हज़रत इमाम हुसैन रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हु

हज़रत इमाम हुसैन रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हु

हजरते इमामे हुसैन रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हु का नामे मुबारक ‘हुसैन’ है। आपकी कुन्नियत ‘अबू अब्दुल्लाह’ और लक़ब ‘ज़की’, ‘शहीदे आज़म’, ‘सय्यिदे शबाबे अहलिल जन्नह’, ‘सिब्ते रसूल’, ‘रेहाने रसूल’ हैं।

विलादत बा-सअ़ादतः
हज़रत इमाम हुसैन रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हु की पैदाइशे मुबारक 5 शाबान सन् 4 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में हुई। हुजू़र सल्लल्लाहु तअ़ाला अलैहि वसल्लम ने आपके दायें कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत (तकबीर) कही और आपके मुँह में लुआबे दहन डाला और आपके लिए दुआ फ़रमाई। फिर सातवें दिन आपका नाम ‘हुसैन’ रखा और अक़ीक़ा किया।

आपके फ़ज़ाइल व मनाक़िबः
हदीस:- हज़रत अली रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हु से मरवी है कि रसूले करीम सल्लल्लाहु तअ़ाला अलैहि वसल्लम ने हुसैन इब्ने अली रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हुमा के बारे में फ़रमायाः ‘‘जिसने इन (हज़रत इमामे हुसैन) से महब्बत की उसने मुझसे महब्बत की।’’ (मोजमुल कबीर)
हदीस:- हज़रत अबू सईद से मरवी है कि रसूले करीम सल्लल्लाहु तअ़ाला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि हसन और हुसैन जन्नती जवानों के सरदार हैं। (मिशकात, बाबः फ़जाइले अहले बैत, दूसरी फ़स्ल)
हदीस:- हज़रत इब्ने उमर से मरवी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तअ़ाला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि हसन और हुसैन यह दोनों दुनिया में मेरे दो फूल हैं। (मिशकात, बाबः फ़जाइले अहले बैत, दूसरी फ़स्ल)
हदीस:- हज़रत उम्मुल फ़ज़्ल बिन्ते हारिस यानी हुज़्ाूर अक़दस की चची, हज़रत अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब की मुबारक बीवी एक दिन हुज़्ाूर की ख़िदमत में हाज़िर हुईं और अर्ज़ किया, ‘‘या रसूलल्लाह! आज मैंने एक ऐसा ख़्वाब देखा है जिससे मैं डर गई हूँ।’’ हुज़्ाूर अ़लैहिस्सलाम ने फ़रमाया, ‘‘तुमने क्या ख़्वाब देखा?’’ उन्होंने अर्ज़ किया, ‘‘वह बहुत सख़्त है, जिसके बयान की मैं अपने अन्दर जुरअत नहीं पाती हूँा’’ हुज़्ाूर ने फ़रमाया, ‘‘बयान करो।’’ तो उन्होंने अर्ज़ किया, ‘‘मैंने यह देखा है कि हुज़्ाूर के जिस्मे-मुबारक का एक टुकड़ा काट कर मेरी गोद मंे रखा गया है।’’ इरशाद फ़रमाया, ‘‘तुम्हारा ख़्वाब बहुत अच्छा है। इन्शा अल्लाह तअ़ाला फ़ातिमा ज़हरा के बेटा पैदा होगा और वह तुम्हारी गोद में दिया जाएगा।’’ तो हज़रत फ़ातिमा ज़हरा के यहां बेटा पैदा हुआ तो वह मेरी गोद में रहे जैसा कि हुज़ूर ने फ़रमाया था। फिर मैं एक दिन रसूले करीम सल्लल्लाहु तअ़ाला अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाज़िर हुई तो उन्हें (हज़रत इमामे हुसैन को) हुजू़र की गोद में दे दिया। फिर मेरा ध्यान बंट गया। तो देखा कि रसूले करीम सल्लल्लाहु तअ़ाला अलैहि वसल्लम की आंखों से आंसू बह रहे थे। मैं ने अर्ज़ किया ऐ अल्लाह के नबी! मेरे मां बाप आप पर कुर्बान यह क्या है? (यानी आप क्यों रो रहे हैं)। फ़रमाया मेरे पास जिब्रईल अलैहिस्सलाम आये थे, मुझे ख़बर दी कि मेरी उम्मत मेरे इस बेटे को कत्ल कर देगी। मैंने अर्ज़ किया, इनको? फरमाया हां और वह (जिब्रईल) मेरे पास वहां की सुर्ख मिट्टी में से कुछ मिट्टी भी लाये थे। (मिश्कात, बाबः फ़जाइले अहले बैत, तीसरी फ़स्ल)

हिकायत:-
एक बदवी (देहात के रहने वाले) ने हुज़्ाूर अक़दस की ख़िदमत में हाज़िर हो कर हिरनी का एक बच्चा पेश किया। इतने में हज़रत इमाम हसन आए। आप ने हिरनी का बच्चा उनको दे दिया। जब इमाम हुसैन ने देखा तो पूछा, ‘‘भाईजान! यह कहाँ से लाए हो?’’ कहा, ‘‘नाना जान ने दिया है।’’ इमाम हुसैन भी हिरनी का बच्चा लेने के लिए हुज़्ाूर की ख़िदमत मंे हाज़िर हुए और ज़िद करने लगे। आपने बहुत बहलाया मगर न माने। क़रीब था कि इमाम की आँखों मंे आँसू आ जायें कि अचानक हिरनी अपने साथ एक बच्चा लेकर हाज़िर हुई। और अर्ज़ किया, ‘‘सरकार! मेरा एक बच्चा बदवी ने आपकी ख़िदमत में हाज़िर कर दिया है। यह दूसरा बच्चा अल्लाह तअ़ाला के हुक्म से हुसैन के लिए हाज़िर है कि हुसैन बच्चा माँग रहे थे। अगर हुसैन की आँख से एक आँसू भी टपक पड़ता तो अर्श को उठाने वाले फ़रिश्तों के दिल दहल जाते। (रौज़तुश्शोहदा, जिल्द 2, सफ़ा 26)

शहादतः
हज़रत इमाम हुसैन आलीमक़ाम की शहादत तारीख़े इस्लाम का एक ऐसा अज़ीम वाक़िअ़ा है। िकइस वाकिए से इस्लाम के चमन में शादाबी पैदा हुई, फ़ातिमा के लाल ने अपनी जान की शहादत पेश करके अपने नाना जान के दीन के परचम को बलन्द कर दिया। इस शहदत की मुख्तसर तफ़सील यह है कि हज़रत अमीर मुआविया की वफात के बाद यज़ीद पलीद तख़्त नशीन हुआ। इसने हज़रत इमामे हसैन से बैअ़ात लेना चाही। लेकिन चुंकि यज़ीद फ़ासिको फ़ाजिर शख्स था, हज़रत इमामे हुसैन ने उसके हाथ पर बैअत करने से इन्कार कर दिया और 60 हिजरी मेें मदीना शरीफ़ छोड़कर मक्का शरीफ़ में सुकूनत इख़्तेयार फ़रमाई। कूफ़ा के लोगों को जब ख़बर हुई तो उन्होंने मीटिंग की और हज़रत इमाम हुसैन को बुलाने के लिए ख़त भेजने शुरू किए। (तबरी, जिल्द 2 सफ़ा 176) हालांकि यह कूफ़ी हज़राते अहलेबैत की महब्बत का दावा करते थे मगर सहाबा इकराम को उनके वादे का एतबार न था। लेकिन चूंकि उन्होंने यज़ीद की हुकूमत से बेज़ारी का इज़हार किया था। इसलिए इमाम आलीमक़ाम ने सोचा कि वह लोग ज़ालिम और फ़ासिक़ की बैअ़त पर राज़ी नहीं हैं तो ऐसी हालत में उनकी दावत न क़बूल करने से उनको यह बहाना मिलेगा कि हम हज़रत हुसैन से बैअ़त करना चाहते थे मगर उनके न आने से हमें मजबूरन यज़ीद की बैअ़त करनी पड़ी। इसलिए हज़रत इमाम हुसैन ने अपने चचाज़ाद भाई हज़रत इमाम मुस्लिम बिन अक़ील को कूफ़ा भेजने का फ़ैसला किया और उनसे कहा कि अगर वहाँ के हालात साज़गार हों तो मुझे इत्तिला करना और फिर मैं भी आ जाऊँगा। जब हज़रत इमाम मुस्लिम कूफ़ा पहुँचे तो वहाँ के लोगों ने उनका बड़ा इस्तक़बाल किया। यहाँ तक कि एक हफ़्ते में 12000 लोगों ने आपके हाथ पर हज़रत इमाम हुसैन की बैअ़त की। जब आप ने हालात साज़गार देखे तो हज़रत इमाम हुसैन को तशरीफ़ लाने की दरख़्वास्त लिख कर भेजी। जब यज़ीद को ख़बर मिली तो उसने उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद जो कि बहुत सख़्त आदमी था, को कूफ़े का गवर्नर बना कर भेजा। और हुक्म दिया कि हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को गिरफ़्तार करके शहर बदर कर दे या क़त्ल कर डाले और हुसैन आयें तो उन से भी मेरी बैअ़त तलब करो और अगर बैअ़त कर लें तो बेहतर वरना उनको भी क़त्ल कर दो। इब्ने ज़्याद ने आकर अपनी ख़बासत दिखानी शुरू की। जिन कूफ़ियों ने बैअ़त की थी। इब्ने ज़्याद की धमकी पर सब बैअ़त से फिर गये और सबने हज़रत इमाम मुस्लिम कर साथ छोड़ दिया। हज़रत मुस्लिम को शहीद कर दिया गया। हज़रत मुस्लिम का ख़त पाकर हज़रत इमाम हुसैन अपने अहलेबैत और जांनिसारों के साथ मक्का शरीफ़ से कूफ़े को रवाना हो गये थे और आपका हज़रत इमाम मुस्लिम की शहादत की ख़बर रास्ते में मिली। हज़रत इमामे हुसैन रदि अल्लाहु तअ़ाला अन्हु मुहर्रम सन् 61 हिजरी की दूसरी तारीख़ बरोज़ जुमेरात को मैदाने करबला में पहुँचे। इब्ने ज़्याद ने अम्र इब्ने सअ़द को हुकूमत का लालच देकर 4000 फ़ौज के साथ हज़रत इमाम हुसैन आलीमक़ाम के मुक़ाबले के लिए भेजा। वह 4000 की फ़ौज लेकर 3 मुहर्रम को करबला में पहुँच गया। और फिर बराबर लश्कर आता रहा यहाँ तक कि 22000 का लश्कर जमा हो गया। इधर हज़रत इमाम आलीमक़ाम के साथ कुल 82 आदमी हैं जिन में औरतें और बच्चे भी हैं। और फिर जंग के इरादे से भी नहीं आए थे। इसीलिए लड़ाई का सामान भी साथ नहीं था। मुहर्रम की 7 तारीख को 500 सवारों का एक लश्कर नहरे फ़ुरात पर लगा दिया गया और इमामे हुसैन और उनके घर वालों पर पानी बन्द कर दिया गया। इब्ने सअ़द जो दुनिया पर जान देने वाला और बदबख़्त था। हुकूमत के लालच में उसने हज़रत इमामे हुसैन से लड़ाई का एलान करते हुये फ़ौरन हमले का हुक्म दिया। यह मुहर्रम की नवीं तारीख़ जुमेरात का दिन और शाम का वक़्त था। हज़रत इमाम आलीमक़ाम के कहने पर हज़रत अब्बास ने फ़ौज से बात की और नमाज़, दुआ और इस्तिग़फ़ार के लिए रात भर की मोहलत चाही तो उन्होंने यह बात मान ली। (तबरी) रात में हजरत इमाम आलीमक़ाम ने अपने साथियों के बीच तक़रीर फ़रमाई। और कहा कि यह लोग मेरी जान के दुश्मन हैं। मेरी जान ले लेंगे तो किसी और की तरफ़ मुतवज्जेह नहंीं होंगे। इसलिए तुम में से जो चाहे रात के अँधेरे में चला जाए। उस पर मेरी तरफ़ से कोई इल्ज़ाम नहीं है।
इमाम के साथियों ने जब यह बात सुनी तो तड़प कर जवाब दिया कि हम अपनी जानें आप पर कु़र्बान कर देंगे मगर आपका साथ नहीं छोड़ेंगे। इसके बाद आप और आपके तमाम साथियों ने नमाज़ और दुआ, तौबा व इस्तिग़फ़ार में सारी रात गुज़ार दी और ख़ेमे के पीछे ख़न्दक खोद दी ताकि जंग के वक़्त उसमें आग लगा दी जाए और दुश्मन पीछे से हमला न कर सके। आशूरा की रात ख़त्म हुई और दसवीं मुहर्रम की सुबह हुई। इमाम आलीमक़ाम ने साथियों के साथ फ़ज्र की नमाज़ अदा की। इधर यह तीन दिन के भूके प्यासे थे और उधर 22000 का ताज़ा दम लश्कर था। हज़रत इमाम आलीमक़ाम मैदाने जंग में तशरीफ़ लाए और एक तक़रीर फ़रमाई। लेकिन उस बद-बख़्त यज़ीदी लशकर पर कुछ असर न हुआ सिवाए हज़रत हुर के। हज़रत हुर हज़रत इमाम आली मक़ाम की तक़रीर सुन कर हुर यज़ीदी लश्कर को छोड़ कर इमाम आलीमक़ाम के पास आए। अपने किए पर माफ़ी चाही और कहा कि ख़ुदाए तअ़ाला की बारगाह में तौबा करता हूँ और अपनी जान आपके क़दमों पर कु़र्बान करने के लिए हाज़िर हूँ। क्या इस तरह मेरी तौबा क़बूल हो जाएगी। हज़रत ने फ़रमाया, अल्लाह तअ़ाला तुम्हारी तौबा क़बूल फ़रमाएगा और तुम्हें बख़्श देगा। इसके बाद हज़रत हुर ने कूफ़ियों से मुख़ातिब होकर उन्हें बहुत एहसास दिलाया कि जो तुम करने जा रहे हो वह तुम्हारे लिए आख़िरत में बर्बादी का सबब है। मगर वह कहाँ मानने वाले थे। उन लोगों ने उन पर तीर बरसाना शुरू कर दिए वह वापस इमाम आलीमक़ाम की ख़िदमत में हाज़िर हो गए। इसके बाद जंग की इब्तिदा हुई। इब्ने सअ़द ने पहला तीर इमाम के साथियों की तरफ़ फेंका। एक-एक करके इमाम आलीमक़ाम के साथी मैदान में आते गए और यज़ीदी लश्कर के बड़े-बड़े सूरमाओं को गाजर मूली की तरह काटते रहे। अहलबैत के अफ़राद एक-एक करके मैदाने जंग में आते रहे और बड़ी तादाद में यज़ीदियों को जहन्नम में पहुँचाते रहे। हज़रत अक़़ील के साहबज़ादे एक-एक करके शहीद हुए। फिर हज़रत अली के जिगरपारे बहादुरी के साथ लड़ते हुए शहीद कर दिए गए। अब हज़रत इमाम हसन के साहिबज़ादे हज़रत क़ासिम ने जौहर दिखाए कि दुश्मनों के दिल हिल गए। बड़े-बड़े पहलवानों को एक-एक वार में मौत के घाट उतार दिया। अब सबने मिल कर हमला किया और इस शेर को शहीद कर दिया। इसके बाद हज़रत अब्बास दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हुए। फिर इमाम हुसैन आलीमक़ाम के बड़े बेटे हज़रत अली अकबर वालिदे बुज़्ाुर्गवार की इजाज़त से मैदान में आए। एक-एक करके कई नामी बहादुरों को मौत के घाट उतारा। आख़िर दुश्मनों ने चारों तरफ़ से घेर कर आपको शहीद कर दिया। इसके बाद नन्हें अली असग़र को भी तीर मार कर शहीद कर दिया गया। इसके बाद इमाम पाक ख़ेमें में तशरीफ़ लाए। मिस्री क़बा पहनी, अपने नाना जान का इमामा मुबारक, सर पर बाँधा, हज़रत अमीर हमज़ा की ढाल पीठ पर रखी, शेरे ख़ुदा की तलवार गले में लटकाई और जाफ़रे तय्यार का नेज़ा हाथ मंें लिया। इसके बाद घर की अहलेबैत को सब्र और अल्लाह की रज़ा पर राज़ी रहने की तलक़ीन कर मैदाने जंग में आए और तक़रीर फ़रमाई। फिर एक-एक कर इमाम ने दुश्मनों की लाशों का ढेर लगा दिया। इराक़ व शाम के बहादुरों को क़त्ल कर दिया। इमामे हुसैन की बहादुरी देखकर दुश्मनों के लश्कर में हंगामा बरपा हो गया और वह बद-बख़्त इमामे हुसैन पर चारों तरफ़ से टूट पडे़े। अब सैकड़ों तलवारें एक साथ चमकने लगीं। दुश्मन बढ़ बढ़ कर इमाम पर वार करने लगे। चारों तरफ़ से तीर बरसाये। घोड़ा ज़ख़्मी हो गया। 72 ज़ख़्म खाने के बाद आप सज्दे में गिरे और अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए 56 साल 5 माह 5 दिन की उम्र में जुमा के दिन मुहर्रम की 10 वीं तारीख़ सन् 61 हिजरी को शहीद हो गए। आपके सरे मुबारक को तन से जुदा कर दिया गया।

लेखकः- तौहीद अहमद ख़ाँ रज़वी

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