिया या निस्फुन्नहार से आफताब ढल गया नमाज़ शुरू हो जायेगी। यूंही मआज अल्लाह बे-बुजु शख़्स दरिया में गिर पड़ा और आजाए वुज़ू पर पानी से पेशतर तकबीरे तहर्रीमा शुरू की मगर ख़त्म से पहले आजा धुल गये नमाज शुरू हो गई। (रद्दल मुहतार)
मसअला :- फ़र्ज़ की तहर्रीमा पर नफल नमाज की ‘बिना कर सकता है मसलन इशा की चारों रकअतें पूरी करके बे-सलाम फेरे सुन्नतों के लिये खड़ा हो गया लेकिन कसदन ऐसा करना मकरूह व मना है और कसदन न हो तो हरज नहीं मसलन जोहर की चार रकअत पढ़कर कादा अखीरा कर चुका था अब ख़्याल हुआ कि दो ही पढ़ीं उठ खड़ा हुआ और पाँचवीं रकअत का सजदा भी कर लिया अब मालूम हुआ कि चार हो चुकी थीं तो यह रकअत नफ़्ल हुई अब एक और पढ़ ले कि दो रकअतें हो जायेंगी तो यह ‘बिना’ जानबूझ कर न हुई। लिहाजा इसमें कोई कराहत नहीं। (दुर्रे मुख्तार रद्दल मुहतार)
मसअला :- एक नफ़्ल पर दूसरी नफ़्ल को शुरू कर सकता है और एक फर्ज़ को दूसरी फ़र्ज़ या नफ़्ल पर शुरू नहीं कर सकता। (दुर्रे मुख्तार)